डॉ अश्विनी कुमार टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल सांइस में प्रोफेसर हैं. विभिन्न सामाजिक परियोजना के कार्यान्यवयन और मूल्यांकन से जुड़े प्रो कुमार की ग्रामीण विषयों में खासी रुचि रही है. टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंस और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स संयुक्त रूप से एक अध्ययन कर रह है कि वर्तमान राजनीति में लोग किस रास्ते आते हैं और पहले किस रास्ते आते थे. प्रस्तुत है लोकसभा चुनाव के मद्देनजर चुनावी राजनीति में गांव-गंवई के पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की घटती महत्ता पर पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह की बातचीत के प्रमुख अंश :
2014 के लोकसभा चुनाव में गांव-समाज से आने वाले प्रतिनिधियों की भूमिका धीरे-धीरे गौण होती जा रही है. आज ज्यादातर राजनीतिक दल नौकरशाहों, फिल्म स्टार, या उद्योगपति को चुनावी समर में टिकट देते हुए दिख रहे हैं?
राजनीति में सिर्फ इसी चुनाव में नहीं, बल्कि पहले से ही यह परंपरा शुरू होती दिखी है. खासकर मंडल, मंदिर के बाद या यूं कहे कि 1991 के बाद संपूर्ण राजनीति में संरचना में बदलाव होता हुआ दिख रहा है. राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का पूर्ण अभाव दिखाई देता है. सिर्फ गांव ही नहीं बल्कि शहर में भी यह बदलाव दिख रहा है. यही कारण है कि आज फिल्म स्टार, नौकरशाह, बड़े पद पर रहे प्रोफेशनल चुनावी राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं. यह प्रक्रिया सिर्फ एक राजनीतिक दल तक सीमित नहीं है. लगभग सारे राजनीतिक दल इसमें शामिल हैं. भाजपा ने पूर्व केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह, पूर्व सेनाध्यक्ष बीके सिंह, मुबंई पुलिस में कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह सहित फिल्म-टीवी कलाकार स्मृति ईरानी, हेमा मालिनी, मनोज तिवारी आदि को उम्मीदवार बनाया है. इसी तरह कांग्रेस ने नगमा, रविकिशन, क्रिकेटर मुहम्मद कैफ को उम्मीदवार बनाया. इतना ही नहीं राजनीति में नये-नये आये दल आम आदमी पार्टी ने भी लगभग 430 उम्मीदवार जो पूरे देश में उतारे हैं, उसमें से अधिकतर फिल्म स्टार, ब्यूरोकेट्रस, प्रोफेशनल या एनजीओ कर्मी हैं. इस तरह के माहौल को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सारे राजनीति दल एक ही तरह के प्रक्रिया की शिकार हो गये हैं और यह जो फेनोमेना विकसित हुआ है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि पूरा चुनाव सेलिब्रिटी ड्रिवन हो गया है, अर्थात किसी बड़े चेहरे को चुनाव में उतारिए जिसकी लोकप्रियता से जनता प्रभावित हो जाए और चुनाव जीता जा सके.
क्या इस तरह से आयातित प्रत्याशियों को चुनावी समर में उतारने का चलन देश के सभी राजनीतिक दलों में है, या फिर कुछ दल अपवाद भी हैं?
देखिए अपवाद तो कोई भी राजनीतिक दल नहीं है, लेकिन इस तरह का फेनोमेना राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में ज्यादा है. बसपा, सपा, जदयू, राजद आदि वर्नाक्यूलर क्षेत्रीय पार्टी में इस तरह के उम्मीदवार कम ही होते हैं. वे लोग आज भी गांव-समाज के जनाधार वाले नेताओं को ही राजनीति में उम्मीदवार बनाते हैं. हां, यह और बात है कि ये उम्मीदवार भी जितने के बाद गांव और गांव से जुड़े मुद्दों को कम ही याद रखते हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक के जितने भी बड़े नेताओं को देखेंगे वे पंचायती राज व्यवस्था के जरिए ही राजनीति में आए हैं. लेकिन वर्तमान राजनीति में व्यक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है और पार्टी-विचारधारा गौण होते जा रहे हैं.
लेकिन सवाल तो यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? आज भी ग्रामीण मतदाता शहरी मतदाताओं की तुलना में चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है, बावजूद इसके राजनीतिक दलों के इस तरह के उम्मीदवारों पर निर्भरता के पीछे क्या कारण है?
इस प्रश्न के जवाब के लिए हमें स्वतंत्रता के बाद हुए चुनावी इतिहास को गौर करना होगा. आज राजनीतिक लड़ाई का आधार पूरी तरह से बदला हुआ दिख रहा है. पहले चुनावी राजनीति में उतरने से पहले कार्यकर्ताओं का राजनीतिक समाजीकरण हुआ करता था. 1960 की अगर बात करें तो राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे नेता संगठनात्मक प्रक्रिया से आगे बढते हुए चुनावी राजनीति और राजनीतिक दलों से जुड़े थे. ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन के जरिए राजनीति में पहचान बनाने का दौर 70-80 के दशक तक चला. इस तरह के आंदोलन में न सिर्फ राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बल्कि खुद नेताओं को भी राजनीति में दक्ष होने का मौका मिलता था. वही लोग आगे चल कर चुनावी राजनीति के जरिए विचारधारा से जुड़कर राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करते थे. लेकिन आज चुनाव पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रीत हो गया है, और नारे भी उसी तरह से गढ़े जा रहे हैं – ‘अबकी बार मोदी सरकार’. इतना ही नहीं 2014 के चुनाव में पूरी तरह से अध्यक्षीय शासन प्रणाली के तहत मोदी, केजरीवाल और राहुल को सामने रख कर मांगा जा रहा है. जहां तक ग्रामीण मतदाताओं की चुनावी राजनीति में भूमिका का सवाल है तो मतदाता के रूप में उसकी सजगता पहले भी थी और आज भी है. लेकिन अपने अधिकार के प्रति उसकी सचेष्टता कम हुई है. यह स्थिति तब है जब आज भी 400 से ज्यादा सीटें ग्रामीण इलाकों में हैं और इन सीटों पर गैर राजनीतिक अनुभव रखने वाले व्यक्तिउन्मुखी राजनीति करते हुए जन प्रतिनिधि बन रहे हैं. ऐसा क्यों हो रहा है, लोग राजनीति में किस रास्ते से आते हैं, पुराने जमाने में किस रास्ते से आते थे, आदि प्रश्नों पर विचार करने के लिए लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के साथ मिल कर टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंस एक अध्ययन कर रहा है. इस अध्ययन के पूरा होने पर बहुत बातें स्पष्ट तौर पर सामने आयेंगी.
अगर हम चुनावी मुद्दों की बात करें तो इस चुनाव में किस तरह के मुद्दे हावी रहे हैं? क्या राजनीतिक दलों ने गांव के मुद्दों को, पंचायत से जुड़े मुद्दों को अपने मैनिफेस्टो में जगह दी है?
2014 का चुनाव अगर देखेंगे तो इस चुनाव में कॉरपोरेटाइजेशन बड़ा मुद्दा बन कर उभरा है. राजनीतिक दल अदानी, अंबानी और वाड्रा की बात ज्यादा कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि क्रोनी कैपटलिज्म (राजनेताओं और औद्योगिक घरानों के साठगांठ से उपजी व्यवस्था) पूरी तरह से हावी है और इसका देश के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा, इसकी चिंता किसी को नहीं है. मैनिफेस्टो में अगर कुछेक दलों ने गांव के बेहतरी का जिक्र किया भी होगा, लेकिन उनके बहस के मूल में गांव कहीं नहीं है. पूरी राजनीतिक व्यवस्था आधे से ज्यादा संख्या वाली गांव की आबादी को नजरअंदाज करने के लिए तैयार है. एक तरफ सुविधाओं के लिहाज से देखें तो गांव और शहर के बीच का फर्क बढ़ रहा है, जबकी दूसरी तरफ गांव और शहर के बीच की दूरी कम हो रही है. गांव जो कि भारतीय लोकतंत्र का अलग चरित्र प्रस्तुत करता था, वह नहीं दिखता. गांव की आर्थिक-सामाजिक ताने-बाने को आज की राजनीति ध्वस्त करने में लगी है.
आपने कहा कि 2014 के चुनाव में पूरी राजनीति व्यक्तित्व केंद्रित हो गयी है, इस राजनीति को व्यक्तित्व केंद्रित बनाने में मीडिया माध्यमों का कितना योगदान है. अगर मतदाताओं की ज्यादा संख्या गांवों में है, तो स्वाभाविक रूप से गांवों के मुद्दे प्राथमिकता पर होने चाहिए? क्योंकि राजनीतिक दलों का कैडर या कार्यकर्ता तो गांवों में भी है?
देखिए, टेलीविजन या सोशल मीडिया के इस दौर में प्रचार और बहस, मुबाहिसों के तौर तरीकों में भी बदलाव आया है. आज टेलीविजन चुनाव की भूमिका तय कर रहा है. इसके प्रयोग के जरिए संवाद के पूरे तौर तरीके को बदल दिया गया है. इंटरनेट, सोशल मीडिय के जरिए राजनीतिक दलों के साथ विचार-मंथन और सीधा संबंध कायम करने में सहयोगी हुए हैं. इस लिहाज से देखें तो पार्टी के परंपरागत कैडर कम हो रहे हैं. आज 2014 के चुनाव में पेशेवर मध्यम वर्ग राजनीति की भूमिका तय कर रहा है. पेशेवर मध्यम वर्ग के कारण पार्टी कॉडर कमजोर हुआ है. हालांकि वामपंथी दल अभी भी इसके अपवाद बने हुए हैं. आज गांवों में बैठा नौजवान नेताओं से गांव के विकास पर सवाल नहीं करता, वह पूछता है कि मोदी को पीएम बनना चाहिए या नहीं. वह पूछता है कि अंबानी, अडानी ने भ्रष्टाचार को कितना बढाया. सामाजिक न्याय से जुड़े लोग भी समाज के प्रति अपने दायित्वों को भूला बैठे हैं.
पंचायती राज व्यवस्था तो इस देश में ठीक से चल रही है. पंचायती राज के प्रतिनिधि भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनावी राजनीति से ही आते हैं? ऐसे में देश के चुनाव में क्यों नहीं गांव और पंचायतों की अहम भूमिका होनी चाहिए थी?
पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती में ही लोकतंत्र की मजबूती का राज छिपा हुआ है. राजनीतिक विश्लेषक भी पंचायती चुनाव और राष्ट्रीय चुनाव के बीच उभरी दूरी को कभी नहीं उठाते. आज पंचायती राज का राष्ट्रीय चुनाव में कोई भूमिका नहीं दिखती. बार-बार यह कहा जाता है कि देश में नेतृत्व का अभाव है. पंचायत में लीडरशिप विकसित हुई है. महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण तो दिया गया, लेकिन इसके समानांतर इनका लोकतांत्रीकरण नहीं हो पाया. इसके जरिए जो ऊर्जा के स्नेत विकसित होने चाहिए थे, वह नहीं दिख रहा. पंचायती अपेक्षाकृत उसका सशक्तीकरण नहीं हुआ. पंचायती राज लोकतंत्र का आधार स्तंभ होना चाहिए था, लेकिन हम ग्रामीण समाज के इस ताकत को राष्ट्रीय राजनीति में न तो जगह दे पा रहे हैं और न ही राष्ट्रीय चुनाव में इसकी भूमिका दिखाई दे रही है. गांव को जहां तक पहुंचना चाहिए था, वहां नहीं पहुंच पाया है. और इस अंतर को जितना जल्दी पाटा जाये, उतना ही ग्रामीण समाज मजबूत होगा और लोकतंत्र भी मजबूत होगा.
एक समाजशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषक होने के नाते आप ग्राम विकास के कई योजनाओं के कार्यान्यवयन और उनकी कार्यविधि के अवलोकन से जुड़े रहे हैं? इसके पीछे क्या प्रमुख कारण देखते हैं?
देखिए, पंचायती राज व्यवस्था और राजनीति के विषय में जो मेरी समझ है उसके हिसाब से यही कह सकता हूं कि मुख्यधारा की राजनीति अर्थात सांसद और विधायक आज भी उसे संशय की नजर से देखते हैं, उसे अपना प्रतिद्वंद्वी मानते हैं. विशेष रूप से विधायक तो इसे अपने लिए चुनौती मानते हैं. आज इन व्यवस्थाओं के बीच सत्ता और शक्ति के हस्तांतरण को लेकर एक तरह से संघर्ष की स्थिति दिखती है. जबकि होना यह चाहिए था कि दोनों में सामंजस्य हो. सहकारिता से ही पंचायत सशक्तीकरण का लक्ष्य हासिल हो सकता है.
डॉ अश्विनी कुमार
प्रोफेसर, टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंस