।। अनुज कुमार सिन्हा।।
दो दिनों बाद यानी 31 मई को झारखंड/वनांचल आंदोलनकारी चिह्नीकरण आयोग का कार्यकाल खत्म हो जायेगा. दो साल पहले आयोग का गठन किया गया था. हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश विक्रमादित्य इसके अध्यक्ष हैं. बड़े परिश्रमी, मेहनती और जुनूनी. दो साल में अभाव के बावजूद काम करके दिखाया है. पर झारखंड सरकार चुप है. सवाल एक ही है. क्या होगा 31 मई के बाद. आयोग तो बना दिया गया, पर सुविधा नहीं दी गयी. कुरसी टेबल तक की पूरी व्यवस्था नहीं है. आयोग के एक सदस्य सुधीर महतो की मौत हो चुकी है. उनकी जगह किसी की नियुक्ति नहीं हुई. दूसरे सदस्य ने जमशेदपुर से बाहर नहीं निकलते. इसके बावजूद काम आगे बढ़ा. हजार से ज्यादा आंदोलनकारियों की पहचान की गयी. आयोग ने उनका नाम सार्वजनिक किया. आधा काम बाकी है. स्थिति यह है कि आयोग तो बन गया, लेकिन आयोग के लोगों को बिना वेतन के काम करना पड़ा. 50 हजार से ज्यादा आंदोलनकारियों (जिन्होंने आवेदन किया) की पहचान मामूली काम नहीं है. उसके लिए आवेदन तो मंगाये गये. जिला स्तर पर जा कर आंदोलनकारियों को खोजना था. साधन के अभाव में कैसे होगा यह काम? अगर आयोग का कार्यकाल नहीं बढ़ा, तो जिनके आवेदन लंबित हैं, उनका क्या होगा?
सच यह है कि इस मामले में झारखंड सरकार भी रुचि नहीं ले रही है. राज्य बने 14 साल होने को है और आज तक आंदोलनकारियों को कोई लाभ नहीं मिला. सत्ता में जो आज मलाई खा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि झारखंड राज्य मुफ्त में, बैठे-बैठे, किसी की दया से नहीं मिला. संघर्ष करना पड़ा. जान देनी पड़ी. गोली खानी पड़ी. किसी की शहादत पर मिले राज्य पर मंत्री राज कर रहे हैं. उन लोगों को भूल गये हैं, जिनकी शहादत की बदौलत राज्य मिला. आंदोलनकारियों ने पुलिस की गोली-मार खायी, लेकिन आज शहीदों के परिजनों को कोई नहीं पूछता. आंदोलनकारियों की बात ही नहीं होती. जब पढ़ाई का समय था, नौकरी का समय था, उस वक्त राज्य पाने के लिए सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे. अब तो पढ़ाई-नौकरी की उम्र भी नहीं रही. लगभग हर मुख्यमंत्री यह घोषणा करते रहे कि आंदोलनकारियों को पेंशन-नौकरी मिलेगी, शहीदों के परिजनों का ख्याल होगा. तारीफ करनी होगी हेमंत सोरेन की. अकेले मुख्यमंत्री निकले, जिन्होंने गुवा गोलीकांड के शहीदों के परिजनों को नौकरी दे दी. अंदर से विरोध भी था. नियम बता कर अड़ंगा लगाया, लेकिन मुख्यमंत्री भी नौकरी देने के लिए अड़े रहे. आगे भी उन्हें ऐसे ही अड़ना पड़ेगा. सिर्फ गुवा गोली कांड के शहीदों को नौकरी देने से काम नहीं चलेगा. पूरे राज्य में हजारों लोग आस के साथ हेमंत सोरेन की ओर देख रहे हैं. जो काम शिबू सोरेन ने नहीं किया, वह काम हेमंत सोरेन ने कर दिखाया है. इसलिए उन्हीं से उम्मीद भी है.
अब आंदोलनकारी निराश हैं. उन्हें पता है कि इस बार आयोग बनने, इतना काम होने के बाद अगर कुछ नहीं मिला, तो भविष्य में उम्मीद बेकार है. कुछ नहीं मिलेगा. 5-10 साल में लोग भूल भी जायेंगे कि कैसे मिला था झारखंड? 20 साल बाद खोजने से नहीं मिलेंगे आंदोलनकारी, जैसे अभी स्वतंत्रता सेनानी नहीं मिलते हैं. दिक्कत यह है कि सरकार में जितने भी मंत्री (झामुमो छोड़ कर) हैं, अधिकांश को झारखंड आंदोलन से कोई मतलब नहीं रहा है. वे क्यों चाहेंगे कि आंदोलनकारियों को लाभ मिले. जो झामुमो के हैं भी, उनके पास अब इतने साधन हैं कि पेंशन-नौकरी से फर्क नहीं पड़ता. मर रहे हैं तो ़ईमानदार आंदोलनकारी, जो किसी राजनीतिक पार्टी में घुस कर नहीं कमा रहे हों, ठेके नहीं ले रहे हों. शिबू सोरेन (खुद बड़े आंदोलनकारी) को यह सोचना चाहिए कि लोकसभा चुनाव में झामुमो की इज्जत अगर किसी ने बचायी है तो वे हैं दुमका और राजमहल के आंदोलनकारी. अगर वे नहीं सक्रिय होते तो सीट गयी थी हाथ से. आंदोलनकारी भले बूढ़े हो गये हों लेकिन आज भी वे शिबू सोरेन के लिए जीते हैं-मरते हैं. उनमें गुरुजी के प्रति सम्मान है. चुनाव में यही दिखा भी. इसलिए अब बारी है गुरुजी की, हेमंत सोरेन की. वे आंदोलनकारियों के बारे में सोंचे. कड़े फैसले ले. ऐसा न हो कि विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा बन जाये और मुख्यमंत्री कुछ बोलने लायक न रहें. बेहतर है कि आयोग का कार्यकाल बढ़े, आयोग को सुविधा दी जाये, समय निर्धारित किया जाये. हर हाल में विधानसभा चुनाव के पहले शहीदों के परिजनों को नौकरी मिले, आंदोलनकारियों को पेंशन/सम्मान. यह बहुत बड़ा काम होगा. झारखंड सरकार (खास कर झामुमो) के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. हां, अफसर और अन्य दल नहीं चाहेंगे कि यह काम हो. अब तय मुख्यमंत्री को करना है कि बड़े फैसले लेकर इतिहास रचते हैं, अपना वोट बैंक पक्का करते हैं या बदनामी मोल लेते हैं.
राज्य बने 14 साल होने को है और आज तक आंदोलनकारियों को कोई लाभ नहीं मिला. सत्ता में जो आज मलाई खा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि झारखंड राज्य मुफ्त में, बैठे-बैठे, किसी की दया से नहीं मिला. संघर्ष करना पड़ा. जान देनी पड़ी. गोली खानी पड़ी.