।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
लालबत्ती संस्कृति और सामाजिक संपदा की अराजक लूट का आरोप भी इसी राजनीति पर है. ‘अराजकता और जन-अभियान’ की बहस अभी और तेज होगी. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संदेश ने इस बहस का विषय प्रवर्तन मात्र किया है.
हमारे राष्ट्रपतियों के भाषण अकसर बौद्धिक जिज्ञासा के विषय होते हैं. माना जाता है कि भारत का राष्ट्रपति देश की ‘राजनीतिक सरकार’ के वक्तव्यों को पढ़ने का काम करता है. एक सीमा तक ऐसा है भी, पर ऐसे भी राष्ट्रपति हुए हैं जिन्होंने सामयिक हस्तक्षेप किये हैं और सरकार की राजनीति के बाहर जाकर भी कुछ कहा है.
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के राष्ट्र के नाम संबोधन को राजनीति मानें या राजनीति एवं संवैधानिक मर्यादाओं को लेकर उनके मन में उठ रहे प्रश्नों की अभिव्यक्ति? यह सवाल इसलिए उठा, क्योंकि गणतंत्र दिवस के ठीक पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी का धरना चल रहा था.
देश भर में इस बात को लेकर चरचा थी कि क्या ऐसे मौके पर यह धरना उचित है? क्या अराजकता का नाम लोकतंत्र है? संवैधानिक मर्यादा की रक्षा करने की शपथ लेनेवाले मुख्यमंत्री को क्या निषेधाज्ञा का उल्लंघन करना चाहिए?
राष्ट्रपति के संबोधन से एक दूसरा विवाद शुरू हो गया. वह यह कि क्या राष्ट्रपति को सत्ता की राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहिए? उन्हें पूरा देश संरक्षक मानता है. क्या उन्हें किसी खास राजनीतिक दल का समर्थन या भर्त्सना करनी चाहिए? पर ये सवाल तो तब उठेंगे जब हम मान लें कि राष्ट्रपति का संबोधन राजनीति से प्रेरित था. पहले यह देखें कि राष्ट्रपति ने कहा क्या था.
राष्ट्रपति ने कहा, ‘लोकलुभावन अराजकता’ शासन का विकल्प नहीं हो सकती. नेताओं को जनता से वही वादे करने चाहिए जो वे पूरे कर सकें. झूठे वादों की परिणति मोहभंग में होती हैं, जिससे गुस्सा पैदा होता है और इस गुस्से का लक्ष्य सिर्फ वे होते हैं, जो सत्ता में हैं.
जनता का गुस्सा तभी कम होगा जब सरकारें वह काम करेंगी, जो करने के लिए उन्हें चुना गया है- सामाजिक और आर्थिक तरक्की, घोंघे की रफ्तार से नहीं, बल्कि रेस के घोड़े की तरह.
क्या यह बात परोक्ष रूप से सिर्फ आम आदमी पार्टी की आलोचना के रूप में थी? या समूची राजनीति यानी कांग्रेस और भाजपा पर भी यही बात लागू होती है? आम आदमी पार्टी की ओर से राष्ट्रपति के भाषण के बाद तीन तरह की प्रतिक्रियाएं आयीं. उसके नेता आशुतोष ने कहा कि राष्ट्रपति ने जो कहा है, हम इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते क्योंकि वह देश के प्रथम नागरिक हैं.
अगर उन्होंने हमारे बारे में कुछ कहा है तो हम उन्हें सावधानी से सुनेंगे और उस पर विचार करेंगे. योगेंद्र यादव ने कहा कि राष्ट्रपति का भाषण ‘आप’ के बारे में नहीं है. मेरा पूरा विश्वास है कि राष्ट्रपति के दिमाग में कुछ बड़ी बातें रही होंगी. वे शायद उत्तर प्रदेश या गुजरात के बारे में बात कर रहे थे.
यादव ने ट्विटर पर लिखा, ‘वे जरूर यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों की अराजकता और लोकलुभावन होने की बात कर रहे होंगे. राष्ट्रपति की चेतावनी सही है. मंत्रियों को चुनाव में झूठे वादे नहीं करने चाहिए.’
उधर, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस बयान का स्वागत करके इसका रुख ‘आप’ की ओर मोड़ दिया. सिंह ने कहा, यों भी लगता है कि राष्ट्रपति ने जिस वाक्यांश ‘लोकलुभावन अराजकता’ का इस्तेमाल किया है, वह ‘आप’ पर ही लागू होता है.
उन्होंने बिना नाम लिये ‘आप’ नेता प्रशांत भूषण के कश्मीर पर दिये गये बयान की याद भी दिलाई. उन्होंने कहा, ‘ऐसे बड़बोले लोग, जो हमारी रक्षा सेवाओं की निष्ठा पर शक करते हैं, गैर जिम्मेदार हैं, उनका सार्वजनिक जीवन में कोई स्थान नहीं होना चाहिए.’
राष्ट्रपति ने यूपीए सरकार पर सीधे टिप्पणी नहीं की, पर इतना जरूर कहा कि अगर सरकारें इन खामियों को दूर नहीं करतीं तो मतदाता सरकारों को हटा देंगे. राष्ट्रपति ने चेताया कि यदि 2014 में विपरीत विचारधाराओं के बीच खंडित जनादेश की सरकार बनी, तो देश को उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. यह भी एक प्रकार का राजनीतिक वक्तव्य है.
राष्ट्रपति ने देश की जनता से अपील की कि 2014 में होनेवाले चुनावों में हम भारत को निराश नहीं कर सकते. आनेवाले चुनाव में कौन जीतता है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी यह बात कि चाहे जो जीते, उसमें स्थायित्व, ईमानदारी और भारत के विकास के प्रति अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिए.
इन पंक्तियों को गौर से पढ़ें तो इनमें राजनीति खोजी जा सकती है, पर उनका जोर लोकतंत्र को मजबूत बनाने पर ही है. उनके अनुसार लोकतंत्र के अंदर खुद में सुधार करने की विलक्षण योग्यता है. यह ऐसा चिकित्सक है, जो स्वयं के घावों को भर सकता है.
राष्ट्रपति के संदेश की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि लोकतांत्रिक देश होने के नाते हम इन मसलों पर विचार करना शुरू करें. इस लिहाज से आशुतोष और योगेंद्र यादव के वक्तव्य से ज्यादा महत्वपूर्ण बात अरविंद केजरीवाल ने कही है.
उनके अनुसार यह विचार चाहे राष्ट्रपति का हो या केंद्र सरकार का, कम से कम इस बात चरचा तो शुरू हुई. राष्ट्रपति के संदेश के बाद उन्होंने फिल्म निर्देशक शेखर कपूर के ट्वीट को रिट्वीट किया, ‘राष्ट्रपति महोदय, एक्टिविज्म और अराजकता एक जैसे नहीं हैं. अराजकता तो 1984 में हुई थी, जब राज्य और पुलिस ने भीड़ को सिखों की हत्या के लिए उकसाया था.’
यहां शेखर ने जो नहीं लिखा उसे भी कहा जाना चाहिए. हाल के वर्षों में बाबरी मसजिद के ध्वंस से ज्यादा बड़ी अराजकता कौन सी हुई? इस लिहाज से विचार केवल ‘आप’ को ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा को भी करना है.
सन् 2000 में हमारे गणतंत्र ने पचास साल पूरे किये थे. उस मौके पर तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन का राष्ट्र के नाम संदेश था कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने जन-गण के अधिनायक यानी देश की जनता का जो आह्वान किया था, वह पूरा होना चाहिए. ‘देश की जनता नाराज है, जिसकी अभिव्यक्ति अकसर हिंसा के रूप में होती है.
द्रौपदी के समय से ही हमारी स्त्रियां सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र होती रही हैं. स्त्रियों के बारे में ही नहीं, दलितों, जनजातियों और अन्य कमजोर तबकों की दशा पर भी विचार करना चाहिए.’ वह भाषण आज भी सार्थक लगता है.
प्रणब मुखर्जी ने जो नहीं कहा वह यह कि राजनीति को ऐसे मौकों पर हिसाब चुकता करने के बजाय सामने खड़े सवालों के जवाब देने चाहिए. राजनीति माने ‘आप’ समेत पूरी राजनीति. ‘आप’ इससे बाहर नहीं है. ‘लोकलुभावन अराजकता’ के मुकाबले ‘लोकलुभावन रेवड़ी वितरण’ की राजनीति भी है. लालबत्ती संस्कृति और सामाजिक संपदा की अराजक लूट का आरोप भी इसी राजनीति पर है. ‘अराजकता और जन-अभियान’ की बहस अभी और तेज होगी. राष्ट्रपति के संदेश ने इस बहस का विषय प्रवर्तन मात्र किया है.