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भारत की समस्याओं के लिए नेहरू कितने ज़िम्मेदार?

अपूर्वानंद विश्लेषक, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह ने 1928 में इक्कीस साल की उम्र में एक छोटा-सा निबंध लिखा जिसमें वो पंजाब के नौजवानों के लिए आदर्श नेता की खोज करते हैं. उनके सामने दो नेता थे जिन्हें तब भारत के युवा अपना हृदय सम्राट मानते थे, एक सुभाषचन्द्र बोस और […]

स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह ने 1928 में इक्कीस साल की उम्र में एक छोटा-सा निबंध लिखा जिसमें वो पंजाब के नौजवानों के लिए आदर्श नेता की खोज करते हैं.

उनके सामने दो नेता थे जिन्हें तब भारत के युवा अपना हृदय सम्राट मानते थे, एक सुभाषचन्द्र बोस और दूसरे जवाहरलाल नेहरू. बल्कि दिलचस्प तरीक़े से वे शिक्षाविद् साधू वासवानी का भी किंचित विस्तार से ज़िक्र करते हैं जिनका संगठन, “भारत युवा संघ” भगत सिंह के मुताबिक़ तब के युवा वर्ग में ख़ासा लोकप्रिय था.

वासवानी के बारे में वे कहते हैं कि उनके विचारों का सार एक वाक्य में यह है, “वापस वेदों की ओर लौट चलो.”

भगत सिंह वासवानी को दकियानूसी विचारों का पोषक कहते हैं. फिर वे लिखते हैं कि सुभाष का मानना है कि भारतीय राष्ट्रीयता की जड़ें ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में हैं और उनके मुताबिक़ हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है.

वे भी वासवानी की तरह हर वस्तु को पहले से भारत में मौजूद मानते हैं. इसके उलट जवाहर लाल नेहरू हैं जो अपने देश को दूसरे देशों के मुक़ाबले बहुत ख़ास मानने को तैयार नहीं.

भगत सिंह सुभाष को राजपरिवर्तनकारी और नेहरू को युगांतरकारी मानते हैं. वे पंजाब के नौजवानों को कहते हैं कि अगर उन्हें विचार की आवश्यकता है तो उन्हें नेहरू के साथ लग जाना चाहिए.

नेहरू व्यवस्था के प्रतीक

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भारत को आज़ादी मिलने के दो दिन बाद दिल्ली में नेहरू

आज यह छोटा सा लेख पढ़कर यकीन करना कठिन होता है कि इसे भगत सिंह ने लिखा होगा. भगत सिंह को अपना नायक मानने वाले भी इसे उनकी नादान भावुकता का परिणाम मानते हैं. हालांकि यहाँ भगत सिंह का पक्ष बिलकुल स्पष्ट है: वे मात्र भावुक राष्ट्रवाद की जगह की एक विचारशील परिवर्तनकारी विचार की खोज में नेहरू की तरफ झुकते दिखाई देते हैं.

यह इतिहास की विडंबना है कि नेहरू कालान्तर में युगांतरकारी के स्थान पर व्यवस्था के प्रतीक बन गए और व्यवस्था परिवर्तन के लिए नेहरू को ध्वस्त करना अनिवार्य शर्त बन गयी. लोहिया ने भारतीय जनतंत्र में नवजीवन के रास्ते में नेहरू को सबसे बड़ी बाधा माना और उसे हटाने के लिए वे किसी हद तक जाने को तैयार थे.

नेहरू के जन्म के एक सौ पचीसवें और उनकी मृत्यु के पचासवें साल भारत ने उस विचार को सत्ता देने का निर्णय किया है जिसे नेहरू भारत के विचार के लिए घातक मानते रहे और जिसके ख़तरे से देश की जनता को आजीवन सावधान करते रहे.

नेहरू के साथ भारत का प्रेम प्रसंग ज़्यादा लंबा नहीं चला. उन्हें भगत सिंह की शहादत नसीब नहीं होने वाली थी, न वे सुभाष की तरह एक अश्वत्थामा का जीवन पाने वाले थे. उनके गुरू की तभी हत्या कर दी गई जब उनके विचारों के संदर्भ में उनके देशवासियों को ख़ुद को साबित करना था और उनसे पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें संत की पदवी दे दी गई जो सांसारिकता से परे होता है.

इस तरह गांधी अप्रासंगिक बना दिए गए थे. नेहरू को अपने समवर्तियों में सबसे अधिक सांसारिक माना जाता है. जय प्रकाश नारायण जैसे उनके मित्र संन्यासी हो गए थे.

भारत की समस्याएं और नेहरू

नेहरू भारतीय राष्ट्रवाद के रोमांटिक दौर से बहुत बाद तक जीवित रहने वाले थे. उनके गुलाब की आभा एक नए राष्ट्र के निर्माण और राज्य को गढ़ने के दौरान उठने वाली गर्द से मंद पड़ने को अभिशप्त थी.

यह दिलचस्प है कि भारत की हर समस्या के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार माना जाता है: वह कश्मीर का अनसुलझा प्रश्न हो या उत्तरपूर्व के तनाव हों, निरक्षरता हो या हिन्दू वृद्धि दर, भारत में समाजवाद का आने से इनकार, यहां तक कि साम्प्रदायिकता के कीटाणु के लिए भी वही उत्तरदायी माने गए हैं.

वंशवाद के तो वे असंदिग्ध अपराधी माने गए हैं, उनके अध्येता इतिहासकार भले कुछ और कहते रहें.

नेहरू को पराई पश्चिमी आधुनिकता के पौधे को भारत की भूमि में ज़बरन रोपने का भी अपराधी माना जाता है जिसने इस भूमि की सम्पूर्ण पोषक क्षमता को सोख लिया और इसे बंजर बना दिया.

अनेक विद्वान मानते हैं कि उनके चलते भारतीयों में अपनी परंपरा को लेकर एक विचित्र प्रकार की हीनता और अपराधबोध भर गया जिसकी विकृत अभिव्यक्ति साम्प्रदायिकता में हुई.

नेहरू को गांधी की तरह ही स्त्रैण माना जाता है. वे युद्धभीरु भी माने गए हैं. नेहरू के जीवनकाल और उसके बाद के पचास वर्षों में नेहरू के प्रतिमा भंजन और नेहरू घृणा के अनेक स्रोत रहे हैं. परिणाम इस पचासवीं पुण्य तिथि के वर्ष में सामने है.

नेहरू के प्रति श्रद्धालु रवैया अपनाने की ज़रूरत नहीं. विवेकपूर्ण तरीक़े से उनकी चुनौतियों को समझने की आवश्यकता है.

गांधी और टैगोर

नेहरू निःसंकोच भाव से ख़ुद को गांधी युग की सन्तान कहते थे. वे मूलतः अहिंसा में विश्वास करने वाले अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे. इस मामले में वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के काफ़ी क़रीब थे.

वे आधुनिकता के मूल सिद्धांतों में यकीन करते थे और वैज्ञानिक चेतना के हामी थे लेकिन विज्ञानवाद को लेकर उनके मन में संदेह था. वे उसके अंधविश्वासी अनुयायी होने को तैयार न थे.

नेहरू गांधी की तरह धार्मिक नहीं थे और वर्ण व्यवस्था में आतंरिक सुधार को लेकर गाँधी की आश्वस्ति से उन्हें उलझन होती थी. लेकिन वे नास्तिकतावाद के प्रचार को ज़रूरी नहीं मानते थे.

उनके लिए महत्वपूर्ण थी मानवीयता या मानवीय गरिमा का आदर. इस वजह से वे किसी के धार्मिक विश्वास पर विज्ञान के हथौड़े से चोट करने को राजी न थे.

नेहरू को एक ख़ून से लिथड़ा और नफ़रत से भरा हुआ नया राष्ट्र प्राप्त हुआ था. उसे मानवीय संवेदना से युक्त करने की चुनौती उनके सामने थी.

आशंकित मुस्लिम मन को आश्वस्ति देनी थी और क्रुद्ध हिन्दू मन को मुसलमान को अपना पड़ोसी मानने को तैयार करना था. सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे ‘स्वाभाविक’ हिन्दू काँग्रेसी मित्रों से संघर्ष के अलावा समाजवादी, साम्यवादी आलोचकों, स्वतन्त्र अर्थव्यस्था के हामी उदारवादियों से लेकर धुर दक्षिणपंथियों तक से निरंतर जूझने का ही सवाल न था, उनसे लगातार संवाद बनाए रखने की चुनौती भी थी.

मौजूदा पीढ़ी से दूर

संसदीय लोकतांत्रिक व्यवहार का संस्कार विकसित करना आसान न था. संवाद की संस्कृति आलोचना के प्रति सहिष्णुता के बगैर कैसे रची जा सकती थी? बिना अपने विचारों को छोड़े क्या दूसरे विचार को समझने का माद्दा हासिल करना मुमकिन था?

नेहरू क्या थे? क्रांतिकारी, जो बाद में सत्तामोह में पथभ्रष्ट हो गए? क्या वे सुधारवादी थे? क्या वे अपनी अपर्याप्त भारतीयता के कारण अपराधबोध ग्रस्त आधुनिक थे? क्या वे यथास्थितिवादी थे? क्या वे धर्मनिरपेक्षतावादी थे?

नेहरू को हर पीढ़ी अपने ढंग से समझेगी अगर वह उन्हें पढ़े क्योंकि अपने विचारों के पर्याप्त साक्ष्य उन्होंने अपने लेखन में छोड़े हैं.

नेहरू का बड़ा योगदान सांस्थानिक प्रक्रियाओं को स्थापित करने का है. दूसरा, धर्म और जाति पर टिकी सामुदायिकता को नई कॉस्मोपॉलिटन साहचर्य की ओर उन्मुख करने का. तीसरे किसी आत्मग्रस्तता से मुक्त हो अन्य की अन्यता ही नहीं उसकी अनन्यता को आदर देना सीखने के लिए प्रवृत्त करने का.

नेहरू मात्र उपयोगितावादी नहीं थे. वे मूलतः सौंदर्यवादी थे. प्राकृतिक सौन्दर्य उन्हें खींचता था लेकिन वे मानवकृत सौंदर्य के खोजी और उसकी इस सौन्दर्यात्मक संभावना को उकसाने के उपाय में अधिक दिलचस्पी रखते थे.

आज की पीढ़ी से नेहरू बहुत दूर हो गए हैं. यह स्वाभाविक है. उनकी परीक्षा की कसौटी भी सख़्त होती जा रही है.

रिचर्ड एटनबरो जब गांधी पर फ़िल्म बनाने का विचार लेकर उनसे मिले तो नेहरू ने कहा, बापू को देवता की तरह नहीं, मनुष्य की तरह चित्रित करना. नेहरू को इस पर ऐतराज न होगा कि उनके इतिहास को मनुष्य के इतिहास की तरह ही परखा जाए. क्या हुआ कि आज वह प्रतिमा धूल धूसरित है, सुंदर तो वह फिर भी है!

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