।। शुजात बुखारी।।
(एडिटर, राइजिंग कश्मीर)
आम चुनावों के प्रचार के क्रम में 2009 की अपेक्षा बेहतर स्थिति में दिख रही भाजपा ने कश्मीर जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नरम रुख लेना शुरू कर दिया है. भले ही यह जम्मू-कश्मीर जैसे उलङो मसले पर कोई बड़ी पहल न हो, लेकिन यह उल्लेखनीय है, क्योंकि दो दशक के टूटे-बिखरे जनादेश की स्थिति में कांग्रेस और भाजपा को गंभीर मामलों पर अलग-अलग विचार रखनेवाले छोटे दलों पर निर्भर रहना पड़ता है. भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जम्मू की ललकार रैली में अब तक हुए फायदे-नुकसान के आधार पर अनुच्छेद 370 पर बहस की पहल की थी. यह बात भारतीय संघ के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष दरजा देनेवाले इस अनुच्छेद पर भाजपा के अभी तक के कठोर रवैये से अलग थी. भाजपा की मूलभूत विचारधारा इस अनुच्छेद के हटाये जाने के इर्द-गिर्द केंद्रित है. पार्टी राज्य के पूर्ण विलय की मांग करती है, पर मोदी ने अपने और पार्टी के अपने जैसे अन्य लोगों के व्यवहार के विपरीत एक व्यापक बहस के लिए जगह बनाने की ‘युक्ति’ प्रस्तुत की.
इसी तरह भाजपा नेता अरुण जेटली ने सोमवार को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ‘मंत्र’ का हवाला दिया, जिसमें कश्मीर मसले को ‘इंसानियत’ के दायरे में सुलझाने की बात कही गयी थी. लेकिन, यह भी श्रीनगर एयरपोर्ट पर एक सवाल के जवाब में सधे हुए अंदाज में कहा गया था. उनसे यह पूछा गया था कि जो लोग कश्मीर में भारतीय शासन के विरोधी हैं, वे किसी भी तरह की बातचीत के लिए तैयार नहीं, जो अलगाववादियों और दिल्ली के बीच किसी भी संवाद की पहली शर्त है. हालांकि, वाजपेयी ने ‘इंसानियत’ की बात कह कर न सिर्फ साख अर्जित की थी, बल्कि कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया के दायरे को भी विस्तार दिया था. आलोचक या यथास्थितिवादी चाहे जो कहें, लेकिन भारत-पाक वार्ता की वाजपेयी की पहल ने कश्मीर पर कहने-सुनने के लिए निश्चित रूप से जगह बनायी, और यह पहल कतई अनुपयुक्त नहीं थी. अलगाववादियों या मुख्यधारा की पार्टियों को किसी सही राजनीतिक प्रक्रिया को समर्थन देने से परहेज नहीं करना चाहिए.
किसी भी पहल को शुरू में ही नकार देना विवाद को सुलझाने का तरीका नहीं है. यह सच है कि नयी दिल्ली जमीनी सच्चाइयों को मानने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन बातचीत के पैरोकारों को इससे निराश नहीं होनी चाहिए. बातचीत के नियम व शर्ते दोनों तरफ के लिए बराबर होनी चाहिए और यदि दिल्ली के सत्तासीन इस बात पर राजी नहीं होते हैं, तो यह उनकी जिद और जबरदस्ती को और बेनकाब ही करेगा. पिछले साढ़े छह दशकों से दिल्ली विश्वासघात करती आ रही है और जब भी राजनीतिक आकांक्षाओं को पाने के लिए कोई उचित आंदोलन हुआ, तो दिल्ली ने इसे पाकिस्तान-प्रायोजित कह कर खारिज कर दिया. वाजपेयी के कार्यकाल में थोड़ी ही बेहतरी हुई, पर निश्चित रूप से संवाद, मेल-मिलाप और शांति का माहौल बना था. उन्होंने पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह परवेज मुशर्रफ के साथ उस लंबे रास्ते की ओर चलने की कोशिश की, जो अब तक दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे को चकमा देने के लिए इस्तेमाल होता था. वाजपेयी को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने कारगिल के कर्ता-धर्ता के साथ हाथ मिलाया. इसका लाभ भी हुआ और साठ वर्षो के बाद नियंत्रण रेखा पर बस-सेवा और व्यापार जैसी भरोसा बढ़ानेवाली कोशिशें हुईं. यह कोई अंतिम लक्ष्य नहीं था, लेकिन गौरवपूर्ण समाधान की दिशा में एक कदम जरूर था.
उन्हीं के कार्यकाल में कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के एक गुट के साथ बातचीत शुरू हुई थी, जो इस तथ्य का रेखांकन था कि कश्मीर में एक प्रभावशाली आवाज है, जिसे सुने जाने की जरूरत है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शुरू में सकारात्मक रुख अपनाया और कई महत्वपूर्ण फैसले लेने में अपनी भूमिका निभायी, लेकिन 2008 के मुंबई हमले के बाद यह प्रक्रिया ठप्प पड़ गयी. लेकिन शांति-प्रक्रिया रुकने के पीछे मुंबई शायद एकमात्र कारण नहीं था, जिसे नवाज शरीफ के सत्ता में आने के बाद भी शुरू नहीं किया जा सका. शरीफ ने अपने और वाजपेयी द्वारा 1999 में किये गये लाहौर घोषणा के तहत संबंध बेहतर करने की दिशा में कदम उठाने की इच्छा जाहिर की थी. असल में, 2003 और 2008 के बीच हिंसक घटनाओं में कमी से शांति-प्रक्रिया को मिली मजबूती और इसमें मुशर्रफ द्वारा जेहादियों के खिलाफ की गयी कार्रवाई के योगदान को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन, घुसपैठ में कमी के बावजूद नयी दिल्ली ने हिंसा में कमी के लिए पाक को कभी श्रेय नहीं दिया. इसी तरह, अलगाववादियों और दिल्ली के बीच बातचीत कभी उस मुकाम तक पहुंच ही नहीं पायी कि दोनों पक्ष लोगों को इतना बता सकें कि बातचीत का कोई न्यूनतम समान आधार तय हुआ है.
मुशर्रफ के चार-सूत्री फॉमरूले का विरोध हुआ था, क्योंकि अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक यह बहुत हद तक भारत के अनुरूप था. लेकिन, दोनों देशों के बीच बढ़ती कड़वाहट और पाकिस्तान में मुशर्रफ-विरोधी माहौल के कारण किसी पहल की गुंजाइश नहीं रही थी. फॉमरूले का विरोध कई कारणों से सही हो सकता है, लेकिन इसने एक नयी शुरुआत की थी, जिसमें कश्मीर को वार्ता के अहम मुद्दे के रूप में जगह मिली थी.
जहां तक जेटली के बयान का सवाल है, जिसमें उन्होंने लोगों तक पहुंचने की बात कही है, यह उम्मीद की जा सकती है कि अगर भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनती है, तो वह सिर्फ गठबंधन के आंकड़े जुटाने के लिए कश्मीर पर नरम रुख नहीं अपनायेगी. पिछले दस साल में भाजपा ने कश्मीरियों और उनकी उम्मीदों के खिलाफ माहौल बनाने में खतरनाक भूमिका निभायी है. आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट (आफ्सपा) को हटाने का भाजपा का पुरजोर विरोध और प्रभावशाली राजनीतिक भावनाओं को सख्ती से ‘कुचलने’ की इसकी नीति ने राजनीतिक वार्ता के माहौल को बिगाड़ दिया है. अगर भाजपा सत्ता में आती है, तो इसे अपने कश्मीर-विरोधी रवैये को छोड़ना होगा और कश्मीर पर वाजपेयी की नीति को अपनाना होगा. पार्टी सेना के बलबूते लोगों को कुचलने की बात नहीं सोच सकती. कांग्रेस ने सिर्फ पिछले दस साल में ही नहीं, बल्कि 1947 से ही अनेक बड़ी गलतियां की है, जिनके कारण कश्मीर जल रहा है और भारत की अखंडता को जोखिम में डाल रहा है. अगर भाजपा सही में एक राष्ट्रवादी पार्टी है और ‘इंसानियत’ में भरोसा रखती है, जैसा कि जेटली ने कहा है, तो उसे शब्दाडंबर से निकल कर कश्मीर के मसले पर मानवीय रवैया अपनाना होगा.