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हास-परिहास, आमोद-प्रमोद के लिए विख्यात पर्व टुसु

* …गंगासागर एक बार मकर संक्रांति उन गिने-चुने अवसरों में से एक है, जब पूरे देश में एकसाथ पर्व-त्योहार अलग-अलग नाम से मनाये जाते हैं. बिहार, झारखंड, बंगाल में संक्रांति, उत्तर प्रदेश में खिचड़ी, पंजाब में लोहिड़ी, असम में बिहू, तो दक्षिण भारत में पोंगल की धूम रहती है. झारखंड के कई इलाकों में टुसु […]

* …गंगासागर एक बार

मकर संक्रांति उन गिने-चुने अवसरों में से एक है, जब पूरे देश में एकसाथ पर्व-त्योहार अलग-अलग नाम से मनाये जाते हैं. बिहार, झारखंड, बंगाल में संक्रांति, उत्तर प्रदेश में खिचड़ी, पंजाब में लोहिड़ी, असम में बिहू, तो दक्षिण भारत में पोंगल की धूम रहती है. झारखंड के कई इलाकों में टुसु व सोहराय पर्व का उत्साह चरम पर होता है. हमारा देश कृषि-प्रधान रहा है. फसलों के पकने पर दीपावली तथा होली पर्व मनाये जाते हैं. वहीं मकर संक्रांति के अवसर पर रबी की फसल को लहलहाता देख लोग उत्सवमय हो जाते हैं. धार्मिक महत्व के साथ-साथ मकर संक्रांति का लोक पक्ष भी बहुत सशक्त है.

।। श्री तारकब्रह्म दास ब्रह्मचारी ।।

पूरे वर्ष में केवल एक दिन मकर संक्रांति के दिन ही गंगासागर में पुण्य महास्नान की परंपरा है. संभवत: इसीलिए कहा जाता है सारे तीर्थ बार-बार, गंगासागर एक बार. इस दिन गंगासागर महा-तीर्थस्थल में बदल जाता है. देश के कोने-कोने से विविध परंपराओं, भाषाओं, संस्कारों व संप्रदायों के लोग गंगासागर पहुंचते हैं. इनमें बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के श्रद्धालुओं के साथ-साथ देश के सुदूर पश्चिम में स्थित राजस्थान व गुजरात के लोग भी शामिल होते हैं.

झुंड में चल रहे गृहस्थों के अलग विभिन्न परंपराओं व संप्रदायों के साधुओं, संन्यासियों का जत्था भी होता है. इनमें मोबाइल बाबा, होंडा बाबा, लक्खड़ बाबा से लेकर नागा बाबाओं का झुंड शामिल होता है, जिनके अलग-अलग अनुशासन और अलग-अलग पंत होते हैं, लेकिन विविध-विविध स्वरूप, रंग-रूप, भाषा और विश्वास के बावजूद सभी का एक ही उद्देश्य होता है. वह उद्देश्य होता है पतित पावनी गंगा के सागर में मिलन स्थल का संगम स्थल मोक्षदायिनी गंगासागर में पुण्य स्नान करना.

गंगासागर प्राचीन काल से ही कपिल मुनि के साधना स्थल के रूप में भी विख्यात है. कपिल मुनि आश्रम एवं गंगासागर तीर्थ स्थल को संन्यासियों व धार्मिक आस्था के लोगों के लिए महापीठ माना गया है. इस स्थल पर ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्मीभूत हुए थे. बाद में राजा भगीरथ ने अपने पुरखों के उद्धार के लिए कठोर तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर मां गंगा उनके पीछे-पीछे धरती पर अवतरित हुईं और मां गंगा के निर्मल जल से सगर के साठ हजार पुत्रों को मुक्ति मिली.

शास्त्रों में उल्लेख है कि गंगा देवी चतुर्दश भुवन को पवित्र कर सकती हैं. गंगा सभी तीर्थों की जननी हैं. सभी तीर्थ स्नान और तीर्थ स्थल भ्रमण से जो पुण्य लाभ प्राप्त होता है. वे सभी लाभ एक मात्र गंगासागर स्नान से ही प्राप्त हो जाता है. गंगासागर द्वीप का प्रधान आकर्षण महर्षि कपिल मुनि का मंदिर है. हालांकि कपिल मुनि आश्रम का जिक्र विभिन्न ऐतिहासिक व पौराणिक ग्रंथों में मिलता है, लेकिन 1973 में समुद्र से एक किमी दूर मंदिर के सेवायत श्रीमद पंच रामानंदी निर्वाणी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी, अयोध्या के महंतों द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया गया है.

मंदिर में 6 शिलाओं पर छह मूर्तियां हैं. ये मूर्तियां लक्ष्मी, घोड़े को पकड़े राजा इंद्र, गंगा, कपिल मुनि, राजा सगर और हनुमान जी की हैं, हालांकि फिलहाल मंदिर का जीर्णोद्धार का काम चल रहा है. मकर संक्रांति पर सूर्य की पूजा-अर्चना की जाती है. यह शताब्दी का पहला व अंतिम संयोग भी है. इस दिन सूर्य की विधिवत आराधना सुख-समृद्धि के साथ पराक्र म में वृद्धि करेगा. गंगासागर स्नान का विशेष महत्व है. इस वर्ष कहीं कोई कुंभ नहीं है. फलत: लोगों की आस्था का केंद्र गंगासागर ही होगा. मान्यता है कि खुद मकर संक्रांति के दिन तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है.

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यंत शुभ माना गया है और यदि वह स्नान गंगासागर में किया जाये, तो उस स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है. इसी महा स्नान के लिए लंबी दूरी तक घंटों लंबी लाइन लगा कर श्रद्धालु गंगासागर में मकर संक्रांति के दिन पुण्य स्नान के लिए पहुंचते हैं. धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है. इस दिन शुद्ध घी एवं कंबल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है. यथा-

माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।

स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति।।

(लेखक इस्कॉन मायापुर में संन्यासी हैं)

* आज शाम 7.04 बजे से स्नान

इस वर्ष गंगासागर का पुण्य स्थान 14 जनवरी को शाम 7.04 बजे से शुरू हो रहा है. यह पुण्य स्नान का योग 15 जनवरी को 7.05 बजे तक रहेगा. इस तरह का संयोग 65 वर्षों के बाद बन रहा है. 15 जनवरी को सुबह चार बजे सबसे उत्तम योग माना जा रहा है. इसके साथ ही इस बार तारीख, वर्ष व तिथि तीनों का अंक 14 होगा, अर्थात इस दिन 14 तारीख के साथ ही वर्ष 2014 और तिथि चतुर्दशी का संयोग बन रहा है. ज्योतिषीय गणनाओं के हिसाब से इस संयोग को बेहद शुभ माना जा रहा है. पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि, मृगशिरा नक्षत्र में मकर संक्रांति मनायी जायेगी. इस बार इस पर्व पर तारीख, वर्ष व तिथि का अंक 14 होगा. 14 का मूलांक 5 है. अंक शास्त्र व वैदिक ज्योतिष शास्त्र के आधार पर मूलांक 5 सिंह राशि में आता है. जिसके स्वामी सूर्य हैं. इसके साथ ही चतुर्दशी तिथि भी सूर्य को समर्पित है.

* क्या है उत्तरायण और दक्षिणायन

मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरायण होना प्रारंभ होता है. सूर्य लगभग 30 दिन एक राशि में रहता है. 16 जुलाई को कर्क राशि में आकर सिंह ,कन्या, तुला, वृश्चिक और धनु राशि में छह माह रहता है. इस अवस्था को दक्षिणायन कहते हैं. इस काल में सूर्य कुछ निस्तेज तथा चंद्रमा प्रभावशाली रहता है और औषधियों एवं अन्न की उत्पत्ति में सहायक रहता है.

14 जनवरी को मकर राशि में आकर कुम्भ, मीन, मेष, वृष और मिथुन में छह माह रहता है. यह अवस्था उत्तरायण कहलाती है. इस काल में सूर्य की रश्मियां तेज हो जाती हैं जो रबी की फसल पकाने में सहायता करती हैं. उत्तरायण-काल में सूर्य के तेज से जलाशयों, नदियों और समुद्रों का जल वाष्प रूप में अंतरिक्ष में चला जाता है और दक्षिणायन काल में यही वाष्प-कण पुन: धरती पर वर्षा के रूप में बरसते हैं. यह क्रम अनवरत चलता रहता है.

* जानिए, क्या है तिल का महत्व

मकर संक्रांति के अवसर पर तिल से सूर्य की पूजा के संदर्भ में श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण में एक कथा का उल्लेख है. पुत्र शनि एवं अपनी दूसरी पत्नी छाया के शाप के कारण सूर्य भगवान को कुष्ठ रोग हो गया. किंतु पुत्र यमराज के प्रयत्न से उनका कुष्ठ रोग समाप्त हो गया. लेकिन सूर्यदेव ने क्रोधित होकर शनि के घर कुंभ (राशि) को जला कर राख कर दिया. इससे शनि और उनकी माता को कष्ट का सामना करना पड़ रहा था.

यमदेव ने अपनी सौतली माता और भाई शनि के कल्याण के लिए पिता सूर्य को काफी समझाया, तब जाकर सूर्य देव शनि के घर कुंभ में पहुंचे. वहां सब कुछ जला हुआ था. शनिदेव के पास तिल के अलावा कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने काले तिल से सूर्य की पूजा की. इससे प्रसन्न होकर सूर्य ने आशीर्वाद दिया कि शनि का दूसरा घर मकर राशि मेरे आने पर धन-धान्य से भर जायेगा. तिल के कारण ही शनि को उनका वैभव फिर से प्राप्त हुआ था इसलिए शनि देव को तिल प्रिय है.

इसी समय से मकर संक्रांति पर तिल से सूर्य एवं शनि की पूजा का नियम आरंभ हुआ. शिव रहस्य, ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण आदि में भी मकर संक्रांति पर तिल दान करने पर जोर दिया गया है. शनि को खुश करने के लिए काली उड़द की दाल भी दान की जाती है व खायी जाती है.

* वैज्ञानिक पक्ष : संक्रांति के दिन उड़द की खिचड़ी व तिल खाने का खास महत्व है. इस दिन से सूर्य की रश्मियां तीव्र होने लगती हैं जो शरीर में पाचक अग्नि उद्दीप्त करती हैं. उड़द की दाल व दही के रूप में प्रोटीन और चूड़ा व चावल के रूप में कार्बोहाइड्रेट जैसे पोषक तत्वों को अवशोषित करने के लिए यह समय अनुकूल होता है. गुड़ रक्तशोधन का कार्य करता है तथा तिल, मूंगफली शरीर में वसा की आपूर्ति करता है.

* हास-परिहास के रस में रचा टुसु

।। राजा राम महतो ।।

(कुरमाली भाषा परिषद के अध्यक्ष)

रत्नगर्भा झारखंड के सुरम्य, निर्जन और शांत, सघन वन ऋषि-मुनियों का तपस्थल रहे हैं. ऐसे मनमोहक स्थानों में विविध पर्व-त्योहार मनाये जाते हैं. इनमें टुसु पर्व की मादकता कुछ और ही है. हास-परिहास, आमोद-प्रमोद के लिए यह पर्व विख्यात है, जो झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, मिदनापुर व बांकुड़ा जिलों, ओड़िशा के क्योंझर, मयूरभंज, बारीपदा जिलों में मनाया जाता है. शीतकाल के इस उत्सव को पूरे पौष मास मनाया जाता है. अगहन संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति तक इसे अविवाहित कन्याओं के द्वारा टुसु पूजन के रूप में मनाया जाता है, जिसकी पूजा प्रतिदिन संध्या समय की जाती है.

अगहन संक्रांति के दिन ग्रामीण कन्याएं एक ताखे को गोबर से लीपने के उपरांत किसी शुद्ध मिट्टी के पात्र में चावल के आटे का गोलाकार पिंड तथा गोबर के गोलाकार पिंड रख कर तथा सिंदूर का टीका लगा कर टुसु की प्रतिमूर्ति बनाती हैं. इसी प्रतिमूर्ति के चतुर्दिक अरवा चावल के घोल की सजावट (रंगोली) बना दी जाती है. फिर धूप, दीप के साथ विविध पुष्पों से टुसु की पूजा की जाती है.

कहा जाता है जिस टुसु की प्रतिमूर्ति बनायी जाती है उनकी सेवा-भावना, प्रेम-भावना, शालीनता, विनयशीलता, मातृ-पितृ एवं कुटुंब प्रेम की भावना के अनुकरण के लिए ही ग्रामीण बालाएं उनकी पूजा की ओर लीन हो जाती हैं. पूजा के क्रम में बालाएं विभिन्न प्रकार के टुसु गीत गाती हैं. इसमें बालाओं की मां, चाची, फुआ, मौसी आदि भी सहयोग करती हैं. टुसु की प्रतिमूर्ति पर फूल-पत्ती के साथ सिंदूर टीका करते हुए दीपक की आरती की जाती है. इस अवसर पर तिल, सरसों तेल तथा गुड़ का पकवान बनता है जिसे पीठा कहा जाता है.

इस बीच बालाएं चंदा इकट्ठा कर लेती हैं और गांव के किसी अच्छे कागजी व लकड़ी कारीगर को टुसु की डोली बनाने के लिए दे देती हैं. इस डोली को चौड़ल कहते हैं. यह ताजिये जैसा होता है. डोली सन पौधे की हल्की छड़ी एवं जंगली तुलसी की सूखी लकड़ी के साथ सुथरी की रस्सी, धागा, मोर पंख तथा नाना प्रकार के जंगली पुष्पों की बनी होती है. परंतु आजकल चौड़ल को आकर्षक बनाने हेतु रंग-बिरंगे कागज के फूल तथा अनेक प्रकार की मालाओं से सजा कर एक छोटा मंदिर सा बनाया जाता है. मकर संक्रांति के पूर्व-दिन पुरुषों द्वारा बिना बाजी का मुर्गोत्सव मनाया जाता है जिसे बाउड़ी कहा जाता है. इस उत्सव से लौटने के उपरांत सारी रात लोग गाते- बजाते जागरण भी करते हैं. सुबह सभी ग्रामीण मकर स्नान करने हेतु नदी पहुंच जाते हैं.

स्नान के क्रम में गंगा माई का नाम लेकर मिठाई भी बहाते हैं. नये वस्त्रों को धारण कर दान-पुण्य करने के उपरांत वहीं पर दही, गुड़ तथा नाना प्रकार के पकवान का सेवन करते हैं और संध्या समय तक मेले का आनंद लेते हैं. तदुपरांत टुसु का विसर्जन गाजे-बाजे के साथ करते हैं.

मेले में गाये जानेवाले गीतों को हंसी-ठिठोली के रूप में लिया जाता है, परंतु टुसु से संबंधित गीतों में मार्मिक चिंतन की छाप मिलती है. इस पर्व को धूमधाम से मनाने के पीछे कई लोकोक्तियां कुरमाली साहित्य में हैं. टुसु एक गरीब कुरमी कृषक की अत्यंत सुंदर कन्या थी. धीरे-धीरे संपूर्ण राज्य में उसकी सुंदरता का बखान होने लगा.

तत्कालीन क्रूर राजा के दरबार में भी खबर फैल गयी. राजा को लोभ हो गया और कन्या को प्राप्त करने के लिए उसने षड्यंत्र रचना प्रारंभ किया. उस वर्ष राज्य में भीषण अकाल पड़ा था. किसान लगान देने की स्थिति में नहीं थे. इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए राजा ने कृषि कर दुगुना कर दिया तथा गरीब कृषकों से जबरन कर वसूली के लिए अपने सेनापति को राज्यादेश दे दिया. संपूर्ण राज्य के कृषक समुदाय में हाहाकार मच गया. टुसु ने कृषक समुदाय से एक संगठन खड़ा कर राजा के आदेश का विरोध करने का आह्वान किया.

राजा के सैनिकों और कृषक सेना में (टुसु के नेतृत्व में) भीषण युद्ध हुआ. हजारों किसान मारे गये. टुसु भी सैनिकों की गिरफ्त में आने वाली थी. उसने राजा के आगे घुटने टेकने के बजाय जल-समाधि लेकर शहीद हो जाने का फैसला किया तथा उफनती नदी में कूद गयी. टुसु की इस कुरबानी की याद में टुसु पर्व मनाते हैं तथा टुसु की प्रतिमा नदी में विसर्जित कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.

धनकटनी के पश्चात प्रत्येक परिवार में गजब का उत्साह रहता है. गरीब से गरीब परिवार भी इस पर्व के अवसर पर नये कपड़े की व्यवस्था करता है. इस पर्व की यह सामाजिक विशेषता है कि सभी धर्म-जाति के लोग आपसी बैर भाव भुला कर समूहों में गीत-नृत्य का आयोजन कई दिनों तक करते हैं. सामाजिक सद्भाव का यह अनुपम दृश्य इस त्योहार में देखने को मिलता है.

अगहन सांकराइत कर शुभ दिने

टुसुक थापना करोब गीत गाने।।

बांसेक टुपलाय यापना करी- साजाय हेतेइक फुल माहने,

नित-नित सांझेक बेराय- संझा दिहोक खुश मने।।

आगहन सांकराइत कर शुभ दिने

टुसुक थापना करोब गीत गाने।।

टुसूके नित भोग देबिहोक – बेश बेश आर मिष्ठाने,

मास भइर टुसु कर पूजा- खुशी सउब जने-जने।।

आगहन सांकराइत कर शुभ दिने

टुसुक थापना करोब गीत गाने।।

टुसुकर गुणोगान टा-मने पड़ेइक जीवने

सारा दिनो टुसू गीते- मातल आहे देवेने।।

आगहन सांकराइत कर शुभ दिने

टुसुक थापना करोब गीत गाने।।

(देवेंद्रनाथ महतो, बारेंदा, सोनाहातू, रांची)

* पांच दिनों तक संतालों का उत्सव सोहराय

।। कैलाश केशरी ।।

संताल परगना के आदिवासी विभिन्न मौसमों में भिन्न-भिन्न पर्व-त्योहार मनाते हैं. इनमें बाहा एवं सोहराय संतालों के सबसे महत्वपूर्ण पर्व माने जाते हैं. संताल परगना में बाहा पर्व वसंत ऋतु में तथा सोहराय जनवरी माह के द्वितीय सप्ताह में बड़े ही धूम-धाम के साथ संतालों द्वारा मनाया जाता है. सोहराय का समापन मकर संक्रांति के दिन होता है.

आदिकाल में यहां की संताल जनजाति के लोग सोहराय पर्व दीपावली के अवसर पर मनाते थे. परंतु धीरे-धीरे इसका समय बदलता गया और इस तरह आजकल सोहराय प्रत्येक वर्ष अंग्रेजी नये साल के आगमन के बाद फसल (धान) कट कर घर में पहुंचने के पश्चात मनाया जाता है.

इस अवसर पर देवी-देवताओं, पितरों तथ गोधन को संतुष्ट करने के अतिरिक्त सगे-संबंधियों को सम्मानित भी किया जाता है. यह पर्व पांच दिनों तक मनाया जाता है. प्रथम दिन स्नान के बाद गोद टांडी (बथान) में जाहेर एरा का आह्वान किया जाता है. फिर मुर्गे की बलि देकर सिर-दर्द, पेट-दर्द एवं झगड़ों से मुक्ति के लिए समुदाय के सभी लोग प्रार्थना करते हैं. इसके अतिरिक्त वे लोग इस दिन अपनी परंपरागत मदिरा (ताड़ी, हंड़िया एवं पोचय) का जम कर पान करते हैं. और, तब आरंभ होता है नृत्य-संगीत का सिलसिला जो प्रथम दिन से पांचवें दिन तक थमने का नाम नहीं लेता है.

घर की बेटियां अपनी मां से मिन्नत करके पांच दिनों तक घर के कार्यों से मुक्ति पाने के बाद मां द्वारा दी गयी नयी साड़ी एवं शृंगार से अलंकृत होकर सोहराय पर्व की पावन बेला के हर्षोल्लास में डूब जाती हैं. इस दिन आदिवासी युवक एवं युवतियां एक साथ नृत्य किया करते हैं. युवतियां मांदर की थाप पर कतारबद्ध होकर थिरकती हैं. इस प्रथम दिन की रात्रि में युवक-युवतियों का दल धूप-दीप, धान-चावल एवं दूर्वा घास लेकर गांव के प्रत्येक घर में गो-पूजन हेतु जाते हैं.

सोहराय के दूसरे दिन, गोहाल-पूजा होती है. जिसमें गोशाला को अच्छी तरह से साफ करके उसे खरी-माटी की अल्पना (रंगोली) से सजाया जाता है. गायों के पैर धोये जाते हैं. उनकी सींगो पर तेल एवं सिंदूर लगाया जाता है. पितरों तथा देवी-देवताओं को मुर्गे और सुअरों की बलि चढ़ायी जाती है. इस उपलक्ष्य में अन्य ग्रामों में विवाहित बेटियां भी अपने मायके आकर सोहराय पर्व का आनंद लेती हैं.

तीसरे दिन को खुटाब मांहा कहते हैं. यह दिन संतालों में आपसी सौहार्द का दिन होता है. इस दिन ये लोग आपस में गले मिलते हैं. संतालों का अपने मवेशियों यथा- बैल एवं भैस इत्यादि के संग खेलना, उछलना-कूदना एवं इनके साथ तरह-तरह के आश्चर्यजनक करतब दिखाना इन लोगों के लिए इस दिन महत्वपूर्ण माना जाता है. यह एक सदियों पुरानी परंपरा है, जिसे संताल आदिवासी आज भी निभाते है.

चौथे एवं पांचवें दिन को जाले-मांहा एवं चौड़ी-मांहा कहते हैं. पर्व के अंतिम दो दिनों में गांव के युवक-युवतियों का दल गांव-घर में घूम कर नाच-गा कर प्रत्येक घर से चावल, दाल, नमक, मसाले आदि इकट्ठा करते हैं और अंतिम पांचवें दिन जोन-मांझी की देख-रेख में उपर्युक्त चीजों की खिचड़ी पकती है और सभी ग्रामवासी एक साथ मिल कर भोज का आनंद लेते हैं. इस दिन हड़िया पी जाती है और इस प्रकार साल भर का पर्व सोहराय हर्षोल्लास के साथ संपन्न होता है.

(लेखक आदिवासी संस्कृति के अध्ययनार्थी हैं)

* पतंग के यादगार फिल्मी गीत

देश के कई इलाकों में मकर संक्रांति का मौका पतंगबाजी के लिए खास होता है. हिंदी सिनेमा में पतंग के कई गीत आये हैं. सन 1960 में आयी थी फिल्म पतंग. निर्देशक थे सूरज प्रकाश. माला सिन्हा, राजेंद्र कुमार और ओमप्रकाश जैसे कलाकार थे. गीत राजेंद्र कृष्ण ने लिखे थे और संगीत था चित्रगुप्त का. इसी फिल्म के इस गाने को हर साल मकर-संक्रांति पर याद किया जाता है, सुना जाता है वो है- ये दुनिया पतंग नित बदले ये रंग… कोई जाने ना उड़ाने वाला कौन है. इस गाने को ओमप्रकाश पर फिल्माया गया है. राजेंद्र कृष्ण ने यहां पतंग को बहुत ही अलग मायने दिये हैं और इस गाने को दार्शनिक रंग दे दिया है. ये अंतरा पढ़िए-

उड़े अकड़-अकड़ धनवालों की पतंग

सदा देखा है गरीब से ही पेंच लड़े

है ग़रूर का हुज़ूर सदा नीचा हुज़ुर

जो भी जितना उठाए उसे उतनी पड़े

किस बात का गुमान, भला करे इंसान

जब जाने ना बनानेवाला कौन है.

सन 1957 में फिल्म आयी थी भाभी. बलराज साहनी, नंदा और श्यामा जैसे कलाकार थे इसमें. एक बार फिर राजेंद्र कृष्ण के गीत और चित्रगुप्त का संगीत. इस फिल्म का सबसे लोकिप्रय गाना है- चल उड़ जा रे पंछी अब ये देस हुआ बेगाना. लेकिन मकर-संक्रांति के मौके पर भाभी का जो गीत सबसे ज्यादा सुना जाता है वो है- चली चली रे पतंग मेरी चली रे… चली बादलों के पार, होके डोर पे सवार सारी दुनिया ये देख-देख जली रे. इस गाने को जगदीप और नंदा पर फिल्माया गया है.

फिल्मिस्तान की फिल्म नागिन सन 1954 में आयी थी. निर्देशक थे नंदलाल जसवंतलाल. इसके बाद नाग-नागिन की कहानियों का जो सिलसिला शुरू हुआ वो आज तक जारी है. वैजयंतीमाला, प्रदीप कुमार और जीवन जैसे सितारे थे इस फिल्म में. संगीत हेमंत कुमार का था. और इस संगीत में हेमंत दा के मुख्य-सहायक थे रवि जो बाद में मशहूर संगीतकार बने. इस फिल्म के सभी गाने हिट हैं. इस फिल्म का पतंग-गीत ये रहा- अरी छोड़ दे सजनिया… छोड़ दे पतंग मेरी छोड़ दे.

(साभार : रेडियो वाणी ब्लॉग)

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