सामान्य समझ यही कहती है कि जेल जाने की जगह आदमी बेल लेना चाहेगा, पर ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल की अबतक की राजनीति सामान्य समझ को चौंकाने वाली ही रही है. नितिन गडकरी अवमानना मामले में कोर्ट ने उनके सामने बेल बॉन्ड भरने का विकल्प रखा, पर उन्होंने इस प्रक्रिया को अपनाने से इनकार कर दिया.
नतीजतन अगली सुनवाई यानी 23 मई तक उन्हें न्यायिक हिरासत में (तिहाड़ जेल) भेज दिया गया है. इसके बाद देश की राजधानी का राजनीतिक माहौल ‘आप’ कार्यकर्ताओं के विरोध-प्रदर्शन से सरगर्म हो उठा है. ‘आप’ का आधिकारिक बयान है कि भ्रष्टाचार करनेवाले जेल से बाहर हैं, परंतु भ्रष्टाचार के विरोध में जुटा एक व्यक्ति जेल के भीतर. लेकिन जरा ठहर कर सोचें, तो दिखेगा कि केजरीवाल ने बेल बॉन्ड न भरने का फैसला अपने पक्ष में जन-समर्थन जुटाने के ख्याल से किया है. इसे सही वक्त पर लिया हुआ फैसला नहीं माना जायेगा, क्योंकि केजरीवाल किसी सरकार के फैसले के विरुद्ध संघर्ष करते नहीं, बल्कि न्यायपालिका की प्रक्रियाओं और उम्मीदों के विरुद्ध खड़े दिख रहे हैं.
कई सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी है कि देश के आम लोगों के मन में पुलिस, राजनेता और नौकरशाहों की तुलना में न्यायपालिका और सेना पर भरोसा काफी ज्यादा है. जाहिर है, न्यायिक प्रक्रिया की अवहेलना करके जनसमर्थन की उम्मीद नहीं की जा सकती. इसलिए बहुत संभव है कि लोगों को उनकी इस राजनीति में गंभीरता का अभाव जान पड़े. 2014 के जनादेश में ‘आप’ की उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद से उनके कदमों में ढुलमुल रवैये की ही झलक मिल रही है. दिल्ली की सातों संसदीय सीटें भाजपा के खाते में जाने के बाद उन्हें दिल्ली में अपना जनाधार खोने की चिंता होने लगी.
इसलिए पहले तो उन्होंने दिल्ली में फिर से सरकार बनाने की कोशिशें शुरू कीं, लेकिन जब कांग्रेस ने समर्थन से दोटूक इनकार कर दिया तो जनसमर्थन के लिए नये पैंतरे अपनाते दिख रहे हैं. जनादेश में भाजपा को मिले प्रचंड बहुमत और कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के बाद जीवंत लोकतंत्र के लिहाज से देश में एक धारदार विपक्ष की जरूरत महसूस की जा रही है, लेकिन इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा कि ‘आप’ इस जरूरत को पूरा करने के लिए गंभीर नहीं दिख रही.