।। पुष्पेश पंत।।
(राजनीतिक विश्लेषक)
भारतीय राजनीति के महामंच पर अनुच्छेद-370 की मौजूदगी आजादी के कुछ वर्षो बाद से अब तक निर्बाध रूप से बनी हुई है. जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्तता प्रदान करनेवाले भारतीय संविधान के इस अनुच्छेद पर प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ जितेंद्र सिंह और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान के बाद इसके पक्ष और विपक्ष के तेवर एक बार फिर तीखे हो गये हैं. कुछ महत्वपूर्ण तर्को के आधार पर अनुच्छेद-370 से संबद्ध आयामों को समझने की एक कोशिश है आज कानॉलेज..
यह बात किसी को भी याद दिलाने की जरूरत नहीं कि भारतीय गणराज्य में जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय विशेष-असाधारण-परिस्थितियों में हुआ था. इसी कारण भारत के संविधान में धारा 370 को जोड़ा गया है. जब कभी इस धारा का उल्लेख मात्र होता है, अचानक राजनीतिक बहस गरमाने लगती है- मानो सुलगता ज्वालामुखी तत्काल फूटने जा रहा है. इस बार भी कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है. प्रधानमंत्री कार्यालय में नवनियुक्त राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह के बयान ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बौखला दिया है. उन्होंने अपनी चिरपरिचित ट्वीट से राजनीति करने वाली अदा में यह धमकी दी है कि जब इतिहास में ना मोदी सरकार की याद बाकी होगी, ना उमर अब्दुल्ला की, तब या तो धारा 370 बरकरार होगी या फिर जम्मू-कश्मीर भारत का अंग नहीं होगा!
इन पंक्तियों के लेखक का मानना है कि आज की नौजवान पीढ़ी को- जो कुल आबादी के आधे से अधिक है- उन असाधारण परिस्थितियों की याद ताजा कराने की जरूरत है, जिनमें यह रियासत भारत का हिस्सा बनने को तैयार हुई थी और इसके साथ-साथ शायद धारा 370 के बारे में जानकारी देने की भी जरूरत है. इतना ही जरूरी काम यह समझना भी है कि ‘तब से अब तक’ देश, दुनिया और जम्मू-कश्मीर राज्य कितना बदल चुके हैं. यह तीनों काम एक साथ किये बिना कोई भी बहस सार्थक नहीं हो सकती. एक बात और. यह बहस सिर्फ जम्मू-कश्मीर राज्य के बाशिंदों तक सीमित नहीं रह सकती. धारा 370 को संविधान में प्रतिष्ठित इस लिए किया गया कि वह भारत की एकता और अखंडता को नष्ट कर सकने वाले एक नासूर का काम करे या वंश विशेष अथवा ताकतवर तबके के स्वार्थो को संरक्षित करनेवाले कवच की तरह खुदगर्ज नेताओं द्वारा वक्त जरूरत इस्तेमाल किया जाये. जम्मू काश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और वहां अलगाववाद पनपा उपद्रव पैदा करने के लिए, इस बहस को गरमाने की साजिश बरदाश्त नहीं की जा सकती. यदि आजादी और भारत में विलय के 65 बरस बाद भी उस प्रदेश में अभाव और सामाजिक विषमता जनित आक्रोष है, तो इसका सीधा अर्थ यह है कि धारा 370 का लाभ आम जनता को नहीं हो सका है? कौन इसके लिए जिम्मेदार है? क्या शेख अब्दुल्ला की विरासत को भुना कर खानेवाले परिवार की मौकापरस्ती और अय्याशी ने ही इसमें सबसे ज्यादा सेंध नहीं लगायी है? बहरहाल वक्त है इतिहास के पन्ने पलटने का.
आजादी से पूर्व का कश्मीर
कड़वा सच यह है कि आजादी के पहले जम्मू-कश्मीर की रियासत बर्तानवी-भारतीय साम्राज्य की सुशासित रियासतों में शुमार नहीं की जाती थी. इसके शासक महाराज हरी सिंह अपनी विलासी खर्चनशीन जीवनयापन शैली के कारण ही मशहूर थे. डोगरा राजवंश के प्रमुख सलाहकार हिंदू कश्मीरी पंडित थे, जो डोगरों की ही तरह अल्पसंख्यक थे. बहुसंख्यक आबादी घाटी में मुसलमानों की थी और सामंतशाही प्रशासन का कष्ट भोग रही थी. धरती पर स्वर्ग कहलानेवाले इस भूभाग की असलियत कुछ और थी. इस अत्याचारी शोषण के खिलाफ कांग्रेस के उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता संग्राम से प्रेरित शेख अब्दुल्ला ने रियासत की उत्पीड़क सरकार के खिलाफ जनांदोलन का सफल नेतृत्व किया था. उनका नजरिया तरक्की पसंद था और वास्तव में धर्मनिरपेक्ष, इसी कारण वह नेहरू के नजदीक आ सके और उनके प्रिय पात्र और सहयोगी बन गये. बाद के वर्षो में रियासत के युवराज कर्ण सिंह के सम्मोहक व्यक्तित्व के कारण इस अप्रिय इतिहास को नजरंदाज किया जा सका, पर आज यह कबूल किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता कि महाराज हरी सिंह की असमंजस (और अलोकप्रियता) के कारण ही इस रियासत के भारत में विलय में अनावश्यक विलंब हुआ.
विलय के वक्त का माहौल
जब पाकिस्तान से घुसपैठिये हमलावरों की फौज दावानल की तरह बढ़ती श्रीनगर की दहलीज तक पहुंच गयी, तभी उन्होंने भारत से जान बचाने के लिए मदद की गुहार लगायी. भारत का यह तर्क संगत था कि भारत अपनी फौज तभी वहां भेज सकता है, जब वह भारत का हिस्सा हों. अत: ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ सक्सेशन’ पर आनन-फानन में दस्तखत किये गये, कुछ विशेषाधिकारों के प्रावधान के साथ. पाकिस्तान का गठन धर्म के आधार पर किया गया था, इसलिए नेहरू की दिली ख्वाहिश थी कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत में रहे. भारत की धर्मनिरपेक्षता को दुनिया के सामने प्रमाणित करने का इससे अच्छा कोई अन्य साधन नहीं हो सकता था. मुसलिम बहुल आबादीवाली यह रियासत पाकिस्तान को अस्वीकार कर उस मजहबी सिद्धांत को नकार रही थी, जिसके चलते देश का विभाजन हुआ था. नेहरू सोचते थे कि उनके मित्र शेख अब्दुल्ला के शासनाधीन इस रियासत का कायाकल्प उनकी इच्छानुसार हो सकेगा.
‘आजाद’ कश्मीर बना हुआ है शूल
दुर्भाग्य से इनमें कुछ भी मनोवांछित नहीं हुआ. रियासत को जबरन हड़पने के पाकिस्तानी मंसूबे भारतीय सेना के हस्तक्षेप से नाकामयाब रहे, पर इसका एक बड़ा हिस्सा ‘युद्ध विराम’ के बाद भी उसके कब्जे में ही रहा. यह पाक अधिकृत क्षेत्र ‘आजाद’ कश्मीर के नाम से आज तक शूल बना हुआ है. काल के प्रवाह के साथ शेख अब्दुल्ला ने नेहरू का विश्वास गंवा दिया. भारत सरकार ने उन्हें नजरबंद बनाया और वे नेहरू पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते रहे. नेहरू ने यह वचन दिया था कि भारत में शामिल होने के सवाल पर जनमत संग्रह कराया जायेगा, पर बाद में वह इससे मुकरते रहे. विडंबना यह है कि इस सबके बावजूद अब्दुल्ला तथा नेहरू परिवार के संबंध पीढ़ी दर पीढ़ी मधुर बने रहे. इसीलिए आज कुछ लोगों को धारा 370 वाली बहस एक नूराकुश्ती लगती है.
यह सब आज प्राक-ऐतिहासिक जान पड़ता है. 1962 में चीन के साथ सीमा युद्ध लड़े जाने के पहले ही भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर लद्दाख वाले निर्जन भूभाग में घुसपैठ कर चीन ने अक्साई चिन में सड़क निर्माण कर लिया था. इस अभियान को सहज बनाने में पाकिस्तान का योगदान रहा, जिसने पाक अधिकृत कश्मीर के कुछ सीमावर्ती इलाके चीन को सौंप दिये. गिलगित एजेंसी एवं सियाचिन का संवेदनशील रणक्षेत्र यहीं स्थित है. वर्ष 1965 और 1971 के भारत -पाक युद्धों में पाकिस्तान को आशा थी कि असंतुष्ट कश्मीरी मुसलमान बगावत का झंडा फहराते उसके साथ आ जुड़ेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. संक्षेप में विभाजन के चौथाई सदी बीतते-बीतते जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन चुका था. इस दौरान धारा 370 विवादास्पद नहीं थी. अत: यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर तब से अब तक क्या हुआ कि उस प्रदेश में असंतोष, अलगाववाद का ज्वार उफनता रहा है? यह भी कि क्या इस उफान को रोकने का काम केवल धारा 370 नामक बांध ही कर सकता है?
कितने लोग जानते हैं धारा 370
सबसे अहम बात तो यह है कि कितने लोग जानते हैं कि धारा 370 है क्या? क्या इसका उन्मूलन संवैधानिक विकल्प के रूप में संभव भी है? जम्मू कश्मीर राज्य में जमीन की खरीद-फरोख्त विषयक राज्य के कानूनों का इससे कोई नाता है भी या नहीं? इसके तहत जो विशेष दर्जा इस प्रदेश को दिया गया था, इसमें क्या कुछ शामिल था, जिसे जस का तस पत्थर की लकीर की तरह बनाये रखना परमावश्यक है? सत्तासुख भोग रहे या भोग चुके सभी कश्मीरी नेता इस बारे में एकराय हैं कि 1953 के बाद निरंतर इस विशेष दर्जे का क्षय हुआ है और इसे फिर से ‘जैसे थे’ वाली हालत में लाने की जरूरत है. दूसरी तरफ आम कश्मीरी हैं, जिन्हें लगता है कि वह आजादी के बाद तमाम आर्थिक-सामाजिक प्रगति के पूरे लाभ से वंचित रहे हैं, तो इसी कारण की धारा 370 को केंद्रीय मुद्दा बना कर शासक वर्ग अपना उल्लू ही साधता रहा है.
शायद उमर अब्दुल्ला इस सवाल का जवाब देना चाहें कि 1953 में क्या हुआ था, जिसके बाद यह प्रक्रिया शुरू हुई? 1953 से अब तक जो कुछ घटा है, उसे देखते हुए घड़ी की सुइयां पीछे लौटाना क्या संभव है? यदि नहीं तब फिर किस धारा को अक्षत रखने की बात करते ही हड़कंप मचता है. खुद उमर कबूल करते हैं कि 1989 तक यह मुद्दा विवादास्पद नहीं था- तब सवाल यह उठता है कि 1989 में क्या हुआ कि यह प्रश्न लोगों को बेचैन करने लगा? हकीकत यह है कि अपने दलगत स्वार्थो के अनुसार इस राज्य को अपने कब्जे में रखने की मानसिकता के कारण ही कांग्रेस तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस की रस्साकशी ने सब कुछ तबाह किया. इसके अलावा, सरहद पार से प्रायोजित दहशतगर्दी के कारण जम्मू-कश्मीर में अराजकता और हिंसक उपद्रवों की बाढ़ आयी है. पिछले लगभग तीन दशक से राज्य उपद्रवग्रस्त रहा है. बड़े पैमाने पर भारतीय सेना तथा सहसैनिक दलों की तैनाती के कारण ही शत्रु को नाकाम किया जा सका है. इसी दौरान घाटी से कश्मीरी पंडितों के वंश नाशक आव्रजन का मूकदर्शक राज्य सरकारें तथा केंद्र रहे हैं. जम्मू तथा लद्दाख का असंतोष कम विस्फोटक संकट नहीं पैदा कर सकता. इस माहौल में यह हठ पाले रहना कि 1953 वाली स्थिति वापस लाते ही सब कुछ ठीक हो जायेगा, आत्मघातक नादानी ही है.
एक अन्य गुत्थी कम पेचीदा नहीं. क्या असाधारण, युद्ध जैसी स्थिति में भयादोहन ग्रस्त-त्रस्त नेहरू सरकार संविधान निर्मात्री सभा से अनुनय विनय कर जिस प्रावधान को संविधान में प्रतिष्ठित करवा सके, उस पर आधारित विशेष सुविधाएं ‘यावत चंद्र दिवाकरौ’ बरकरार रखी जा सकती हैं? अंतरराष्ट्रीय कानून का सर्वमान्य सिद्धांत है कि परिस्थितियां क्रांतिकारी ढंग से बदलने पर संधियां निरस्त हो जाती हैं. क्या संघ के अन्य घटकों के साथ यह विशेष दर्जा अन्याय नहीं करता? क्यों सामरिक दृष्टि से संवेदनशील अन्य राज्य अपने यहां अलगाववाद को दूर करने के बहाने अलग झंडे, अलग संविधान, करों से छूट आदि की मांग नहीं कर सकते? क्या आज मुख्यमंत्री को वजीरे आजम और राज्यपाल को सदरे रियासत कह कर पुकारना तर्क संगत है?
सार्वजनिक बहस जरूरी
आज देश के बजट का लगभग 10 प्रतिशत जम्मू-कश्मीर के लिए आबंटित होता है. सुरक्षा पर खर्च अलग से. इसके बावजूद यदि यह धौंस जारी रहती है कि धारा 370 से छेड़-छाड़ की गयी, तो यह प्रदेश भारत का भाग नहीं रह सकता, यही एकमात्र सेतु है, जो देश के अन्य हिस्सों से उसे जोड़ता है आदि, तो इसे चुपचाप सुनना कठिन होता जा रहा है. किसी भी जनतंत्र में कोई भी विषय सार्वजनिक जिम्मेदार, संयत बहस से परे नहीं रह सकता. हमारा मानना है कि तत्काल धारा 370 के प्रावधानों-विशेषाधिकारों के बारे में तथा इसके साथ-साथ उस राज्य के अपने ही नागरिकों के साथ भेदभाव बरतने वाले कानूनों के बारे में भारत के नागरिकों की जानकारी तटस्थता से बढ़ाने का काम टाला नहीं जा सकता. याद रहे संविधान की हर धारा मानव निर्मित है- उसका संशोधन तभी असंभव है जब वह बुनियादी ढांचे का हिस्सा हो. बुनियादी ढांचे में क्या कुछ शामिल है, यह भी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन विषय है. इसलिए यह कहना कि इस विषय में मौन ही हमारी नियति है, ठीक नहीं. इस मामले में मनीष तिवारी से सहमत होना कठिन है, जो मानते हैं कि संविधान के बारे में निरक्षर ही धारा 370 के उन्मूलन की बात कर सकते हैं.
धारा 370 को अभी समाप्त नहीं किया जा सकता
।। मणिशंकर अय्यर।।
(वरिष्ठ कांग्रेसी नेता)
जम्मू-कश्मीर ही नहीं, कई दूसरे राज्यों को, जिनमें महाराष्ट्र, गुजरात तथा नागालैंड आदि शामिल हैं, केंद्र सरकार की ओर से संविधान की धारा 21 के तहत ‘अल्पकालिक’ अंतरिम तथा विशेष प्रावधान’ के विभिन्न लाभ समय-समय पर दिये जाते रहे हैं. जम्मू-कश्मीर इस दृष्टि से ऐसा कोई अकेला प्रदेश नहीं है, जिसे इस तरह का लाभ प्राप्त होता रहा है. लेकिन संविधान द्वारा प्रदत्त इन विशेष प्रावधानों की यहां समुचित व्याख्या कर देना जरूरी है, क्योंकि सांप्रदायिक लोग इसे तुष्टिकरण का मामला बता कर इस पूरे मालले को सांप्रदायिक रंग देना चाहते हैं.
1998 से राजग में रहने के कारण भाजपा की यह मजबूरी रही कि उसने कुछ समय के लिए धारा 370 के मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. लेकिन एक पार्टी के रूप में उसके इरादे में कोई कमी नहीं आयी है. वे इस बात के लिए सतत प्रय-शील हैं कि पूरे देश में धारा 370 को समाप्त करने के लिए अभियान चलाया जाये. प्रो मुरली मनोहर जोशी, हिंदुत्व के पक्के प्रचारक तथा जो कुछ सालों पहले भाजपा के अध्यक्ष थे, गरजते हुए कहते हैं कि ‘धारा 370 हर हाल में समाप्त होनी चाहिए.’ एलके आडवाणी कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने के अपने विरोध को अस्वीकार नहीं करते. इंडियन एक्सप्रेस को दिये अपने एक इंटरव्यू में आडवाणी दलील देते हैं कि जो लोग कश्मीर को विशेष दर्जा देने के पक्ष में हैं, केवल इसलिए कि वह एक मुसलिम बहुल राज्य है.
धारा 370 के पीछे महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत के साथ विलय के 57 साल बीत जाने के बाद भी इस प्रदेश को अभी भी कई प्रकार की राजनीतिक एवं सामरिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि कश्मीर के एक तिहाई भाग पर पाकिस्तान का नाजायज कब्जा है. 17 अक्तूबर, 1949 को ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य एन गोपाल स्वामी ने संविधान सभा में बयान देते हुए कहा था कि जम्मू कश्मीर को ‘विशेष प्रावधान’ दिये जाने के पीछे चार महत्वपूर्ण कारण हैं, जो इस प्रकार है:
} पहली बात तो यह कि उस भूमि पर आज भी लड़ाई की स्थिति बनी हुई है और युद्धविराम के बावजूद वहां युद्ध की सी स्थिति है.
} प्रदेश का कुछ हिस्सा अब भी दुश्मनों तथा विद्रोहियों के कब्जे में है. उसी प्रदेश का कुछ भाग अभी पाकिस्तान के कब्जे में है और लोकसभा में इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया जा चुका है कि कब्जा की गयी भूमि को आजाद कराना है.
} कानून की धारा 1(सी) की धारा 370 की ओर से यह प्रावधान है कि संविधान का अनुच्छेद यहां स्वत: ही लागू हो जायेगा. जैसा कि हम जानते हैं कि यह अनुच्छेद भारत के क्षेत्रफल को वर्णित करता है, और इसमें उन सभी राज्यों को शामिल किया गया है, जो भाग-3 के अंतर्गत वर्णित किये गये हैं. जम्मू-कश्मीर का भी इस श्रेणी में वर्णन किया गया है. इसलिए जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता और न 370 को ही लेकर कोई दुष्प्रचार फैलाया जा सकता है जैसे कि कुछ दुष्प्रचारक बार-बार ऐसा करते रहते हैं.
} कानून की धारा 1(डी) यह बताती है कि संविधान के दूसरे प्रावधानों की दृष्टि से केवल राष्ट्रपति ही अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर के इसमें कुछ फेरबदल कर सकते हैं. इसके अलावा कानून की धारा (2) इस बात का अधिकार देती है कि इसमें किसी परिवर्तन का अधिकार संविधान सभा को ही होगा. इन धाराओं की जटिलताओं से ये बातें स्पष्ट थीं कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ही राज्य के संविधान को तय करेगी. साथ ही, राज्य पर केंद्र के अधिकार का भी निर्धारण करेगी. इस तरह भारत की संविधान सभा जम्मू-कश्मीर के लिए केवल कोई अंतरिम व्यवस्था ही प्रदान कर सकती थी.
जम्मू-कश्मीर का संविधान आज भी राज्य के ऊपर लागू होता है. मजेदार बात यह है कि भाजपा द्वारा नियुक्त गवर्नर जगमोहन ने भारत सरकार को बिना सूचित किये 1990 में सबसे कड़े कानून का इस्तेमाल कर वहां निर्वाचित विधानसभा को भंग कर दिया था. धारा 370 केंद्र द्वारा संचालित की जाती है. इसे 1954 में राष्ट्रपति के आदेश पर लागू किया गया था और इसमें राज्य सरकार की सहमति ली गयी थी. इस आदेश में कहा गया है कि संविधान की धारा 1 यह कहती है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और भारतीय संविधान के सारे नियम यहां की सरकार व जनता पर लागू होंगे. धारा 370 को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि पाक की ओर से दरपेश खतरों पर पूरी तरह काबू नहीं पा लिया जाता. (एक धर्मनिरपेक्ष रूढ़िवादी की स्वीकारोक्ति पुस्तक से)