मोदी सरकार बनने के साथ तय हो गया था कि विकास में गंगा पर भी ध्यान होगा. आखिर, बनारस में नरेंद्र मोदी का एक नारा ‘मुझे मां गंगा ने बुलाया है’ भी तो था. सरकार गठन के बाद मंत्रियों ने अपने बयानों में जताया है कि पर्यावरण की सुरक्षा और निर्माण-कार्य के बीच संतुलन कायम रखते हुए विकास की रफ्तार तेज की जायेगी.
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग और जहाजरानी मंत्रालय का पदभार संभालने के बाद नितिन गडकरी का यह कहना कि गंगा के प्राचीन गौरव को बहाल करते हुए उसे गंगोत्री से कानपुर और कानपुर से पटना तक परिवहन-मार्ग के रूप में विकसित करना मेरी प्राथमिकताओं में है, इसका एक सुखद संकेत है. गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए आंदोलनरत उमा भारती को जल संसाधन एवं गंगा सफाई अभियान मंत्री बनाना भी संकेत है कि सरकार पर्यावरण-हितैषी विकास नीति को बढ़ावा देगी.
लेकिन केवल संकेतों को प्रमाण के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता, क्योंकि गंगा को स्वच्छ बनाने की महत्वाकांक्षी योजना पर बीते तीन दशकों में अरबों रुपये बहाकर भी अपेक्षित नतीजे हासिल नहीं हुए हैं. गंगा को स्वच्छ बनाने की योजना 1985 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ नाम से शुरू हुई थी. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में ‘सेंट्रल गंगा अथॉरिटी’ नाम से एक सर्वोच्च निकाय बना. निगरानी समिति और स्टीयरिंग समिति भी बनी. इनमें समन्वय के लिए गंगा परियोजना निदेशालय कायम किया गया.
इतनी भारी-भरकम नौकरशाही कायम करने के बावजूद गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण 462 करोड़ रुपये खर्चने के बाद अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया, तो दूसरा चरण 1993 में 1498 करोड़ के बजट के साथ शुरू हुआ. जहां तक परिणाम का सवाल है, 1993 से 2000 के बीच 655 करोड़ रुपये खर्चने के बावजूद योजना के प्राथमिक लक्ष्य मलजल-शोधन और निवारण का महज 39 फीसदी काम पूरा हो सका था. गंगा को परिवहन-मार्ग के रूप में विकसित करने का गडकरी का बयान और पहले दिन गंगाजल लेकर मंत्रलय पहुंचनेवाली उमा भारती का शुरुआती उत्साह स्वागतयोग्य है, पर उन्हें अगले कुछ महीनों में अपने काम से साबित करना होगा कि गंगा को लेकर उनका रवैया बीते तीन दशकों के सरकारी रवैये से अलग और सकारात्मक है.