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एमके कॉव ने राष्ट्रपति की सुविधाओं पर ही सवाल उठाये

।। रेहान फजल।। दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में एक चपरासी के क्वार्टर से अपनी जिंदगी की शुरुआत कर राजभवन के बगल वाले मुख्य सचिव के शाही बंगले का सफर जितनी सहजता से महाराज कृष्ण कॉव ने तय किया है उतना शायद किसी भी आइएएस अफसर ने नहीं किया. सुनने में ये बात अजीब-सी लग सकती […]

।। रेहान फजल।।

दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में एक चपरासी के क्वार्टर से अपनी जिंदगी की शुरुआत कर राजभवन के बगल वाले मुख्य सचिव के शाही बंगले का सफर जितनी सहजता से महाराज कृष्ण कॉव ने तय किया है उतना शायद किसी भी आइएएस अफसर ने नहीं किया. सुनने में ये बात अजीब-सी लग सकती है लेकिन कॉव ने अपनी सारी पढ़ाई लगभग स्ट्रीट लाइट में की थी. पढ़ाई के अंतिम पड़ाव में जरूर उनका साथ केरोसिन की चिमनी ने दिया.

आइएएस की परीक्षा में बैठने के लिए 21 साल का होना जरूरी था. उन्होंने बाकी का समय श्रम मंत्रालय में शोध जांचकर्ता के पद पर काम करते हुए बिताया. कॉव महज 18 साल की उम्र में ही एमए एलएलबी हो गये थे. साल 1971 में जब हिमाचल प्रदेश बना, तो एमके कॉव को वहां पोस्टिंग मिली और वहां पहुंचते ही इनका वास्ता राज्य के मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार से हुआ.

कॉव बताते हैं कि परमार बहुत ही प्रभावशाली शख्सीयत के मालिक थे. उनकी नीली-सी आंखें थीं, जैसे कि सांप की हुआ करती हैं. परमार शिमला के बस स्टैंड के पास एक प्लॉट का मुआयना कर रहे थे, जहां पंचायत विभाग का मुख्यालय बनाया जाना था. कॉव ने आव देखा न ताव. फौरन बोले, ‘क्या आप समझते हैं कि भवन के लिए यही सबसे उपयुक्त जगह है.’ कॉव का यह कहना था कि वहां मौजूद वरिष्ठ अधिकारियों के बीच सन्नाटा छा गया. लेकिन परमार को शायद युवा अफसर का जोश पसंद आया. लिहाजा उन्होंने नरमी दिखाते हुए टिप्पणी की, ‘जनाब ये हम तय करेंगे या आप?’

परमार के बाद हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने राम लाल विशुद्ध राजनीतिक इनसान थे. हर पल सत्ता की लड़ाई में ऊंची से ऊंची सीढ़ी तक पहुंचना उनके जीवन का मुख्य ध्येय था. राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर काम करते हुए उन्होंने परिवार नियोजन पर खासा ध्यान दिया. इसलिए वो संजय गांधी की निगाहों में चढ़ गये. एक बार राज्य के बिजली आपूर्ति मामलों के मंत्री राम लाल ने बिना वित्त मंत्रलय से बात किये हरियाणा के साथ जल समझौता कर लिया. समझौते पर दस्तखत करने के बाद उन्होंने कॉव के पास अनुमोदन के लिए फाइल भेजी.

कभी नोटिंग नहीं बदली : कॉव ने फाइल पर नोट लिखा कि समझौता हिमाचल प्रदेश के पक्ष में नहीं है, क्योंकि उसमें पानी देने के एवज में मिलने वाली बिजली को प्रति यूनिट के हिसाब से नहीं आंका जा रहा था. मुख्यमंत्री परमार ने कॉव की सलाह पर उस समझौते को खारिज कर दिया. इस बीच रामलाल मुख्यमंत्री बन गये. राम लाल ने उन्हें बुलाया और कहा कि आप फाइल पर अपनी नोटिंग को बदल दीजिए. कॉव का जवाब था, ‘मैंने जिंदगी में अपनी नोटिंग नहीं बदली और अब मैं उसकी शुरु आत नहीं करने जा रहा.’

1982 में जब कॉव दिल्ली की प्रतिनियुक्ति के बाद वापस हिमाचल प्रदेश लौटे, तो इन्हीं रामलाल ने उन्हें अपना प्रधान सचिव बनाया. एक समय स्थिति ये हो गयी कि जब तक कॉव उनसे किसी कागज पर हस्ताक्षर के लिए नहीं कहते थे, राम लाल उस पर दस्तखत ही नहीं करते थे. पूरे हिमाचल में ये खबर फैल गयी कि कॉव ही सरकार चला रहे हैं. 90 के दशक में कॉव दिल्ली में उड्डयन सचिव बन कर आये. प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल ने उन्हें बुला कर कहा कि उन्हें मंत्रलय में कोई स्कैंडल नहीं चाहिए. चांदमहल इब्राहिम उनके मंत्री थे. वो एक एक महीने तक दुबई में जा कर बैठे रहते थे और अपने साथ एक संयुक्त सचिव को भी ले जाते थे.

टाटा को इनकार : मंत्री पर तो कॉव का कोई बस नहीं चलता था, क्योंकि उनकी यात्रा की अनुमति प्रधानमंत्री दिया करते थे लेकिन संयुक्त सचिव को इन बिना मकसद की यात्राओं के लिए छोड़ने से कॉव ने साफ इनकार कर दिया था. उनके इसी कार्यकाल के दौरान टाटा ने आवेदन दिया कि उन्हें सिंगापुर एयरलाइंस के साथ एक नयी एयरलाइंस शुरू करने की इजाजत दी जाये. इब्राहिम ने जेट एयरलाइंस को चालीस फीसदी तक सीधे विदेशी निवेश की अनुमति देने के बाद बाकी सारे विदेशी निवेशों पर रोक लगा दी. एक तरह से जेट एयरवेज सारे खेल की अकेली लाभार्थी बन गयी. हाल ही में नागरिक उड्डयन क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति दी गयी है लेकिन अगर उस समय के नागरिक उड्डयन मंत्री ने टाटा का प्रस्ताव मान लिया होता तो भारतीय उड्डयन की पूरी तसवीर ही बदल गयी होती. इसी तरह का एक दिलचस्प किस्सा पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के साथ हुआ. जब राष्ट्रपति विदेश यात्र में जाते थे, तो उनके लिए एयर इंडिया एक विमान की व्यवस्था तो करती थी, एक विमान उनके लिए रिजर्व भी रखा जाता था. उस रिजर्व विमान के लिए एक कमांडर और एक सह पायलट भी रिजर्व रखा जाता था.

राष्ट्रपति पर सवाल : नारायणन चाहते थे कि उनके लिए दो कमांडर रिजर्व रखें जायें. जब फाइल एमके कॉव के पास आयी तो उन्होंने इसका विरोध किया. एक दिन नारायणन ने उन्हें और कैबिनेट सचिव को राष्ट्रपति भवन बुला भेजा. दोनों ने पूरी ताकत से नारायणन की मांग का विरोध किया और अपनी बात पर डटे रहे. बाद में नारायणन ने प्रधानमंत्री पर जोर डाल कर अपनी बात मनवा ली. कॉव ने प्रधानमंत्री को नोट भेजा कि एक विमान और उस पर कमांडर और पायलट को रिजर्व रखने की वजह से राष्ट्रपति की हर विदेश यात्र के दौरान सरकार के 19 करोड़ रु पये अतिरिक्त खर्च होंगे लेकिन उनके इस विरोध को नजरअंदाज कर दिया गया.

रिटायरमेंट के बाद भी एमके कॉव की सक्रि यता कम नहीं हुई. वे प्रशासनिक मुद्दों पर नियमित स्तंभ लेखन करते हैं, सेमिनारों में हिस्सा लेते हैं और व्याख्यान देते हैं. इतना ही नहीं वे कई तरह के सामाजिक विकास के कार्यक्र मों से भी जुड़े हुए हैं. इन सबके अलावा कॉव शायद उन गिने चुने अफसरों में होंगे जो अपने काम के साथ-साथ कविताएं भी लिख सकते हैं. उनकी कविताओं की एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है -‘ चढ़ते पानी से बेखबर’. उसी पुस्तक की उनकी पसंदीदा कविता है ‘हुक्मरान’-

आज शायद/ आ रहे हैं हुक्मरां,/ सड़क शक बन गयी है/ अब/ बस आने को हैं हुक्मरां,/ सड़क हो गयी है सूनी/ लो/ आ गये हैं हुक्मरां,/ सड़क थरथरा रही है/ अभी /चले गये हैं हुक्मरां,/ सड़क हो चली है जिंदा.

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