-अध्यात्म की सहज अभिव्यक्ति है समाजवाद-
-उदय राघव जी से हरिवंश की बातचीत-
देश जिस मौजूदा संकट में है, उसमें आर्थिक-सामाजिक हल नहीं दिखाई दे रहे हैं. अगर हल निकल भी रहे हैं, तो समस्या और गंभीर होती जा रही है. ऐसे मामलों में नये ढंग से सोचने या नैतिक पुनरुत्थान के बगैर कोई रास्ता संभव नहीं दिखता. इसी क्रम में ‘प्रभात खबर’ ने अपने समय के कुछ चुनिंदा आध्यात्मिक चिंतकों से बात की है. पढ़िए, आज की कड़ी में उदय राघव जी को. ‘प्रभात खबर’ के पाठक उदय जी के विचार ‘अन्ना भाईश्री’ के नाम से समय-समय पर पढ़ते रहे हैं. अन्ना जी ने पहली बार अपना नाम जाहिर किया है. वह किसी तरह के संस्था निर्माण में विश्वास नहीं करते हैं, क्योंकि वह मानते हैं कि संस्था निर्माण होते ही उसमें संस्थागत बुराइयां स्वत: और तुरंत चली आती हैं.
उदय राघव जी से हरिवंश की बातचीत
इतनी विविधता, जीवन के समृद्ध अनुभवों के बीच, आज आप जीवन को कैसे देखते हैं? जीवन है क्या? इसका मर्म क्या है? क्यों मिलता है जीवन?
जीवन एक गाड़ी की तरह है. एक इंस्ट्रमेंट की तरह, जिस पर हम सवार होते हैं. जीवन हमें एक प्लेटफॉर्म देता है. जीवन नहीं होगा, तो वह प्लेटफॉर्म नहीं होगा. जीवन के प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर हमें अपने आप को व्यक्त करना पड़ता है. दिखाना पड़ता है कि हम कौन हैं? क्या हैं? यह आप जानते हुए भी कर सकते हैं और ना-समझी में भी. यह जीवन आपको मिला. आप शरीर में आये. अब आप न समझते हुए भी अपना परिचय ही दे रहे हैं. आप समझ कर भी दे सकते हैं. यह विकल्प है, आपके पास. आप दोनों ही परिस्थितियों में जीवन जी सकते हैं. माता-पिता हमें जन्म देते हैं. शरीर का एक प्लेटफॉर्म देते हैं. लेकिन, हमें खुद अपने आप को जन्म देना पड़ता है. हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं, अपने इंपरफेक्शन को समझते हैं. उसे दूर करते हैं. हम बहुत चीजों को पसंद करते हैं, उन्हें अपने जीवन में आमंत्रित करते हैं. कई चीजों को अपने जीवन से दूर भी हटाते हैं. इस तरह हमें जो जीवन का प्लेटफॉर्म मिला, उसके आधार पर अपने को खड़ा करते हैं. व्यक्त करते हैं. ब्राह्मणों में जो यज्ञोपवीत होता है, उसमें जो द्विज का संस्कार है, वह उसी आधार पर खड़ा है. लेकिन यह ब्राह्मणों की ही जागीर नहीं है. हर इंसान को इसी तरह अपने आप को जन्म देना पड़ता है. जड़ और चेतना मिलती है. जीवन का जन्म होता है. माता-पिता के संस्कार जेनेटिकली हमें मिल ही जाते हैं. हम जो इस शरीर में रहनेवाले हैं, तो कुछ हमारे भी पूर्वजन्म की उपलब्धियां हैं. कुल मिला कर एक पैकेज बनता है, मेरा. अब उस जीवन के प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर हम समझते हैं, देखते हैं कि हमको क्या करना है? किधर जाना है?
बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि कोई भी पुत्र, पिता के लिए पिता को प्यार नहीं करता है. अपने लिए पिता को प्यार करता है. कोई भी पिता, पुत्र के लिए पुत्र को प्यार नहीं करता. अपने लिए पुत्र को प्यार करता है. कोई भी पत्नी, पति को पति के लिए प्यार नहीं करती. अपने लिए पति को प्यार करती है. कोई भी पति, पत्नी को पत्नी के लिए प्यार नहीं करता. अपने लिए पत्नी को प्यार करता है. इस तरह से वो संसार से, संसार के संबंधों से कई सारे दृष्टांत देकर कहते हैं कि हम अपने ही लिए सब कुछ करते हैं. कठिन से कठिन तपस्या भी हम अपने लिए करते हैं. अपने ही सुख के लिए करते हैं. इसलिए उसके अंत में कहते हैं कि ‘आत्मा वा अरे दृष्टव्यो, श्रोतव्यो, मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:. जिसके लिए तुम यह सब करते हो, उसको जानो कि वह कौन है? बिना जाने उसके लिए सब कुछ कर रहे हो. अपने लिए तुम सब कुछ कर रहे हो, लेकिन क्या तुम अपने को जानते हो? ऐसा महर्षि कहते हैं, उपनिषद् में. यह दृष्टांत मैंने इसलिए बताया कि हमें जब जीवन प्राप्त होता है, तो बहुत कम लोग इस बात को समझते हैं कि हमें एक प्लेटफार्म मिला है. हमको एक अवसर मिला है, अपने को जानने-समझने का. जहां हम हैं, उसे जानने-समझने का. प्रेम-स्नेह बांटने का. लेकिन इसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं. तड़ातड़ लोग आते हैं, जीवन जीते हैं और चले जाते हैं. अब जीवन है, जो जीना पड़ेगा ही. चाहे जैसे भी हो, सांस तो लेंगे ही, दिल धड़केगा ही, खाना खायेंगे ही, प्रजनन तो होगा ही ..आहार, निद्रा, मैथुन, भय, इस तरह ये चार जो पशु के मौलिक संस्कार हैं, वो तो होंगे ही. लेकिन कुछ लोग होते हैं, जो इसको समझते हैं कि जीवन मिला. चेतना और शक्ति मिली, तो जीवन का जन्म होता है. हम जीवन के प्लेटफार्म में आते हैं. हम तो सिर्फ इस प्लेटफार्म पर बैठते हैं, तो सबसे पहला उत्तर होना चाहिए कि हम शरीर में बैठते हैं. अब शरीर कहां रहता है, तो इसका जवाब होना चाहिए आपके घर का पता (रांची, दिल्ली, सरिया वगैरह). हम सब लोग जहां पर जन्म लेते हैं, वहां पर हमारे शरीर को अपने माता-पिता के संस्कार प्राप्त होते हैं. इस तरह का संस्कार लेकर हम अपने शरीर में आते हैं. हमारे अपने भी कुछ संस्कार होते हैं, जो हम अपने पूर्वजन्म से लेकर आते हैं. कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपने जीवन के प्लेटफार्म पर खड़े होकर सिंहावलोकन करते हैं. देखते हैं कि हमें क्या करना है? समझने की कोशिश करते हैं कि हम क्या हैं? कौन हैं? किसलिए आये हैं? कौन-सी बातें हैं? संसार की तरह-तरह की रुचियों में हमें किधर जाना है? बहुत कम लोग होते हैं, जो इस तरह सोच-विचार के बाद अपना रास्ता चुनते हैं. ज्यादातर लोग संसार के आकर्षणों से खिंचे चले जाते हैं. मान लीजिए कि आज कोई लड़की या लड़का किसी घर में जन्म लेता है. सब लोग पढ़ते हैं, तो वह भी पढ़ता है. जब कुछ बड़ा होता है, तो सोचता है कि मुझे क्या करना है? सब लोग कह रहे थे, मेरे पापा कह रहे थे कि डाक्टर बनना है. लेकिन आकर्षण होता है कि नहीं, हम पुलिस आफिसर बनेंगे. जर्नलिस्ट बनेंगे. इस तरह के आकर्षण के कई कारण होते हैं. मान लीजिए किसी ने वकील परिवार में जन्म लिया, तो उसके मन में वकालत के प्रति आकर्षण आ गया. डाक्टर के घर में कोई पैदा हुआ, तो उसका सहज ही डाक्टरी के प्रति आकर्षण हो जायेगा. तरह-तरह के आकर्षणों से खिंचे चले जाते हैं. इस तरह बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो समझ-बूझ कर अपना रास्ता तय करते हैं. राबर्ट फ्रास्ट की मशहूर कविता है, आइ चूज ए पाथ लेस ट्रेवल्ड एंड दैट मेड ए डिफरेंस (आशय – जिस रास्ते पर बहुत कम लोग जाते हैं, हम उस रास्ते पर चले और इसी ने फर्क पैदा किया). इस जीवन के प्लेटफार्म को पाकर हम इसके साथ क्या करते हैं? हमारे भी जीवन में ऐसा ही हुआ. अच्छा इंसान बनने का आधार मां ने ही दिया. माता-पिता के आदेश से डाक्टरी की, साधना की. मां के न रहने पर डाक्टरी छोड़ दी, पिता के पास आकर साधाना में डूब गये. इसलिए आपके प्रश्न पर अगर बात की जाये, तो एक ही बात करने लायक लगती है कि जो चीज सबसे ज्यादा रेलिवेंट है, उस चीज को खड़ा करना. जैसे, अंधकार में सबसे ज्यादा प्रासंगिक प्रकाश होता है. आज जिस चीज का अभाव है, उसको खड़ा करना. लेकिन हम वो रास्ता नहीं अपनायेंगे जिस पर चल कर सब लोग खराब हो गये. मैं कोई संगठन नहीं करूंगा. मैं कोई गुरुगीरी नहीं करूंगा. जैसा, मैंने अरविंद केजरीवाल के लिए कहा कि उनकी बुद्धि की दाद देनी पड़ेगी. क्योंकि जिस रास्ते पर चल कर सारे समाज को नष्ट कर दिया इन राजनीतिक पार्टियों ने, उस रास्ते पर चल कर आप देश का उद्धार करने की सोच रहे हैं. 60-65 वर्ष के इतिहास को आधार बना कर आपने जो निष्कर्ष निकाला, आप उसी रास्ते पर चल रहे हैं? यह क्या है? इसलिए हम उस रास्ते पर नहीं चलेंगे, जिस रास्ते पर चल कर लोग खराब होते हैं, हमें उस रास्ते पर नहीं जाना है. भगवान मेरी मदद करेगा, अगर हम भगवान की मदद करेंगे. यदि भगवान मदद नहीं कर रहे हैं, तो हम इस स्थिति में नहीं हैं कि भगवान की मदद कर सकें. वह अगर चाहता है कि मैं उसकी मदद करूं, तो उसको पहले मेरी मदद करनी होगी. ये उसका काम है. यह धरती उसकी है. मेरी पूरी हमदर्दी है उसके साथ. उसकी धरती बहुत गंदी हो गयी है. तामसिकता-राजसिकता की भावना आ गयी है. सात्विकता किसी कोने में कराह रही है. यह मैं समझ रहा हूं, लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ कि किसी भी सात्विक -साधु आदमी के लिए एकदम शुद्ध और पवित्र बात रखना असंभव है. आप बिना संगठन खड़ा किये कोई काम ही नहीं कर सकते. उस रास्ते पर चल कर तो सब बिगड़े हैं, तो उस रास्ते पर हम क्यों चलें? इसलिए अगर भगवान चाहते कि मैं उनकी मदद करूं, तो पहले भगवान को मेरी मदद करनी होगी. मैं पहले उस स्थिति में आऊं कि उनकी मदद करूं. आज मैं इस स्थिति में नहीं हूं. जो सच्ची बात हैं, वह तुम्हें और अन्य लोगों को वर्षों से बता रहा हूं, लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही. मैंने कल भी कहा कि अरे भाई सभी घटनाएं तुम देखते हो, भविष्य की छाप पड़ रही है वर्तमान में, एनार्की के सारे चिह्न खड़े हो रहे हैं. देश में अपराधी शासन कर रहे हैं. यह सब तुम्हारे सामने है, फिर भी तुम एकदम से बेहोश-बेखबर खड़े हो. इसलिए अगर आज जीवन का अनुभव या जीवन के लक्ष्य के बारे में पूछते हो, तो बहुत छोटी सी बात मैं कहूंगा कि यदि कोई व्यक्ति प्रासंगिक बन सके भगवान के लिए, संसार के लिए, जो आज के लिए सबसे बड़ी करणीय चीज है. और कुछ नहीं. जैसे अंधकार में प्रकाश प्रासंगिक होता है, वैसे ही आज इस समाज में सात्विकता, अध्यात्म, भगवान प्रासंगिक हैं. भगवान उस संदर्भ में नहीं. ये साधु लोग, बाबा लोग तो भगवान का व्यवसाय करनेवाले लोग हैं. भगवान को बेच कर व्यवसाय करते हैं. मैं इस अर्थ में भगवान नहीं कह रहा हूं, बल्कि भगवान जो आपके अंदर है, उसको याद करने के लिए कह रहा हूं. मैं आध्यात्मिकता की बात कह रहा हूं. सात्विकता की बात कह रहा हूं. सबके हित में अपना हित देखने की बात कह रहा हूं. सबके हित के लिए सोचने की बात मैं कह रहा हूं. बहुत सारे काम, जो संस्कार करता है, शिक्षा करती है, संस्कृति करती है, वही नहीं है आज. शिक्षा-संस्कृति में तो आप रुपये कमाने की मशीन तैयार कर रहे हैं. भगवान को भी एक सर्विस प्रोवाइडर बना कर खड़ा कर दिया हमलोगों ने. आज के समाज में देखिए कि लोगों की श्रद्धा कितनी बढ़ी है? फिल्म स्टार, क्रिकेटर, राजनीतिज्ञ सब मंदिर जाते हैं. साधु-संतों के पास जाते हैं. क्यों? क्योंकि भगवान उनके लिए एक सर्विस प्रोवाइडर हैं. भगवान, क्या सर्विस देते हैं? तनावों से राहत मिलती है, इसलिए उस सर्विस प्रोवाइडर को हम फीस देकर निश्चिंत हो जाते हैं. हमारा जीवन जैसा है, वैसा ही बना रहता है. अगर इस जीवन में काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि हैं, तो वो सब वैसे ही बने हुए हैं या इस जीवन में पैसे कमाने की जो आग जल रही है, तो वह जल ही रही है. हम तो उसमें आहुति देकर उसे और भड़का ही रहे हैं. इसलिए आज अगर जीवन का मतलब-महत्व समझना हो, तो सबसे महत्वपूर्ण बात मैं यही कहूंगा कि जो चीज इस संसार को चाहिए, वह ले न ले, मैं उसे लेकर खड़ा हूं. इस संसार को नि:स्वार्थता, प्रेम, स्नेह, विश्वास, अध्यात्म.. ये सारी चीजें संसार को चाहिए. हम दीपक जला कर बैठे हैं. इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर सकते हैं. अगर आपको अपना दीपक जलाना है, तो आप जला सकते हैं. मैंने अपना काम, अपना दीपक जला दिया है. कोशिश करूंगा कि वहां से पूरी तरह हट जाऊं. मैं हट गया और दीपक जल रहा है. इससे ज्यादा प्रासंगिक अर्थ अभी जीवन का नहीं है.
भारतीय अध्यात्म को आज दुनिया के संदर्भ में आप कैसे इवैल्यूएट करते हैं? क्योंकि एक तरफ दुनिया में डेवलपमेंट इंडेक्स बनता है जिसमें सिर्फ और सिर्फ अंध-विकास का पैमाना है, तो दूसरी तरफ वही पश्चिम की दुनिया बड़ी तेजी से हैपीनेस की तलाश कर रही है. उसके लिए भूटान आदर्श बनता है, जिसके पास इन्फ्रास्ट्रक्टर और डेवलपमेंट कुछ भी नहीं है. इस बीच की दुनिया को, भारतीय अध्यात्म को आप कैसे देखते हैं?
बाबूजी ने एक बात बहुत अच्छी कही थी, ट्रिपल एस. स्प्रिचुएलिटी (अध्यात्म), सोशलिज्म (समाजवाद) और साइंस. सोशलिज्म, स्प्रिचुएलिटी का सहज व्यवहार है. इसलिए इसको अलग से कहने की जरूरत नहीं है. समाजवाद, अध्यात्म का स्वाभाविक एक्सप्रेशन है. ऋषि इसलिए कहते हैं ईशोपनिषद् में कि ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत् किंच जगत्याम् जगत्, तेन व्यक्तेन भुंजीथा: मा गृध: कस्यस्विद् धनम्. अर्थात् सब जगह भगवान हैं, इसलिए अपने शेयर से अधिक मत लेना. इससे अधिक लेने का मतलब है, चोरी करना. यह दूसरे का धन है. तुम्हें जितनी जरूरत है ले लो, लेकिन अपने शेयर से अधिक मत लो. यह मार्क्सवाद बाद में आया. उपनिषद् का ऋषि हजारों वर्षों पहले यह कह रहा है. ये उपनिषद् की शुरुआती पंक्तियां हैं. इसलिए समाजवाद, अध्यात्म का नेचुरल एक्सप्रेशन है. इसलिए इसको अलग से कहने की बात नहीं है. फिर बाबूजी ने इसमें एक अमेंडमेंट (बदलाव) किया, विज्ञानारूढ़ अध्यात्म. अर्थात्, विज्ञान के कंधे पर बैठा हुआ अध्यात्म. अध्यात्म के कंधे पर विज्ञान, भ्रष्ट होने का प्रतीक है. एटम बम बनाये, विनाश की सामग्रियां लाये, अत्यधिक भोग की वस्तुएं लाये, तो इससे आप सृष्टि का विनाश कर रहे हैं. इसलिए यह दोनों कंबीनेशन (जोड़-मिश्रण) भारतवर्ष में रहा है, जिस तरह ऋषियों ने अध्यात्म का एक बहुत बड़ा शास्त्र खड़ा किया, वह कहीं बाहर नहीं था. विदेशों में नहीं था. ओड़िशा के मेरे एक साथी हैं, जो सारंडा में काम करते हैं. मिनिस्ट्री ऑफ रूरल डेवलपमेंट ने उन्हें अपने संपर्क में रखा है कि आप आयें और जो काम सरकारी एजेंसियां नहीं कर पाती हैं, वह काम करें. वह जाता है, काम करता है. वह आज से तीन महीने पहले आया, तो मैंने पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने बताया कि यह-यह काम कर रहे हैं. फिर मैंने उससे कहा कि आदिवासियों के विकास के लिए काम करते हो, यह बहुत अच्छा है. तुम कोशिश कर रहे हो, उनकी समृद्धि के लिए. उसने कहा, हां बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं. मैंने उससे पूछा कि क्या तुम उन्हें वो ताकत दे रहे हो, जिससे वह इस समृद्धि को संभाल सकें? उन्हें यह समझा रहे हो कि समृद्धि को कैसे संभालना (हैंडल करना) है? मान लेते हैं कि मैंने आपके हाथ में एक करोड़ रुपया दे दिया. अब आपके पास एक करोड़ रुपये संभालने की क्षमता ही नहीं है. आप पागल हो जायेंगे. भोग इत्यादि में उसे खर्च कर देंगे. आप मनुष्य को बौद्धिक और आर्थिक विकास के साथ-साथ पैरेलल (समानांतर रूप से) आध्यात्मिकता नहीं देंगे उसको, तो एक असंतुलन की स्थिति बन जाती है. उसके कारण वह समृद्धि भोग कर गिर जाता है. मैं आज आपसे कह रहा था कि भूखे-नंगों की भूख समझ में आती है, क्योंकि वह भूखा है. ग्लैमर देख कर उसमें भी वासना जगती है. वह तो रमण महर्षि या रामकृष्ण परमहंस नहीं है. वह उन पैसेवालों को लूटने लगता है. ये सब जो बड़े-बड़े लोग हैं, नौकरशाह, राजनीतिज्ञ, व्यापारी या पत्रकार उनके पास पावर है, पैसा है, लेकिन अध्यात्म नहीं है. धर्म का आधार नहीं है. बोलने-लिखने में ये भी गीता को, रमण महर्षि या रामकृष्ण परमहंस को कोट कर देंगे, लेकिन कोट करने के लिए, महज उद्धृत करने के लिए ही. ठीक वैसे ही जैसे एक अच्छी गृहस्वामिनी, चीजों से अपने ड्राइंग रूम को सजाती है. इसी तरह ये लोग भी अच्छी-अच्छी चीजों को अपने दिमाग में सजाते हैं, जिसको वह अच्छी जगहों, सेमिनारों या भाषण देने में उपयोग करते हैं. इससे ज्यादा इसका कुछ उपयोग नहीं है. उनके खुद के जीवन में इसका कोई इस्तेमाल नहीं है. इसलिए अगर धन-वैभव बढ़ाया, भौतिक समृद्धि बढ़ायी, लेकिन इस समृद्धि को हैंडल करने, संभालने की क्षमता नहीं बढ़ायी, उसे इन सब चीजों का प्रशिक्षण नहीं दिया, तो वह बवाल मचायेगा ही? तूफान खड़ा करेगा ही. लेकिन यदि आपने उसे अध्यात्म का आधार भी दिया, तो वह स्वाभाविक ही अपना शेयर से उससे थोड़ा सा कंप्रोमाइज करेगा और शांत हो जायेगा. मेरा काम इतने से ही हो जाता है. मैं अधिक लेकर क्या करूंगा? भविष्य को लेकर चिंतित होना चाहिए. मैं बार-बार कहता हूं कि आदमी रमण महर्षि या रामकृष्ण परमहंस तो नहीं है. इसलिए समाज को एकसाथ बदलना होगा, जिससे कि हम एक -दूसरे का ख्याल रख सकें. कोई भी व्यक्ति अपने को असुरक्षित नहीं महसूस करे कि बुढ़ापे में हमारा क्या होगा. वह लड़का जो सारंडा में काम कर रहा है, वहां के लोगों की तारीफ में कहता था कि किसी आदिवासी के घर खाना बन रहा है, तो पहले समाज के बूढ़ों के लिए निकाल लेते. हमारे यहां गांवों में भी ऐसा होता है. यह निकाला हुआ भोग, देवताओं का हिस्सा कहलाता हैं. उनके यहां महिलाएं घर को छोड़ कर बाहर आती-जाती हैं. अपने पति पर घर छोड़ कर. अगर उनका मन नहीं हुआ तो वह अपने बच्चे को लेकर पति से अलग हो जाती हैं. उस बच्चे को खिलाने-पढ़ाने की जिम्मेदारी समाज की होती है. यह अनादर नहीं है. इसलिए वह दो अंश निकालते हैं. एक बूढ़ों का और दूसरा बच्चों का. जितने घर हैं, सब. अध्यात्म का क्या आशय है? आत्मा सब में है, इस आधार पर. आपका जीवन अधिभूत, अधिदेव और अध्यात्म का संयोग है. यह तीन बातें हैं. पहले में भौतिक की बातें होती हैं, दूसरे में देवी-देवताओं की बात- पूजा होती है और अध्यात्म में यही बात है कि सबमें आत्मा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, जब अध्यात्म को लोगों ने बेचना शुरू किया, तो जो अमूल्य चीज थी, उसकी कीमत हो गयी. पहले कुछ लाख और अब कुछ हजार रुपये में. बड़े-बड़े संगठन खड़े हो गये, पिछले 50-60 वर्षों में. आखिर उन्होंने किया क्या? उन्होंने भारतीय साधना के निष्कर्ष को बेचा. उपनिषद के ज्ञान को बेचा. अध्यात्म को बेचा. चूंकि पश्चिम के कुछेक लोग ही इसके बारे में जानते हैं, इसलिए उन्हें यह बहुत अच्छा लगा. जूलिया राबर्ट्स भी कहती हैं कि सीता-राम, राधे-श्याम का कीर्तन करने में बहुत अच्छा लगता है. करोड़ों-अरबों की संपत्ति के ढेर पर बैठ कर कृष्ण भगवान का कीर्तन करना तो अच्छा लगेगा ही. जिसके पास आज भोजन का उपाय नहीं है, उसके संदर्भ में सोचिए. भगवान सभी के अंदर है. यह बेची हुई चीज अध्यात्म नहीं है. जिन्होंने रुपये से इसे खरीदा है, उससे उनका भी जीवन नहीं बदलेगा. अध्यात्म को लाना ही पड़ेगा. सबसे ऊपर. केंद्र में. अध्यात्म के चिंतन के ही आधार पर अर्थव्यवस्था हो. अध्यात्म के चिंतन के आधार पर ही समाज-व्यवस्था हो. आध्यात्मिक चिंतन के ही आधार पर शिक्षा-व्यवस्था हो. कहने का सारांश यह है कि जब तक हम सबके भले की बात नहीं सोचेंगे, तब तक अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय नहीं होगा. अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का दूसरा कोई उपाय नहीं है. अध्यात्म, विज्ञान के कंधे पर बैठा है. यह मार्गदर्शक शक्ति है. समझने के लिए यह जान लें कि अध्यात्म ही आगे है, विज्ञान उसकी सहायता कर रहा है. इसलिए विज्ञान की जो क्षमता आपके हाथ में आयी है, उससे सबका भला करें. बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की आप चिंता करे. आपके पास ताकत है, धन-समृद्धि है, क्षमता है, तो सबका हित सोचे. अगर आपके जीवन में अध्यात्म है, तो आपको सबका भला सोचना चाहिए. अंतिम उपाय तो यही है.
ध्यान, मौन, समर्पण. समान्य दृष्टि से इन क्रियाओं का क्या महत्व है? क्या ये सामान्य लोगों के लिए भी उपयोगी हैं?
ये क्रियाएं तो सभी के लिए उपयोगी हैं. यहां पर मुझे ‘सामान्य’ शब्द से आपत्ति है. अध्यात्म की दृष्टि से देखा जाये, तो सभी सामान्य हैं. विशिष्ट नहीं है. लेकिन जब हम उससे विशिष्टता को खींचते हैं, तब क्या होता है? भोजन हमारी आवश्यकता है. हमें भोजन चाहिए. लेकिन इस भोजन के आधार पर आज समाज में कितनी असमानताएं हैं, देख लीजिए. केले के पत्तल पर साग-भात खानेवाला और फाइव स्टार होटल में बैठ कर खानेवाला देखिए. भोजन की आज विशिष्टता देखिए? लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि आज उस होटल में ऐसा खाना खाया या उस शेफ ने ऐसा खाना बनाया. छोटी-सी चीज भी विशिष्ट बन जाती है. इसलिए अध्यात्म के जो डाइमेंशन हैं, वह भी विशिष्ट बन जाते हैं. कैसे? ध्यान भी समझिए कि एक विशिष्टता है. ये ध्यान लगाते हैं. ये समाधि लेते हैं. यह कौन-सी बड़ी बात है? मैं कहता हूं कि अगर आपका चित्त शांत रहता है, तो ध्यान है. ध्यान करने की चीज नहीं होती है. शास्त्रों में भी कहा गया है कि ध्यान नहीं, धारणा की जाती है. यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा- ये छह चीजें की जाती हैं. ध्यान-समाधि अपने आप होता है. करने की प्रक्रिया से नहीं होता. यह सही है कि आप एक पद्धति में विश्वास करते हैं, तो उसका आप अनुसरण करते हैं. आप भगवान में विश्वास करते हैं, तो आप भगवान का स्मरण करते हैं. बाकी ध्यान, मौन स्वत: उतरता है. पहले चित्त बड़ा चंचल हुआ करता था, अब शांत रहता है. ध्यान हो गया. मौन एक लक्ष्य बना कर करने की बात नहीं है. लक्ष्य बना कर करनेवाली बात है, खुद को जानना. ‘मैं कौन हूं’ को जानना. मैं अपने को जानूंगा, यह बात हो सकती है. मैं ईश्वर को जानूंगा, यह बात हो सकती है. सृष्टि किसने बनायी, यह समझने की मैं कोशिश कर सकता हूं. लेकिन ध्यान चाहिए, यह तो बेकार बात है. ध्यान तो एक वैज्ञानिक भी कर लेता है. वह एक ही चीज लेकर एकांत में सोचता है, तो ध्यान करता है. ध्यान हो या आंतरिक मौन हो, वह सहज ही सधता है, अगर आपकी वृत्तियां नियंत्रण में हैं. पहले बहुत विचार उठते थे, अब अपेक्षाकृत कम उठते हैं. आप भगवान का स्मरण कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं, तो आपके चित्त में उठनेवाली वृत्तियों की कमी होनी लगती है. अपेक्षाकृत एक मौन सधता है. ध्यान सधता है. ध्यान हो या मौन हो यह करने की बात नहीं होती. ये स्वत: सधते हैं. लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि बचपन से ही इन चीजों की शिक्षा होनी चाहिए. बच्चों को बताया जाना चाहिए, उनके संस्कार में ध्यान की, मौन की बात देनी चाहिए. जिससे उनके पास वो क्षमता हो कि भौतिक समृद्धि के आकर्षण को वह संभाल सकें. उनके पास ज्ञान हो, जिससे वे भौतिक समृद्धि को झेल सकें. आज ऐसा नहीं कर पाते हैं. उसके सामने समर्पित हो जाते हैं. जैसे एक लड़का सोचता है कि अब हम भी एमबीए करेंगे. क्यों? सुनते हैं इसको करने से बहुत रुपया-पैसा कमाया जाता है? चला गया एमबीए करने. सवाल है कि उसका असर नहीं पड़ेगा. ऐसा नहीं है, असर पड़ता है. अगर आपके पास क्षमता नहीं है संभालने की और आपके पास दस लाख रुपया है, तो असर पड़ेगा. चित्त चंचल होगा. बेचैन होगा. बाजार में जाने से इच्छा होगी कि यह कर लें, वह कर लें. तरह-तरह की वासनाएं पैदा होंगी. उदाहरण देकर समझा रहा हूं कि अगर आपके पास वह ज्ञान नहीं है, जिसके आधार पर आप अपने चित्त को इस लायक बना सकें कि उन आकर्षणों को, उस वैभव को आप संभाल सकें, तो समस्याएं होंगी. हजारों वर्ष लग गये हरित क्रांति के विकास में. सबसे अधिक उसी में समय लगा. भोजन का उपाय करने में. औद्योगिक क्रांति में भी तीन सौ वर्ष लगे. अब जो चेतना की क्रांति का दौर है, उसमें सौ भी नहीं, महज पांच-दस वर्षों में सब काम खत्म हो जायेगा. यह विज्ञान का विकास है, जो इसकी ताकत-शक्ति है, वह चाहे संहारक हो या निर्माण की शक्ति हो, वह हमारे सामने खड़ी है. इसको हम संभाल नहीं पा रहे हैं, यह भी हमारे सामने खड़ी है. हर कोई चाहता है कि मैं भारत का प्रधानमंत्री बन जाऊं. हर दल के राजनीतिज्ञ यही चाहते हैं. कौन नहीं चाहेगा प्रधानमंत्री बनना? प्रधानमंत्री के पास पावर है, इसलिए लोग शक्तिशाली होना चाहते हैं. दरअसल लोग प्रधानमंत्री नहीं, शक्तिशाली बनना चाहते हैं. चाहते हैं कि हमारे भी आगे-पीछे लोग घूमें. यह तो स्वभाविक तौर पर सबको अच्छा लगेगा. हरियाणा के एक कांग्रेसी सांसद ने कहा भी, हम तो सौ करोड़ में एमपी बन जाते हैं. हमने बीस करोड़ बचा भी लिया. 80 करोड़ में ही काम हो गया. आप यह सोचिए कि ऐसे लोग राज्यसभा में जायेंगे, तो क्या देश के लिए सोचेंगे? उनकी पहली प्राथमिकता होगी कि जो सौ करोड़ खर्च किया था, वह निकल जाये. सही बात कही उसने. यह धन, वैभव, संपत्ति, शक्ति सब आपके सामने हैं, साथ ही यह भी आपके सामने है कि हम इसे हैंडल करना नहीं जानते?
आज समाज किधर जाता हुआ दिखायी दे रहा है?
एनार्की (अराजकता) की ओर. हाल की ही बंगाल की घटना है. मालदा की घटना है कि वहां चार बड़े हाट लूट लिये गये. महंगाई इतनी है, क्या करेंगे? पेट पर आन पड़ेगी, तो भूखा व्यक्ति कहां जायेगा? क्या करेगा? आज लड़कियों-महिलाओं के साथ अन्याय होगा, तो क्या होगा? दिल्ली में बहुत सख्त कानून बनाने से क्या असर पड़ा? बल्कि महिलाओं के साथ अपराध की रफ्तार और तेज हो गयी. मुंबई जैसे शहर में इस तरह की घटनाओं में बहुत वृद्धि हुई है. इसलिए यह बात आपकी आंखों के सामने है, सच है, मैं कोई इललॉजिकल बात नहीं कह रहा हूं. यही फैक्ट्स हैं. हम साफ देख रहे हैं कि एक तरफ इंतनी संपत्ति, भोग, पावर है और दूसरी तरफ हम तुच्छ साबित हो रहे हैं. बहुत छोटे. हम किसी की भलाई के लिए नहीं सोच पा रह रहे हैं. भगवान ने आपको ताकत दी है, तो सभी की सेवा कीजिए. सबका भला कीजिए. हमारे यहां के धार्मिक चित्र देखिए. लक्ष्मी जी, विष्णुजी का पैर दबा रही है. शेषनाग पर भगवान सोये हुए हैं और लक्ष्मी जी उनकी सेवा कर रही हैं. इसलिए हमारी परंपरा कहती है कि धन जो है, वो सेवा करने के लिए है. अपना काम चल जाये, उतना रख लीजिए. यह बात आपकी आंखों के सामने है कि बिना अध्यात्म के काम नहीं हो सकता. ध्यान, मौन सब बेच दिया गया है. अब तीन-चार हजार के पैकेज में बेचा जा रहा है. पात्र-अपात्र का कोई विचार नहीं है. आपके पास रुपये हैं, तो आप पैकेज खरीद कर किसी से सीख लीजिए, बस हो गया. इसमें वह बात नहीं होनी चाहिए कि इसे व्यवसाय में उतार दें. बच्चों में परंपरा के अनुसार उन्हें इसका संस्कार देना चाहिए. किसी संगठन के अनुसार नहीं. परंपरा के अनुसार वह प्रक्रियाएं उन्हें देनी चाहिए, जिससे वे सक्षम हो सकें, ताकि आकर्षण-विकर्षण, लोभ वगैरह को संभाल सके.
मनुष्य की चेतना का विस्तार कहां तक है और इसका क्या माध्यम है?
हम लोग तो शिव के शासन में रहते हैं और शिव को पशुपतिनाथ कहा गया है. चेतना मनुष्य की नहीं है. चेतना सब की है. वह वृक्षों में भी है, पशुओं में भी और मनुष्यों में भी है. मनुष्य क्या करता है कि अपने अहंकार के कारण उस चेतना को अपने तक सीमित या मनुष्यों में सीमित होते हुए देखता है. चेतना का विस्तार तो ब्रह्मांडव्यापी है. इस चेतना में सबकुछ समाया हुआ है. सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, ब्रह्मांड सब इस चेतना में समाये हुए हैं. चेतना और शक्ति, एक ही सत्ता से दो विभाजन हुए. एक तरफ शक्ति निकली और दूसरी तरफ चेतना. फिर दोनों ने मिल कर जीवन बनाया. यह जो शक्ति का एक लेख मैंने आपको पढ़ने के लिए दिया था कि साइंस अब प्राइमेसी आफ कान्ससनेस (चेतना की प्रधानता) की तरफ जा रहा है. अध्यात्म जो पहले से प्राइमेसी आफ कान्ससनेस (चेतना से ऊपर) पर था, वह कहां जायेगा? जहां से शक्ति और चेतना दोनों निकले, उस स्रोत में जायेगा. शक्ति और चेतना, एक ही सत्ता के दो अंग निकले. फिर दोनों ने मिलकर जीवन बनाया. जैसे पानी में बिजली है, तो क्या पानी में प्लग लगाने से पंखा चलेगा? नहीं न! तब क्या करते हैं, पानी को तोड़ते हैं. नेगेटिव एक तरफ और पाजिटिव आयन एक तरफ जाते हैं, फिर जब दोनों को मिलाते हैं, तब बत्ती जलती है. पंखा चलता है. उसी तरह एक ही सत्ता से शक्ति और चेतना दोनों निकले. दोनों का होना आवश्यक है. वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये, जगत: पितरौ वन्दे पार्वती-परमेश्वरौ (रघुवंश, कालिदास) शक्ति के बिना चेतना ताकतविहीन है. वह कुछ नहीं कर सकती. चेतना के बिना शक्ति का कोई डायरेक्शन नहीं है. उसे कोई दिशा नहीं मिलेगा. इसलिए दोनों का होना आवश्यक है. चेतना का भी और शक्ति का भी. जिस तरह वह शक्ति सभी चीजों में व्याप्त हो गयी. शक्ति के बिना कुछ नहीं हो सकता, पतंगा भी नहीं उड़ सकता. पेड़ों में भी शक्ति है, तभी तो फूल खिलते हैं. बाबूजी कहते थे कि जिसे विज्ञान प्रूव (साबित) कर रहा है कि इनआरगेनिक की इच्छा होती है आरगेनिक होने की और आरगेनिक जो होता है, उसकी इच्छा होती है कि हम जीवन में बदल जायें. पत्थरों में भी चेतना बहुत ही कम अंश है. उस किनारे तक विज्ञान भी पहुंच रहा है. इसलिए चेतना का विस्तार अनंत है. उसमें सब कुछ समाया हुआ है. इसलिए उस अनंत विस्तार वाले चेतना से परिचय करना अत्यंत आवश्यक होता है. उसका अनुभव प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक होता है. क्यों? नहीं तो संकीर्णता के घेरे में आप, अपनी और वो, उनकी घेरे में लोग रह जाते हैं. जैसे हम इंटरनेट से जुड़ते हैं, तो संसार भर का ज्ञान हमें सहज उपलब्ध हो जाता है. वैसे ही उस अनंत चेतना से जब हम जुड़ते हैं, तब यह अनुभव आता है कि चेतना का विस्तार अनंत है. हम उसमें खो जाते हैं. उसकी आइडेंटिटी में खो जाते हैं. यह अनुभव बहुत यूनिक है.
आज पूरी दुनिया आर्थिक सोच से प्रभावित और संचालित है. इसलिए आज भारत में भी बहस चल रही है कि चरित्र, नैतिकता या ऐसी चीजों के पार फोकस का होना जरूरी है या नहीं? अभी जो बहस हो रही है, उसमें नैतिकता और चरित्र पर बहस नहीं हो रही है. समृद्धि चाहिए? यह मुख्य चिंता है?
असल में चारित्रिक या नैतिक शिक्षा देने की आवश्यकता आपको तब पड़ती है, जब गिरावट शुरू हो जाती है. जब समाज का स्तर गिरने लगता है, तब उसे बताना पड़ता है. किसी बड़े को प्रणाम करने के लिए जब आपको अपने बेटे को बताना पड़ता है, तब उस बच्चे को आपके द्वारा दी गयी शिक्षा में अभाव दिखायी पड़ता है. आपको ये चीजें उसे सिखानी क्यों पड़ रही हैं? ये बताना क्यों पड़ रहा है? इसलिए क्योंकि उसमें गिरावट दिखायी दे रही है. वह सहज ही होना चाहिए. वह सहजता जा चुकी है. अब वह सिखाना पड़ रहा है. यह सहजता कैसे थी? यह माताओं के कारण था. यह जो चरित्र था, जो नैतिकता थी, इथिक्स था, उसका आधार माताओं से था. मां अपने बेटे को सिखाती थी, बचपन में. इसलिए यह सब उस बच्चे में सहज था. जैसे मां अपने बच्चे को दूध पिलाती है या खाना खिलाती है और सबकुछ करती है. वह मां आज क्या सिखाती है? आज से हजारों वर्षों पहले क्या सिखाती थी? इन दोनों प्रश्नों के जवाब में ही आपका उत्तर है. एक बार महर्षि कपिल अपनी मां से कहते हैं कि मैं तपस्या करने जाऊंगा. उनके पिता नहीं थे. कपिल की मां कहती हैं कि मुझे कौन देखेगा? तब कपिल अपनी मां से कहते हैं कि आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं आपके लिए ही ज्ञान प्राप्त करने जा रहा हूं. कपिल साधना करते हैं. मां उनके जाने के लिए तुरंत तैयार हो जाती हैं. ऐसा नहीं कहती हैं कि जाओ खेती करो. कुछ धन वगैरह कमाओ. कपिल को जब ज्ञान होता है, तो वह पहले अपनी मां को आकर उपदेश देते हैं. वह सांख्य दर्शन के जन्मदाता हैं. बहुत कम लोग जानते हैं कि सांख्य फिलासफी पहले कपिल ने अपनी मां से कहा था. हमारे यहां छह दर्शन हैं, उसमें से एक सांख्य दर्शन है. उसके जन्मदाता कपिल हैं. यह सीखने की नौबत क्यों पड़ती है? अब तो न स्कूल में सिखायी जाती है, न कॉलेज में और न घर में. अगर घर में आप सिखाते भी हैं, तो कॉलेज वगैरह के वातावरण में कुछेक वर्षों में ही वह समाप्त हो जाता है. असर पड़ता है. इसमें उस लड़के का दोष नहीं है. समाज में ऐसा माहौल बन गया है कि मां के द्वारा सिखायी गयी अच्छी-अच्छी बातें खो जाती हैं. पिताजी की बातें धीरे-धीरे कमजोर होने लगती हैं. इसलिए ये चरित्र, नैतिकता, इथिक्स, मोरालिटी अलग से सिखाने की चीज नहीं है, यह जीवन के संस्कार में है. एक संस्कृति का आधार है. उस संस्कृति के आधार में यह सारी बातें थीं. कैसे उठना है? क्या बोलना है? क्या करना है? पहले बताया जाता था कि कैसे बोलना है? क्या बोलना है? एक बात समझने की जरूरत है कि हम धीरे-धीरे बहुत एक्सेंट्रिक हो गये हैं. पागल हो चुके हैं. आज समाज पागल हो गया है. इस समाज ने एक चीज को बहुत पावर दे दिया है. इसलिए अन्य चीजें दब गयी हैं. धूमिल हो गयी हैं. छोटी पड़ गयी हैं. उस एक चीज संपत्ति, सुख, वैभव भोग को इतना महत्व दिया है कि वही सब कुछ है. एक लड़का पैसा कमाना चाहता है. इसमें कोई हर्ज नहीं है. अपना कमायेगा, तो खायेगा-पहनेगा. इसमें कोई हर्ज नहीं है. क्या जीवन में इसके अलावा और कुछ नहीं बचा? वैज्ञानिक लोग कह रहे हैं कि आज के जमाने में आइक्यू बहुत ज्यादा है, इक्यू नहीं है. एसक्यू(स्पिरिचुअल कोसेंट) तो और भी कम. क्राइसिस (संकट) को हैंडल नहीं कर सकता. निजी जीवन में भी क्राइसिस आया, तो वह गिर जाता है. क्यों नहीं संभाल सकता? क्योंकि जीवन में गहराई नहीं है. चेतना में विस्तार होना चाहिए और गहराई भी होनी चाहिए. खाली विस्तार से काम नहीं चलेगा, उसमें गहराई भी होनी चाहिए. अगर गहराई नहीं होगी, तो एक हल्का हवा का झोंका भी उसे उड़ा कर ले जायेगा. हल्का सा आकर्षण भी उसे अपनी ओर खींच लेगा. इसलिए गहराई भी चाहिए और चेतना का विस्तार भी चाहिए. नहीं तो आदमी संकीर्ण हो जायेगा. इसलिए चरित्र या नैतिकता, शिक्षा के अंश थे, जो मां की गोद से शुरू होते थे और गुरु की गोद में खत्म होते थे. यह एक बहुत बड़े पैकेज का अंश है. इसमें बहुत लोग इंवॉल्व्ड (शामिल) हैं. मां है, चाचा, मामा, फूफा है. पास-पड़ोस है, स्कूल-कालेज के लोग हैं. तरह-तरह के लोग हैं. यह पूरा पैकेज आज डिस्ट्रायड (नष्ट) है. इसका चरित्र, इसकी प्रकृति. अब इस पैकेज में एक ही चीज है कि येन, केन, प्रकारेण आपको कोई बढ़िया जॉब मिल जाये. बस वही चाहिए. अब लोग भगवान के रास्ते पर भी इसलिए चलते हैं. अब तो कथा पढ़ने-सिखाने के लिए कोचिंग संस्थान हैं. यह भी एक प्रोफेशन है. सबकुछ सिर्फ धन कमाने के लिए कर रहे हैं. आपने एक पागलपन किया. एक ही चीज को इतना महत्व दिया कि वही सबकुछ होकर रह गया. ऐसा नहीं है कि इसमें अपवाद नहीं है. लेकिन वह बहुत कम है. मेरी बात कोई क्यों सुनेगा. मैं ऐसा पेड़ हूं, जिसमें कोई फल नहीं है. आप इस बात को देखिए कि हमने एक केंद्र बना दिया. भगवान बुद्ध भी कहते हैं कि दोनों अंतों का त्याग करो. एकदम संसार में डूब जाओं, वह भी ठीक नहीं और एकदम भगवान छोड़ दो, यह भी ठीक नहीं. इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग का जन्म दिया. इस में अनाथपिंडक की कहानी है. हमारे जीवन के आधार में धन-भोग नायक चीज हैं. इसलिए यह पागल ही बनायेगी. नये आविष्कारों का ख्याल करते हुए शिक्षा-संस्कृति के पैकेज को हमें एक नये सिरे से खड़ा करना होगा. मां की गोद से लेकर गुरु की गोद तक. तब जीवन में एक संस्कार, संस्कृति का आधार बनेगा और एक स्वस्थ समाज जन्म लेगा.
एक दौर था, जब महर्षि अरविंद, रमण महर्षि या उनके जैसे हिमालय से लेकर अन्य जगहों पर बहुत बड़े लोग थे. आज कोई नहीं दिखता. इसकी क्या वजह लगती है? ऐसे लोग होते थे, तो उनकी क्या विलक्षणता थी?
एक खास परिवेश में ही कुछ खास किस्म के पेड़-पौधे होते हैं. उस खास माहौल में ही उस तरह के लोग आते हैं, धरती पर. चाहे वह रमण महर्षि हो, रामकृष्ण परमहंस हो या महर्षि अरविंद हो. ऐसे लोग एक खास परिवेश में आते हैं. एक खास काम करने आते हैं. आज उनके लायक माहौल नहीं है. समाज में इस तरह के लोग कहीं दुबक कर बैठे हुए हैं. यह जो पागलपन है, उसके खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. आप इस बात को देखिए कि आपके सामने जो भी बातें हो रही है, वो इसलिए हो रही हैं कि एक-दूसरे का फिजिकल ब्लो नहीं शुरू हुआ है. अब कांग्रेस वाले, बीजेपी को मारे या बीजेपी वाले कांग्रेस को मारे उस तरफ हम नहीं जा रहे हैं. फिलहाल गाली-गलौज की स्थिति आ गयी है. एक केंद्रीय मंत्री कहते हैं कि लोग दाल-सब्जी खाने लगे हैं, इसलिए महंगाई है. यह पागलपन है. किसी को होशोहवास नहीं है. जो मन में आ रहा है, बोल दे रहा है. आज बाजार की लूट हो, गैंग रेप की बात हो, भ्रष्टाचार की बात हो, चाहे कोई भी बात हो, जिस क्षेत्र में देखिए, उसी क्षेत्र में पागलपन दिखता है. रमण महर्षि या रामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुष जरूर आयेंगे. हां, अभी नहीं हैं, लेकिन उनको आना होगा. वे कब तक आयेंगे, यह समय बताना मुश्किल है. महापुरुष या भगवान, कर्म के माध्यम से ही अपना परिचय देते हैं. महान कर्म करने-कराने वाले बाद में महापुरुष कहलाते हैं. विश्व-व्यापी मानव-समाज में युगांतकारी परिवर्तन लाने के लिए भगवान को, महापुरुषों को कर्मभूमि में उतरना ही होगा. महान शक्ति के साथ उतरना होगा.