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खतरे की घंटी को सुन लें मतदाता

।। विश्वनाथ सचदेव।। (वरिष्ठ पत्रकार) हमारे देश में चुनाव तो पिछले 62 साल से हो रहे हैं, पर इस बार के चुनाव-प्रचार से लग रहा है कि चुनाव कुछ खास हैं. चुनाव आते ही राजनीतिक दल कुछ नये नारों, कुछ नये दावों, कुछ नये वादों के साथ मैदान में उतर पड़ते हैं. अपनी खूबियों और […]

।। विश्वनाथ सचदेव।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

हमारे देश में चुनाव तो पिछले 62 साल से हो रहे हैं, पर इस बार के चुनाव-प्रचार से लग रहा है कि चुनाव कुछ खास हैं. चुनाव आते ही राजनीतिक दल कुछ नये नारों, कुछ नये दावों, कुछ नये वादों के साथ मैदान में उतर पड़ते हैं. अपनी खूबियों और दूसरे की कमियों के चिट्ठे पढ़े जाने शुरू हो जाते हैं. कोई यह याद नहीं रखता कि पिछले चुनाव में उन्होंने क्या कहा था. किसी को इस बात की चिंता भी नहीं रहती कि वे अब जो कह रहे हैं, वह उनके पिछले कहे का नितांत उल्टा है. सियासी दल यह मान कर चलते हैं कि जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है या फिर उन्हें लगता है कि मतदाता को ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. बावजूद इसके कि मतदाता अनेकों बार यह दिखा चुका है कि वह अंधा-बहरा और बुद्धिहीन नहीं है. सियासी दल मतदाता को भूखा समझ कर उसके सामने एक ऐसी थाली परोस रहे हैं, जिसमें या तो बासी खाना है या उसे नया नाम दिया गया है. यह चुनाव मुद्दा-विहीनता का चुनाव है. लेकिन ऐसा नहीं है कि मुद्दा उठाने का नाटक नहीं हो रहा.

भ्रष्टाचार और महंगाई दो ऐसे मुद्दे हैं, जो हर चुनाव में उठते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र में सत्तारूढ़ पक्ष इन दोनों मुद्दों पर बचाव की मुद्रा में है. इसके साथ सत्ता-विरोधी लहर का होना इस बचाव को और मुश्किल बना रहा है. चुनाव-पूर्व के सारे सर्वेक्षण भी यही बता रहे हैं कि इन मुद्दों के सहारे विपक्ष की स्थिति काफी मजबूत लग रही है. लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच इस चुनाव में भ्रष्टाचार एक गंभीर मुद्दा है?

इसमें संदेह नहीं कि पिछले दस वर्षो में देश में भ्रष्टाचार के अनेक कीर्तिमान स्थापित हुए हैं. अन्ना-आंदोलन की सफलता और ‘आप’ का उदय इस बात का भी प्रमाण है कि देश इन मुद्दों पर गंभीर है. लेकिन क्या पार्टियां भी गंभीर हैं? हमारे नेता इस मुद्दे पर बोल भले ही कुछ भी रहे हों, पर जो सामने दिख रहा है, वह यह है कि वे यूपीए पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का फायदा उठाना चाहते हैं. वे यह मान कर चल रहे हैं कि मतदाता उनके दामन के दाग को नहीं देखेगा. यदि ऐसा नहीं होता, तो पार्टियों को घोषित दागियों को अपने साथ लेने में हिचक क्यों नहीं होती?

सच यह है कि इस चुनावी गणित ने भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, विषमता, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों को हमारी चुनावी राजनीति के लिए आवश्यक बना दिया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, अपने आप में एक त्रसदी भी है कि आप हमारे जनतंत्र का यज्ञ एक ऐसे महाभारत में बदल गया है, जिसमें किसी भी कीमत पर जीत जरूरी मान ली गयी है. उचित-अनुचित, नीति-अनीति, न्याय-अन्याय सब कुछ बेमानी लग रहा है इस चुनाव में. सारा चुनाव-प्रचार एक छापामार लड़ाई का रूप ले चुका है. लेकिन लोकतंत्र में ऐसी लड़ाइयों से चुनाव नहीं जीते जाते. जनतंत्र में जीत का अर्थ सत्ता हथियाना मात्र नहीं होता, बेहतर शासन की आश्वस्ति देना भी होता है. लेकिन ऐसा नहीं दिख रहा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण सच्चई है कि समूची राजनीति एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जिसमें नारे तो हैं, लेकिन वे अर्थहीन हैं. मुद्दों की बात तो की जा रही है, लेकिन इसके पीछे वह ईमानदारी नहीं दिख रही, जो नेता को अर्थवान बनाती है.

इस बार का चुनाव व्यक्तियों का मुद्दों पर हावी होना भी है. हालांकि ऐसा पहले भी कभी-कभार होता रहा है. नेहरू ने तो चाणक्य नाम से एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने उस व्यक्ति-पूजा के खतरों को रेखांकित किया था, जिसमें कोई जवाहरलाल आसानी से तानाशाह बन सकता है. इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल के रूप में हमारे जनतंत्र का काला अध्याय लिखने के बाद स्वयं पहल करके चुनाव करा कर व्यक्तिवादी राजनीति से देश को बचाने की एक कोशिश की थी. लेकिन जिस तरह की व्यक्तिवादी राजनीति आज देश में दिख रही है, वैसी पहले कभी नहीं दिखी थी. कहने को तो कहा यह जा रहा है कि नरेंद्र मोदी का प्रचार-तंत्र अमेरिका के राष्ट्रपति-चुनाव की तर्ज पर चल रहा है. इस खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि यह सारा रंग-ढंग एक तानाशाही प्रकृति को ही बढ़ावा देनेवाला है. भाजपा का प्रचार-तंत्र भाजपा सरकार की नहीं, मोदी सरकार की बात कर रहा है. कांग्रेस में भी उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह का काम कर रहे हैं, उसे भी एक व्यक्ति को अति-महत्वपूर्ण बनाने की प्रक्रिया के रूप में ही देखा जाना चाहिए. जनतंत्र के लिए इस खतरनाक संकेतों को समझने की जरूरत है.

चुनाव-प्रचार के जितने दिन बचे हैं, उनमें ऐसा नहीं लगता कि देश की प्रमुख पार्टियां कोई बड़ा परिवर्तन कर पायेंगी. अब परिवर्तन मतदाता के हाथ में है. मतदाता को ही निर्णय लेना है. यह निर्णय तर्क और विवेक पर आधारित होना चाहिए. राजनीति का धुरी-हीन होना और वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं का राजनीति पर हावी होना जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है. घंटी की इस आवाज को हम जितना जल्दी सुन लें, हमारे लिए उतना ही बेहतर है.

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