राहुल सिंह
इन दिनों देश में सोलहवीं लोकसभा का चुनाव जारी है. चुनाव में एक पार्टी की ओर से यह भी मुद्दा उभर कर सामने आ गया कि अगर वह सत्ता में आती है, तो आपराधिक मामले वाले सांसदों के मामलों को तीव्र गति से निबटाने व फैसला देने के लिए पहल करेगी. इस तरह के मुद्दे पर चर्चा होना भी एक उपलब्धि है. पर, एक ऐसी संस्था भी है जो लोकतंत्र के खाते में इस तरह की उपलब्धि को दर्ज कराने में बिना शोर मचाये महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. इस संस्था का नाम है : लोक प्रहरी. लोक प्रहरी लखनऊ स्थित एक स्वयंसेवी संस्था है, जिसके सदस्य सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी, सेवानिवृत्त न्यायाधीश, इंजीनियर, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, पत्रकार हैं. इस संस्था से इन क्षेत्रों में बेहतर व बेदाग ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाले लोग जुड़े हैं. 2003 में स्थापित इस संस्था के संस्थापक महासचिव सत्य नारायण शुक्ला (एसएन शुक्ला)हैं. संस्था के मुख्य संरक्षक आरके त्रिवेदी हैं. आरके त्रिवेदी देश के मुख्य चुनाव आयुक्त व गुजरात के राज्यपाल रहे हैं. मार्च 2012 तक संस्था में 10 संस्थापक सदस्य थे. उसके बाद संस्था से कुछ अन्य सदस्यों को जोड़ा गया. वर्तमान में इनकी संख्या 20 है.
संस्था की स्थापना का उद्देश्य
संस्था के महासचिव एसएन शुक्ला ने पंचायतनामा से बातचीत में बताया कि इसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य संविधान के तहत व कानून के शासन के लिए आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करना है. इसके लिए संस्था न्यायिक हस्तक्षेप भी करती है. अपने इसी उद्देश्य के तहत हम समय-समय पर महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाते रहते हैं. यह संस्था एक थिंक टैंक के रूप में कार्य करती है और समाज के लिए आदर्शो और लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. सार्वजनिक जीवन में तटस्थता, निष्पक्षता, प्रशासन व सेवाओं में कर्तव्य के प्रति समर्पण जैसे पारंपरिक मूल्यों के प्रचार पर इसका जोर होता है. जनता के हित से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों की तरफ सरकार व संबंधित अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करना भी इस संस्था का उद्देश्य है.
संस्था के महासचिव के रूप में सत्यनारायण शुक्ला का योगदान इस संस्था को पहचान देने में महत्वपूर्ण है. 1959 में जब उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी थी, उसी समय उन्होंने ईश्वर से वादा किया था कि अगर वे आइएएस की परीक्षा में सफल हो जायेंगे, तो अपनी पूरी ऊर्जा आम आदमी के लिए काम करने में लगायेंगे. वे कहते हैं : भगवान से मैंने मन ही मन प्रार्थना की थी कि एक अधिकारी के रूप में गरीबों व आमलोगों की हमेशा मदद करूंगा. मुङो आज इस बात का गर्व व सुकून है कि मैंने ईश्वर से किये अपने वादे का सफलतापूर्वक निर्वाह किया और ईश्वर को मुङो इस संबंध में कोई जवाब नहीं देना होगा. मैंने हमेशा अपने सेवाकाल में यह कोशिश की कि उन्हें न्याय मिले और आइएएस की नौकरी में तमाम तरह के दबाव होने के बावजूद किसी के पद व पैसे के प्रभाव में काम नहीं किया. 1967 बैच के आइएएस अधिकारी रहे श्री शुक्ला ने 1964 में कानून में आगरा विश्वविद्यालय से डिग्री ली और टॉपर बने. कहते हैं : पहले से मन बना लिया था कि जब सरकारी सेवा से मुक्त हो जाऊंगा तो फिर वकील के रूप में कार्य करूंगा. 2003 में उन्होंने वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के लिए फिर से अपना इनरॉलमेंट करवाया. वे मानते हैं कि वकालत की पढ़ाई और स्वयं वकील होने के कारण उन्हें लोक महत्व के विषयों पर कानूनी लड़ाई लड़ने में काफी मदद मिली है. दरअसल उनके पिता भी वकील थे, जिनके लालन-पालन व व्यक्तित्व ने उन्हें वकालत की पढ़ाई के लिए प्रेरित किया था. वे कहते हैं : अगर मैं वकील नहीं होता तो शायद ऐसे विषयों पर कानूनी संघर्ष के लिए हम पैसों का बंदोबस्त नहीं कर पाते.
जीवन की बड़ी जीत, पर संघर्ष अभी शेष
दो साल या उससे अधिक की सजा पाये संसद सदस्यों की सदस्यता खत्म होने संबंधी फैसला जब शीर्ष अदालत ने सुनाया, तो यह उनके जीवन की सबसे बड़ी जीत थी. दरअसल, भगवान से किया उनका वादा जो पूरा हो गया था. पर, उनका संघर्ष अब भी जारी है. दरअसल जनवरी 2005 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि दो साल या उससे अधिक की सजा प्राप्त लोग चुनाव नहीं लड़ सकते. सत्यनारायण शुक्ला कहते हैं ऐसे में मेरा मानना है कि जो लोग चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, वे लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश के भी हकदार नहीं हैं. जिसके बाद मैंने मार्च 2005 में पिटीशन दायर किया. वे कहते हैं लंबी प्रक्रिया के बाद पिछले साल फैसला इस मामले में आया. लेकिन इस फैसले के तहत संसद के सजायाफ्ता सदस्यों की तरह राज्यों के विधान मंडलों के सजायाफ्ता सदस्यों की सदस्यता स्वत: नहीं खत्म हुई. फैसले में कहा गया कि भविष्य में विधानमंडलों के जिन सदस्यों को दो साल या ज्यादा की सजा होगी, उनकी सदस्यता स्वत: खत्म हो जायेगी. फिलहाल देश के अलग-अलग राज्यों के विधानमंडल में दर्जन भर ऐसे सदस्य हैं, जिन्हें दो साल या उससे अधिक सजा प्राप्त है. एसएन शुक्ला कहते हैं : इसके लिए हमने रिव्यू पिटीशन अदालत में डाला था, जिसके संदर्भ में खुली सुनवाई में फैसला सुनाने की प्रार्थना मैं कोर्ट से करूंगा.
लोक प्रहरी संस्था ने 2005 में ही सजायाफ्ता कैदियों की सदस्यता के सवाल पर याचिका दायर की थी . 2013 में 10 जुलाई को इस पर अदालत का अंतिम फैसला आया. जिसके बाद कई सजायाफ्ता सांसदों-विधायकों की सदस्यता रद्द हो गयी. संस्था ने अबतक दर्जन भर से अधिक जनहित याचिकाएं अदालत में दाखिल की हैं, जो प्रशासनिक सुधार, तंत्र को प्रभावी बनाने से संबंधित हैं.
लोक प्रहरी की टीम
लोक प्रहरी के मुख्य संरक्षक हैं आरके त्रिवेदी. वे पूर्व में देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे हैं. जेएन चतुर्वेदी इसके संरक्षक हैं. वे पूर्व डीजीपी हैं और यूपीपीएससी के चेयरमैन रहे हैं. एसएन शाही इलाहाबाद हाइकोर्ट के पूर्व जज हैं. एनएम मजूमदार संस्था के अध्यक्ष हैं और यूपी के राजस्व बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं. एस वेंकटरमानी राजस्व बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष व राज्यसभा के पूर्व महासचिव आरसी त्रिपाठी लोक प्रहरी के उपाध्यक्ष हैं. सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी पीसी शर्मा व पीडी चतुर्वेदी क्रमश: संस्था के सचिव व कोषाध्यक्ष के रूप में काम देखते हैं. उत्तरप्रदेश के पूर्व डीजीपी आइसी द्विवेदी, सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी एम सुब्रमण्यम, एके दास, एसएटी रिजवी, जीडी मेहरोत्र इसके सदस्य हैं. पूर्व जिला जज यूपीएस कुशवाहा, प्राध्यापक डॉ शालीन कुमार, अभियंता आरपी सिंह और पत्रकार वीवीबी मिश्र इसके सदस्य हैं.
लिली थॉमस का भी संघर्ष में रहा है बड़ा योगदान
दो साल या उससे ज्यादा के सजायाफ्ता लोगों की संसद में सदस्यता रद्द कराने जैसी उपलब्धि को हासिल करने में लोक प्रहरी संस्था के साथ दिल्ली की बुजुर्ग वकील लिली थॉमस का भी महत्वपूर्ण योगदान है. बढ़ती उम्र के कारण वे शरीर से अशक्त हैं. वे व्हील चेयर के सहारे चलती हैं और सुनाई भी थोड़ी कम पड़ती है. उन्होंने 2005 में अपनी याचिका दाखिल की थी. उनकी ओर से मामले की पैरवी प्रसिद्ध वकील एस नरीमन ने की थी. वे जनहित के मुद्दों पर कई मुकदमे लड़ चुकी हैं. उनके द्वारा उठाये गये मामले जनहित से तो जुड़े होते ही हैं और साथ ही लोकतंत्र को मजबूती देने वाले भी होते हैं. लिली ने मद्रास हाइकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू करने के बाद 1960 में दिल्ली की ओर कानून में शोध के लिए रुख किया. लिली थॉमस को 2000 में भी एक महत्वपूर्ण मामले में सफलता मिली, जब एक ऐसे व्यक्ति जिसका विवाह पहले हिंद ू विवाह अधिनियम के तहत हुआ था, वह दोबारा धर्म बदल कर विवाह करना चाह रहा था. इस मामले में अदालत ने कहा कि जब कोई व्यक्ति पूर्व में हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाह कर चुका है, तो वह तब तक धर्म बदल का दोबारा विवाह नहीं कर सकता है, जबतक कि अपनी पत्नी से उसका कानूनी रूप से वैवाहिक संबंध खत्म नहीं हो जाता.
राज्यों के विधान मंडलों में अब भी दर्जन भर ऐसे लोग हैं, जो दो साल या उससे अधिक के सजायाफ्ता हैं. अभी उनकी सदस्यता खत्म नहीं हुई है. मैं अदालत से इस मामले में खुली सुनवाई के लिए प्रार्थना करूंगा.
सत्यनारायण शुक्ला, महासचिव, लोक प्रहरी.