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उत्तर प्रदेश में मैच तो अभी शुरू हुआ है!

।। रवीश कुमार ।। वरिष्ठ पत्रकार उत्तर प्रदेश में भाजपा के शानदार प्रदर्शन की बात करने से पहले खुद को एक बार चिकोटी काटना जरूरी है. यह सोचना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में क्या सच में हिंदुत्व के दायरे से बाहर की समाजवादी, पिछड़ी व दलित चेतना समाप्त हो रही है? सबसे अधिक 80 […]

।। रवीश कुमार ।।

वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश में भाजपा के शानदार प्रदर्शन की बात करने से पहले खुद को एक बार चिकोटी काटना जरूरी है. यह सोचना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में क्या सच में हिंदुत्व के दायरे से बाहर की समाजवादी, पिछड़ी व दलित चेतना समाप्त हो रही है?

सबसे अधिक 80 संसदीय क्षेत्रों वाला राज्य होने के कारण आम चुनाव में उत्तर प्रदेश की अहमियत किसी से छिपी नहीं है. यही कारण है कि प्रदेश में बड़ी कामयाबी के लिए क्षेत्रीय पार्टियों के साथ-साथ राष्ट्रीय पार्टियां भी अपना हर दावं आजमा रही हैं. लेकिन यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा को 50 सीटें आ गयीं, जैसा कि कुछ सव्रे बता रहे हैं, तो इसका सीधा मतलब होगा बसपा और सपा की राजनीति का फिलहाल समापन.

इसलिए यह सवाल जरूरी हो जाता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है उत्तर प्रदेश में, कि ये पार्टियां अचानक हाशिये पर चली जायेंगी! अगर बसपा, सपा, कांग्रेस और आरएलडी 80 में से 30 सीटों पर सिमट गयीं, तो समङिाये कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोई जलजला सा आ गया है. परंतु अगर ऐसा नहीं हुआ, तो याद रखियेगा कि उत्तर प्रदेश के हर चुनाव में मीडिया और विज्ञापनों की हल्ला-गाड़ी कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के उभार का नारा जपने लगती है, लेकिन जब नतीजा आता है तो सारे होर्डिग, परचे और नारे कबाड़ में बदल जाते हैं और सत्ता सपा या बसपा में से ही किसी के पास होती है.

लोकसभा चुनाव, 2014 में भाजपा ने ऐसी क्या सोशल इंजीनियरिंग की है कि यह चुनाव उसे वाजपेयी युग की तरफ ले जायेगा, जब भाजपा को राज्य में 58 सीटें मिली थीं. याद रखियेगा, तब समाजवादी पार्टी और बसपा का आधार उस तरह मजबूत नहीं हुआ था, जैसा आज है. इन वर्षो में भाजपा 58 से कम होकर 10 सीटों पर आ गयी और सपा एवं बसपा ने अलग-अलग 21 से 28 सीटें जीतीं. आज सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ एवं मुख्य विपक्षी दल हैं. दो साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता ने कांग्रेस या भाजपा की तरफ देखा तक नहीं.

दो साल बाद अगर भाजपा 50 सीटों पर जीत रही है, तो प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र के अंदर पांच के औसत हिसाब से भाजपा को करीब ढाई सौ विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिलनेवाली है. शायद भाजपा को खुद भी इस नंबर पर यकीन नहीं होगा. यह शानदार नतीजा तभी संभव हो सकता है, जब मुसलमानों, जाटव और यादव के साथ-साथ अन्य अति पिछड़ी और दलित जातियां एकमुश्त भाजपा को वोट दे दें. लेकिन उत्तर प्रदेश में घूमने पर प्रमुख बड़ी जातियों में इस तरह का कोई बिखराव नहीं दिखता, जैसा कि कुछ सर्वे में दिखाया जा रहा है.

राज्य में मायावती और अखिलेश एवं मुलायम की सभाओं में जुट रही भीड़ किसी मायने में नरेंद्र मोदी की रैलियों या सभाओं से कम नहीं है. भाजपा इस उम्मीद में आगे बढ़ने का ख्वाब देख रही है कि ज्यादा से ज्यादा ध्रुवीकरण के बयानों से दलित व पिछड़ी जातियां हिंदुत्व के पाले में आ जायेंगी. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब ऐसा बाबरी मसजिद ध्वस्त करने के बाद नहीं हुआ था, तो मोदी और मुज़फ्फरनगर के सहारे कैसे हो जायेगा? कोई दावा नहीं कर सकता कि ऐसा नहीं होगा, परंतु किसी को यह भी दावा नहीं करना चाहिए कि ऐसा ही होगा.

मुज़फ्फरनगर और बनारस उत्तर प्रदेश के दो जिले भर हैं, यह पूरा उत्तर प्रदेश नहीं है. पिंडदान के लिए पूरे भारत से लोग गया भी जाते हैं, तो क्या बिहार की राजनीति गया से संचालित हो सकती है? वैसे ही मुज़फ्फरनगर के ही आसपास के जिलों पर दंगों की राजनीति का असर नहीं दिख रहा है. एक जिले की सीमा पार कर दूसरे जिले में प्रवेश करते ही चुनावी समीकरण और उम्मीदवार की कहानी बदल जाती है. बसपा ने 29 मुसलिम, 21 ब्राह्मण और 17 पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को टिकट दिये हैं. इनमें से कई गैर यादव पिछड़ी जातियों के हैं, जो अपने क्षेत्र में प्रभाव रखते हैं. भाजपा को इन्हीं गैर यादव व गैर दलित जातियों से उम्मीद है. मगर इनमें भाजपा की तरफ व्यापक पलायन होता नहीं दिख रहा. नरेंद्र मोदी बसपा को लेकर जितना आक्रामक हो रहे हैं, बसपा की समर्थक जातियां उतना ही सतर्क हो रही हैं. उन्हें पता है कि गांव-कस्बों के चौराहे पर उनका अस्तित्व बसपा या सपा के कारण है.

इसलिए उत्तर प्रदेश में भाजपा के शानदार प्रदर्शन की बात करने से पहले खुद को एक बार चिकोटी काटना जरूरी है. यह सोचना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में क्या सच में हिंदुत्व के दायरे से बाहर की समाजवादी, पिछड़ी चेतना समाप्त हो रही है, दलित चेतना नष्ट हो चुकी है? क्या कांशीराम की तैयार फसल अतीत का हिस्सा बनने जा रही है? क्या धीरे-धीरे कमजोर हो रहीं मायावती का असर समाप्त हो रहा है? क्या मुलायम वापस 1990 के दशक की स्थिति में पहुंच जायेंगे?

फिलहाल उत्तर प्रदेश की जमीन पर ऐसी बगावत तो मुङो नहीं दिखी. यह तभी मुमकिन हो सकता है, जब किसी अदृश्य शक्ति (जैसे- परदे के पीछे काम कर रहे किसी पूंजीपति) के दबाव में इन दोनों पार्टियों के नेता अपने अस्त्वित्व का सरेंडर कर दें! मोदी अगर यह समझते हैं कि खुद को पिछड़ा बता कर हिंदुत्व का वैसा विस्तार कर लेंगे, जैसा कभी लोध जाति में प्रभाव रखनेवाले कल्याण सिंह ने किया था, तो इसमें कुछ तो दम है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं.

अगर विकास के सवाल पर भाजपा आगे बढ़ चुकी है, तो अंत समय में मांस निर्यात जैसे मसलों और अमित शाह के बहाने एक संप्रदाय को टारगेट क्यों करने लगी है? क्या भाजपा भी समझ रही है कि उत्तर प्रदेश में जीत के लिए यदि जातियों का कोई व्यापक गंठबंधन बनाना है, तो यह विकास से नहीं, बल्कि ऐसे बयानों से बनेगा जो हिंदू बनाम मुसलिम का भेद गहरा करें? ऐसा करके भाजपा आक्रामक तो लगेगी, लेकिन इस रणनीति में एक बड़ा खतरा है. राज्य की 50 सीटों पर असर रखनेवाले मुसलमानों के साथ-साथ सांप्रदायिकता विरोधी हिंदू जमात की गोलबंदी भाजपा के खिलाफ हो सकती है. भाजपा को समझना चाहिए कि उसे मिलने जा रहा कांग्रेस विरोधी मत हिंदुत्व के लिए नहीं, विकास के लिए है. अगर दंगों की राजनीति से सरकारें बनतीं, तो इस देश का इतिहास दूसरा होता. जिन्होंने इस तरह सरकारें बनायी हैं, वे भी दंगों के इतिहास से परेशान हैं. जो लोग मुसलिम मतों के बिखराव की बात कर रहे हैं, वे शायद जल्दी कर रहे हैं. फिलहाल यह बिखराव बहुत कम दिख रहा है.

इसलिए उत्तर प्रदेश में नतीजे आने तक भविष्यवाणी करने से बचिये. अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा को कुचलते हुए 50 या इससे अधिक सीटें जीत लेती है, तो जरूर अमित शाह को माला पहनाइयेगा, लेकिन तब तक के लिए चुनाव देखिये. जिस उत्तर प्रदेश में पिछले आम चुनाव में कांग्रेस मुसलिम वोट से 20 सीटें पाकर हैरान हो सकती है, वहां इस बार भी कुछ भी हो सकता है. तो फिर इतनी जल्दी क्या है नतीजा लिखने की, मैच तो अभी शुरू हुआ है!

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