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कांग्रेस का चौका या भाजपा को मौका

सेंट्रल डेस्क उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर कानपुर. कभी यहां इतनी मिलें थीं कि शहर को पूरब का मैनचेस्टर कहा जाता था. राजनीतिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण था कानपुर. जब भी कोई राजनीतिक पार्टी अस्तित्व में आयी, सबसे पहले उसने कानपुर में अपनी ताल ठोंकी. साल 1977 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस […]

सेंट्रल डेस्क

उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर कानपुर. कभी यहां इतनी मिलें थीं कि शहर को पूरब का मैनचेस्टर कहा जाता था. राजनीतिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण था कानपुर. जब भी कोई राजनीतिक पार्टी अस्तित्व में आयी, सबसे पहले उसने कानपुर में अपनी ताल ठोंकी.

साल 1977 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आई) बनायी, तो पार्टी का पहला अधिवेशन कानपुर में ही किया. साल 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी बनी तो उसका पहला अधिवेशन भी कानपुर में ही हुआ था. इन सब के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल पूरे भरोसे के साथ यह दावा नहीं कर सकता था और न कर सकता है कि कानपुर उसका गढ़ है. चाहे कांग्रेस हो, भाजपा हो या फिर वाम दल, बावजूद इसके की यहां लाखों की तादाद में मिल मजदूर थे. 1957 से 1977 कांग्रेस का कोई नेता कानपुर से जीत नहीं सका. पार्टी ने हर संभव प्रयास किया कि कोई कांग्रेस का नेता कानपुर से जीते. उन्ही दशकों में एक औद्योगिक नगरी के तौर पर कानपुर का पूरे भारत में वर्चस्व था और एकजुट मजदूरों के आगे कांग्रेस की एक न चली. कांग्रेस हमेशा मुंह की खाती रही.

बहुत साल रहा कॉमरेडों का जलवा
धीरे-धीरे सारी मिलें बंद हो गयीं. कानपुर बन गया मिलों का एक कब्रिस्तान. यहां कांग्रेस प्रत्याशी 1999 से लगातार जीत रहे हैं. देश के पहले चुनाव में कांग्रेस ने हरिहर नाथ शास्त्री को उतारा. वे एक मजदूर नेता थे और कानपुर से जीत गये. पर, 1957 के चुनाव में एक ट्रेड यूनियन नेता सत्येंद्र मोहन बनर्जी चुनावी मैदान में बाघ चुनाव निशान के साथ उतरे और अपनी पहली जीत दर्ज की. कानपुर का रंग लाल हो गया. 1962 के चुनाव में कांग्रेस ने एक महान क्र ांतिकारी विजय कुमार सिन्हा जो आजादी की लड़ाई में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद के साथी थे, को बनर्जी के खिलाफ मैदान में उतारा. लेकिन मजदूरों ने बनर्जी को ही जीत दिलाई. 1967 में कांग्रेस ने अपना पैंतरा बदला. बनर्जी के खिलाफकांग्रेस ने अपने एक बड़े ट्रेड यूनियन नेता गणोश दत्त बाजपेयी को खड़ा किया. जीत का मार्जिन काम हुआ पर जीते बनर्जी ही. कांग्रेस ने अपनी हार मान ली. 1971 के चुनाव में पार्टी ने बनर्जी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया. वे भारतीय जन संघ के बाबूराम शुक्ल के खिलाफ करीब 90,000 हजार मतों से जीत गये.

जनता पार्टी की लहर
इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की ऐसी लहर चली कि उसके आगे बनर्जी टिक न सके. जनता पार्टी के मनमोहन लाल जीते. जीत का मार्जिन था, पौने दो लाख वोट. बनर्जी तीसरे नंबर पर आये. दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस के नरेश चंद्र चतुर्वेदी. 1980 में कांग्रेस ने पूरे देश में वापसी की. कानपुर इससे अछूता नहीं रहा. एक युवा और तेज-तर्रार नेता की छवि रखने वाले कांग्रेस के आरिफ मोहम्मद खान ने कानपुर से जीत दर्ज की.

फिर आया भगवा उफान
1991 में फिर से लोक सभा चुनाव हुए. हिंदुत्व की लहर उफान पर थी. 1989 में भाजपा के जगत वीर सिंह द्रोण सुभाषिनी अली से हार गये थे. पर, 1991 में द्रोण ने सुभाषिनी अली को हरा दिया. कानपुर में अब लाल की जगह केसरिया झंडे लहरा रहे थे. द्रोण 1996 और 1998 में भी जीते, पर 1999 में कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल से हार गये.

खोने लगी मजदूरों की ताकत
अस्सी का दशक वह दौर था जब भारत में एक के बाद एक लहर आने लगी. दूसरी तरफ कानपुर ने एक औद्योगिक नगरी के तौर पर अपना वजूद खोना शुरू किया. मिलें बंद होने लगी. मजदूर बेरोजगार हो गये. उनकी ताकत खत्म होने लगी. कानपुर के इतिहास पर कई किताबें लिखने वाले मनोज कपूर कहते हैं, अस्सी के दशक में कानपुर का जो लेबर मूवमेंट था वह छिन्न-भिन्न होने लगा था और सिर्फकानपुर ही क्यों पूरे देश में लेबर मूवमेंट खत्म हो रहा था. एक समय था जब दत्ता सामंत जैसे लोग मुंबई को हिला देते थे. वह पीढ़ी खत्म हो रही थी या खत्म हो चुकी थी. 1984 का चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ. कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी. 1977 में एक बार हार का मुंह देख चुके नरेश चंद्र चतुर्वेदी भारी मतों से जीते. अगला चुनाव 1989 में हुआ और इस मिलों की नगरी में पहली बार एक वामपंथी पार्टी- माकपा की उम्मीदवार सुभाषिनी अली ने जीत दर्ज की. सुभाषिनी की जीत थी वीपी सिंह और राष्ट्रीय मोरचा की, हार थी राजीव गांधी और कांग्रेस की, दोनों की छवि बोफोर्स घोटाले ने धूमिल कर दी थी.

कांग्रेस की प्रतिष्ठा दावं पर
श्रीप्रकाश जायसवाल कानपुर से अपनी जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं. फिर मैदान में हैं. इस बार उनके सामने हैं भाजपा के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक मुरली मनोहर जोशी. कहा जाता है कि 1999 में श्रीप्रकाश को भाजपा की गुटबाजी ने जिता दिया. 2004 और 2009 में भी भाजपा की गुटबाजी उनकी जीत का एक अहम कारण बनी. पर, जीतने के बाद जायसवाल ने कानपुर के लोगों के बीच एक अच्छी पकड़ बना ली है. वो लोगों को नाम से जानते हैं. अब इस बार भाजपा के मुरली मनोहर जोशी से उनकी कांटे की टक्कर है. देखना है जायसवाल जीतते हैं या कानपुर का रंग फिर केसरिया हो जाता है.

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