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एक आने के डाक टिकट ने बनाया ईमानदार

-शरीर किसी भी हालत में हो दिमाग तो अपना काम करता रहता है – ।।ओमप्रकाश बजाज।। तकरीबन 60 साल पहले की बात है. देश का विभाजन अभी हुआ ही था, जिसके शिकार हम भी हुए थे. संघर्ष जीवन का दूसरा नाम हो चुका था. अपनी पढ़ाई-लिखाई अधूरी छोड़ कर परिवार की खातिर दो जून की […]

-शरीर किसी भी हालत में हो दिमाग तो अपना काम करता रहता है –

।।ओमप्रकाश बजाज।।

तकरीबन 60 साल पहले की बात है. देश का विभाजन अभी हुआ ही था, जिसके शिकार हम भी हुए थे. संघर्ष जीवन का दूसरा नाम हो चुका था. अपनी पढ़ाई-लिखाई अधूरी छोड़ कर परिवार की खातिर दो जून की रोटी जुटाने के लिए मैंने कुछ ही दिन पहले कानपुर में एक बीमा कंपनी में 80 रुपये मासिक वेतन पर नौकरी शुरू की थी. उन दिनों बैंकों तथा बीमा कंपनियों में काम के घंटे नियत नहीं होते थे. सभी कर्मचारी प्राय: आठ-साढ़े आठ बजे दफ्तर पहुंच जाते थे. छुट्टी रात को दस ग्यारह बजे, कभी-कभी उससे भी देर में हुआ करती थी. दफ्तर और घर में चार मील की दूरी होने तथा पैदल आने-जाने के कारण घर से काफी जल्दी निकलना पड़ता था तथा काफी देर रात गये लौट पाता था. बहरहाल किसी तरह यह सिलसिला चल रहा था.

देखते ही देखते 31 दिसंबर का दिन भी आ गया. उस दिन वार्षिक लेखाबंदी हो रही थी. काम करते-करते दिन कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला. घड़ी देखी तो रात के सवा एक बज चुके थे. थकान के मारे बुरा हाल हो रहा था. किसी तरह काम निबटाया और दफ्तर से बाहर आया. मन में पहला सवाल यही था कि इतनी रात गये अकेले पैदल घर कैसे जाऊंगा? लेकिन मानो इतनी परेशानी काफी नहीं थी इसलिए बाहर बारिश भी हो रही थी. दिसंबर का महीना, कानपुर की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से जोरदार बारिश. बदन पर सूती कमीज-पाजामा, घर चार मील दूर था और पैदल जाने के सिवा दूसरा कोई और विकल्प नहीं था. काफी सोच-विचार के बाद मैंने बड़े बाबू से दफ्तर की साइकिल ले जाने की अनुमति ले ली और बारिश में भीगते, सर्दी से ठिठुरते हुए घर की ओर रवाना हुआ.

लेकिन मुसीबतें अभी खत्म नहीं हुई थीं. अभी मैं ज्यादा दूर नहीं जा पाया था कि साइकिल का पिछला पहिया अचानक घिसटने लगा. उतर कर देखा तो वह पंर हो चुका था. उस जमाने में रात के वक्त मैं पंर बनवाता भी तो कहां, इसलिए साइकिल घसीटते हुए चलने लगा. भीषण सर्दी, वर्षा की बौछारें, तन पर भीगा हुआ कमीज-पाजामा. ऐसे में साइकिल को घसीटते हुए लगभग साढ़े-तीन मील का बाकी सफर तय करना बेहद कष्टप्रद था. मन बेहद खिन्न हुआ.

सोचा, हे भगवान, मैंने कौन- सा ऐसा पाप किया है, जिसकी तू यह सजा दे रहा है. अचानक एक बात ध्यान में आयी. ओह! कहीं यह उस वजह से तो नहीं? ध्यान में आया कि आज ही सुबह मैंने चोरी की है. हां, उसे चोरी ही कहेंगे. सुबह दफ्तर की डाक खोलते समय एक लिफाफे पर एक आने का एक डाक टिकट नजर आया, जो किसी तरह कैंसिल होने से रह गया था.

मैंने काफी सोचा, लेकिन लगा कि इसे किसी भी तरह कंपनी के हिसाब में लाया नहीं जा सकता. टिकट काम का था और इसलिए उसे रद्दी की टोकरी में फेंकने का मन नहीं हुआ. 18-19 साल की कच्ची उम्र ही तो थी. लिफाफे से टिकटवाला उतना टुकड़ा फाड़ कर जेब में रख लिया था. अब भी पड़ा था, भीग रहा था. शरीर किसी भी हालत में हो दिमाग तो अपना काम करता ही रहता है. दिमाग में यह बात घर कर गयी कि मैंने यह एक आने की चोरी की है क्योंकि यह टिकट मेरा नहीं था. पंर बनवाने का खर्च तो होगा ही. यह जो कष्ट उठाना पड़ रहा है, यह गलत काम करने की सजा है. फौरन जेब से भीगा हुआ वह टिकट निकाल कर बारिश के बहते हुए पानी में डाल दिया. गोया पाप से मुक्ति पा ली.

जीवन के एकदम शुरुआती दिनों में घटी इस घटना ने मेरे दिलोदिमाग पर एक अमिट निशान छोड़ दिया. लगभग साठ वर्षो की इस अवधि में बहुत से अवसर आये, जब मन दो राहे पर आ खड़ा हुआ. विचलित होने को हुआ. मगर वर्षो पुरानी इस घटना की याद ने फौरन मन को दृढ़ कर के, संभाल कर सही और सीधी ईमानदारी की राह पर डाल दिया.

(लेखक भारतीय जीवन बीमा निगम के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं और जबलपुर में रहते हैं)

साभार : तहलका

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