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भारतीय चुनाव और अर्थव्यवस्था एक फायदेमंद प्रचार

क्या माग्रेट्र थैचर का भूत भारतीय राजनीति को छुप कर देख रहा है? कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी आजकल कह रहे हैं कि ‘विकास के बिना गरीबी से नहीं लड़ा जा सकता है’ और संपत्ति के सृजन के लिए बाजार के गुण गा रहे हैं. पिछले हफ्ते आप (वामपंथी रुझान की पार्टी) के प्रमुख […]

क्या माग्रेट्र थैचर का भूत भारतीय राजनीति को छुप कर देख रहा है? कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी आजकल कह रहे हैं कि ‘विकास के बिना गरीबी से नहीं लड़ा जा सकता है’ और संपत्ति के सृजन के लिए बाजार के गुण गा रहे हैं. पिछले हफ्ते आप (वामपंथी रुझान की पार्टी) के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने बिजनेस के महारथियों को बताया कि वह कैसे पूंजवाद को पसंद करते है. सिर्फ वैसे से नफरत करते हैं जहां अपनों को बढ़ावा मिलता है. उन्होंने कहा कि इंस्पेक्टर और लाइसेंस राज के खत्म होने से न सिर्फ घूसखोरी में कमी आयेगी बल्कि मुक्त कारोबार होने से नौकरियों में भी इजाफा होगा.

ये सब सिर्फ दिखावा हो सकता है. इस मुद्दे पर मुखर हैं प्रधानमंत्री बनने के सबसे प्रबल दावेदार भाजपा के नरेंद्र मोदी. दिल्ली में 27 फरवरी को वे और अरुण जेटली (संभावित वित्त मंत्री) ने मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक अर्थशास्त्रियों, बिजनेस लीडर्स, बैंकर्स, निवेशकों के लिए विकास के मुद्दे पर एक दिन का सेमिनार आयोजित किया. यहीं से भाजपा ने अपनी आíथक नीति का प्रचार शुरू किया. मोदी लंबे समय से अपने आप को बिजनेस समर्थक बताते रहे हैं और इसके लिए गुजरात के सीएम के रूप में अपना ट्रैक रिकार्ड सबके सामने रखते हैं. यही उन्होंने वहां किया.

ये सब भारतीय राजनीति में एक सकारात्मक बदलाव के संकेत हैं, खासकर उस समय जब आम चुनाव होने वाला है. वषों से कांग्रेस का राज रहा है, विकास को कैसे बरकरार रखा जाये, इस बात की वह हमेशा अनदेखी करती रही है. अनाज पर सब्सिडी, इर्ंधन और खाद पर कैश ट्रांसफर का लालच, काम के लिए योजना बना कर लोगों को अपनी ओर आकषिर्त करने की फितरत रही है. इन सब बातों से अब चुनाव में वो फायदा नहीं मिल रहा है जैसा पहले मिला करता था. ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि ग्रामीण इलाकों के वोटरों में गरीबी कम हो रही है. पिछले एक दशक के शासनकाल में कांग्रेस के आíथक प्रबंधन का रिकार्ड बहुत खराब रहा है. महंगाई, निर्माण, रोजगार आदि हर फ्रंट पर लोगों को निराशा ही हाथ लगी है.

मतदाताओं में बदलाव की चाह है. ओपीनियन पोल भाजपा की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं. संभवत: बड़ी जीत की. नरेंद्र मोदी के विवादित अतीत, 2002 में गुजरात दंगों के दौरान उनकी भूमिका को लेकर अब बहुत कम लोगों को मतलब है. उस दंगे में करीब एक हजार लोगों की मौत हुई थी. अमेरिकी संस्था पीइडब्ल्यू रिसर्च सेंटर ने 26 फरवरी एक सर्वे जारी किया था. उसके अनुसार 63 फीसदी मतदाताओं की पसंद बीजेपी थी जबकि कांग्रेस की सरकार चाहने वाले 19 फीसदी वोटर थे. इस सर्वे से यही पता चलता है कि पहली बार होगा कि भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा वोट मिल सकते हैं (और सीट भी).

पीइडब्ल्यू के सर्वे के अनुसार 70 फीसदी लोग इस सरकार से खुश नहीं हैं. अच्छी बरसात और गेहूं – चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बड़ी बढ़ोतरी के बावजूद शहरी के साथ-साथ ग्रामीण मतदाता भी सरकार से नाराज है. कांग्रेस के लिए यही चिंता का विषय है. सभी जगह लोग यही कहते मिले कि भ्रष्टाचार, महंगाई और गरीबों की मदद करने में कांग्रेस से बढ़िया काम करेगी भाजपा. सर्वे में इस तरह का जवाब हर तीन में से दो लोगों ने दिया.

इस संबंध में राज्यसभा में भाजपा के उपनेता कहते हैं, लोगों में बदलाव की ऐसी ललक मैंने कम ही देखी है. आíथक मोर्चे पर देश की विफलता की वजह कमजोर नेतृत्व है. करीब दस साल पहले विकास दर 8.5 फीसदी थी वह इस समय 5 फीसदी है. अपनी रैलियों में मोदी कटाक्ष करते हैं कि कमजोर ‘अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री’ मनमोहन सिंह इसके लिए जिम्मेदार हैं. मजबूत फैसले लेने वाले नेता की बात करते हुए खुद की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं अच्छाई के लिए हर चीज को बदल देंगे.

हार्वर्ड में शिक्षा पाये कांग्रेस के वित्त मंत्री पी चिदंबरम, जिन्होंने इस वर्ष अंतरिम बजट पेश किया, मजाक उड़ाते हुए कहते हैं- मोदी जितना अर्थशास्त्र के बारे में जानते हैं उसे पोस्टल स्टैंप (डाक टिकट) के पीछे लिखा जा सकता है. आरोप-प्रत्यारोप की इन बातों से पता चलता है कि चुनाव प्रचार कितने कड़वे होंगे, लेकिन आलोचना से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. मोदी के पास अर्थशास्त्र की व्यवहारिक शिक्षा नहीं है. लेकिन अपने करीब एक दशक के गुजरात के शासनकाल को दिखाते हैं और इशारों में कहते हैं कि इसी तरह वह पूरे देश का कायाकल्प कर देंगे.

क्या वो कर सकते हैं? अभी तक उनके पास इस संबंध में तथ्यों की कमी है. भाजपा नेता और मोदी के समर्थन में बोलने वाले भावुक विेषक और अर्थशास्त्रियों की माने तो मोदी के जीतने से ही अत्मविश्वास बढ़ेगा. वो कहते हैं कि बढ़िया प्रशासन ही निवेशकों को उत्साहित कर सकता है. शक्तिशाली प्रधानमंत्री कार्यालय ही प्रशासनिक अधिकारियों को जल्द फैसले लेने को कह सकता है. कुछ प्रशासनिक अधिकारी बाद में जांच के डर से निवेश के प्रस्ताव पर अड़ंगा लगाते हैं. मजबूत पीएमओ होने से यह नहीं होगा. सिद्धांत में नये राजनीतिक नेतृत्व में इस तरह के डर खत्म हो जाएंगे.

इस काम के लिए मोदी किस तरह से नियम में बदलाव लाएंगे, प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के अधिकारों को कैसे लेंगे. उदाहरण के लिए, रोजगार सृजन के लिए भाजपा सरकार औद्योगिक विवाद को खत्म करने वाली पुरानी नीति पर जा सकती है. इसके तहत 100 या उससे अधिक कर्मी वाले किसी भी फर्म को बंद करने के लिए सरकारी अनुमति चाहिए. अभी तक मोदी इस मु्द्दे पर साफ-साफ कुछ नहीं बोलते हैं.

उदारवादी भाजपा सर्मथक अब दूसरे सुधारों की बात करते हैं. सरकार में आने के बाद वह उन प्रो-बिजनेस नीतियों को लागू करना चाहेगी जिनका विपक्ष में रहते हुए उसने विरोध किया था. इसमें सबसे पहला वस्तुओं और सेवाओं पर राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले कर की जगह राष्ट्रीय टैक्स प्रणाली लागू करने की है. सिर्फ इससे ही अर्थव्यवस्था को बहुत राहत मिलेगी. भारत में किराना दुकानों में विदेशी निवेश के प्रति भाजपा का रवैया कठोर है लेकिन बीमा और अन्य वित्तीय क्षेत्रों में उसका रुख नरम है.

मोदीनॉमिक्स के लेखक समीर कोच्चर की नजर में मोदी के आने के बाद इंफ्रास्ट्रकचर के क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा, जैसे गुजरात में अच्छी सड़कें, बिजली और बंदरगाह है. मोदी इस बारे में खुद बात करते हैं. देश में 100 स्मार्ट शहर बनाने, पूरे देश में बुलेट ट्रेन का नेटवर्क स्थापित करने और स्ंिाचाई के लिए नदियों को जोड़ने की बात करते हैं लेकिन ये काम कैसे होंगे और इसके लिए पैसा कहां से आयेगा, इस बारे में वह नहीं बोलते. मोदी कहते हैं कि उनकी सरकार काम करने में आगे रहेगी. भाजपा की पिछली सरकार (1999 से 2004) में विनिवेश मंत्रालय बना था. उसी दौरान संचार क्षेत्र में निजी कंपनियां आने लगी थीं. विशेषज्ञों के अनुसार इस बार एयर इंडिया और सरकारी बैंकों का विनिवेश हो सकता है. अभी तक भाजपा ने अपने रिफार्म प्रोग्राम के बारे में बहुत कम जानकारी दी है. इससे यह पता करना मुश्किल है कि उसका उदारीकरण का कार्यक्रम कैसा होगा. वैसे भारत में एक पुरानी कहावत है: वामपंथियों के पास कोई व्यवहारिक अर्थशास्त्र नहीं है और दक्षिणपंथियों के पास सत्ता तक पहुंचने का कोई रास्ता. मोदी इसको बदल सकते हैं.

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