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‘ख़ामोशी बलात्कार की माँ है’

वुसतुल्लाह ख़ान बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान बलात्कार के लिए ज़रूरी है कि एक तो बलात्कारी जिस्मानी तौर पर उससे ज़्यादा ताकतवर हो जिसका वो बलात्कार कर रहा है. वो मन में किसी वजह से या बिलावजह नफ़रत पालना जानता हो और मौका मिलने पर बदला लेने या कमज़ोर पर अपनी ताकत दिखाने की क्षमता रखता हो. […]

बलात्कार के लिए ज़रूरी है कि एक तो बलात्कारी जिस्मानी तौर पर उससे ज़्यादा ताकतवर हो जिसका वो बलात्कार कर रहा है. वो मन में किसी वजह से या बिलावजह नफ़रत पालना जानता हो और मौका मिलने पर बदला लेने या कमज़ोर पर अपनी ताकत दिखाने की क्षमता रखता हो.

ये तीन-चार मोटी-मोटी बातें हर जीव-जंतु, पशु-पक्षी में अलग-अलग तो पाईं जाती हैं, लेकिन मनुष्य अकेला जीव है जिसमें ये सब क्षमताएँ एक साथ मौजूद हैं.

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इसीलिए मनुष्य ही अकेला ऐसा पशु है जो अकेले या ग्रुप में बलात्कार कर सकता है. यही वजह है कि जंगल के समाज में एंटी रेप क़ानून लागू करने की ज़रूरत नहीं पड़ती.

ऐसा क़ानून सिर्फ़ उस समाज में ही बनाया जाता है जो ख़ुद को सभ्य समझता है.

क्या हर मर्द बलात्कारी हो सकता है? ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन ज़िंदगी में बहुत से मर्द किसी कमज़ोर के बारे में कम से कम एक दफा ज़रूर सोचते हैं कि अगर बस चले तो इसकी हत्या या बलात्कार कर दूँ.

मुझे मालूम है कि आप कहेंगे कि नहीं ऐसा नहीं है, पाँचों अंगुलियाँ एक सी थोड़ी ही होती हैं, वगैरह वगैरह. चलिए, मान लेते हैं कि पाँचों उंगलियाँ एक सी नहीं होतीं.

मर्दों की सोच

मगर दिल पर हाथ रखकर ये तो बताइए कि इस दुनिया के कितने मर्द हैं जो बलात्कार को हत्या बराबर समझते हैं?

कितने फीसदी मर्दों को बलात्कार पीड़ित से वाकई हमदर्दी होती है और कितने प्रतिशत ये समझते हैं कि हो न हो इसमें बलात्कार होने वाली या वाले का भी क़सूर होगा?

अरे तो क्या ज़रूरत पड़ी थी, इतना बन-ठन के निकलने की, नाज़-नखरे दिखाने की और मर्दों के जज़्बात उभारने की. अरे ये तो है ही ऐसी… चलो दफ़ा करो. जवानी के जोश में ऐसा हो ही जाता है…ये लो तीन लाख रुपए और भूल जाओ.

ये कौन सी नई बात है, ये मीडिया वाले भी ना…भई, इसे भी तो चाहिए था कि पैदा करने वाले माँ-बाप से पूछ लेती कि फलां से शादी कर लूँ कि नहीं. तौबा-तौबा अपनी जात-बिरादरी के बाहर वालों से मुहब्बत कर बैठी, तभी तो इसके साथ ये हुआ.

होना क्या है?

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'ख़ामोशी बलात्कार की माँ है' 2

साहब आप भले एफ़आईआर लिखवा लें, मगर होना-हवाना कद्दू भी नहीं है. बड़े साहब, एक बात कहूँ आप भी अपनी बच्चियों पर थोड़ा कंट्रोल रखें, ज़माना ठीक नहीं, लड़के बहुत तेज़ चल रहे हैं.

अच्छा, ये बलात्कार सिर्फ औरत का ही क्यों होता है? औरत के भी तो जज़्बात होते होंगे और ये जज़्बात बेकाबू भी होते होंगे.

तो फिर ऐसा क्यों नहीं होता कि तीन-चार औरतें एक बस में अकेले रह जाने वाले किसी ख़ूबसूरत मर्द को पकड़कर उसका बलात्कार कर डालें और फिर छुरी से उसकी गर्दन और बाक़ी ज़रूरी चीज़ें भी काट डालें.

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या फिर अगर किसी का मर्द किसी और के साथ चोरी-छुपे पकड़ा जाए तो वो घरवाली या गर्लफ़्रेंड चार-पाँच सखियों-सहेलियों के साथ इस मरदुए को पकड़कर आम के दरख़्त से लटका दें.

या कोई लड़की अपने बेवफ़ा मंगेतर को कोर्ट कचहरी के बाहर अपनी माँ-बहनों, खालाओं और फूफिओं के साथ घेरे और उसका सिर ईंटें मार-मारकर कुचल डाले और पुलिस करीब खड़ी तमाशा देखती रहे.

बलात्कार ख़त्म हो सकता है

हाँ, बलात्कार ख़त्म हो सकता है, अगर हर मर्द ज़िंदगी में एक बार, बस एक बार सोचे कि भगवान ने उसे मर्द की बजाय औरत बनाया होता तो क्या होता? मगर मर्द काहे को ये सोचे?

यह तो बिल्कुल ऐसा ही है कि कोई लकड़बग्घा ये सोचे कि अगर वो हिरण होता तो उस पर क्या बीतती.

हमारी तो तालीम ही घर से शुरू होती है. औरत पैरों की जूती है. औरत को ज़्यादा सिर पर मत चढ़ाओ, औरत कमअक़्ल है, कभी भूल के भी मशविरा न लेना, औरत की हिफ़ाज़त करो, उसके आगे चलो, न ताज मांगे न तख़्त, औरत मांगे….

हमारे 80 फीसदी लतीफे और 100 फीसदी गालियाँ औरत के गिर्द घूमती हैं.

मान जाए तो देवी, न माने तो छिनाल. क्या सारा समाज बचपन से बुढ़ापे तक इसी घुट्टी पर नहीं पलता और फिर यही समाज राज्य, पंचायत और पुलिस में बदल जाता है. ऐसे में कौन सा क़ानून क्या उखाड़ लेगा?

अब एक ही रास्ता है, चीखो! कुछ मत छिपाओ, सब कुछ बता दो. यही तरीका है इज़्ज़त के मानी बदलने का. ख़ामोशी रेप की माँ है.

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