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आपदा से बचाव में लोगों का रवैया सबसे अहम

आपदाओं से बड़ी संख्या में लोग मरते हैं. इसको लेकर हमारी सोच कहां तक बदली है?देश में 2005 में आपदा प्रबंधन के लिए कानून बनने के बाद बड़ा बदलाव आया है. इससे पहले हम अंगरेजों के जमाने में 1883 में तैयार किये रिलीफ कोड के अनुरूप राहत सामग्री बांट देते थे. 2005 के बाद हमलोग […]

आपदाओं से बड़ी संख्या में लोग मरते हैं. इसको लेकर हमारी सोच कहां तक बदली है?
देश में 2005 में आपदा प्रबंधन के लिए कानून बनने के बाद बड़ा बदलाव आया है. इससे पहले हम अंगरेजों के जमाने में 1883 में तैयार किये रिलीफ कोड के अनुरूप राहत सामग्री बांट देते थे. 2005 के बाद हमलोग इस पर गंभीरता से बात करने लगे. केंद्रीय गृहमंत्रालयका आकलन है कि सिर्फ आपदा के कारण हर साल देश को जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का दो प्रतिशत नुकसान होता है. यह राशि 25 हजार करोड़ रुपये होती है.

प्रधानमंत्री
ने भी कहा है कि विकास के लिए आपदा से होने वाले नुकसान को रोकना जरूरी है. देश में आपदाओं के कारण हर साल चार हजार से ज्यादा लोग मरते हैं. इन प्रत्यक्ष नुकसान के अलावा अप्रत्यक्ष नुकसान कही बड़ा होता है. उदाहरण के लिए 2013 में केदरनाथ में आये तूफान को देखें. केदरनाथ में दोहरी क्षति हुई. सैकड़ों लोग मरे; उससे देश को बड़ी क्षति हुई. लेकिन एक और बड़ी क्षति हुई वहां के स्थानीय लोगों को. उनकी आजीविका केदरनाथ के धार्मिक महत्व के कारण बड़ी संख्या में लोगों के आने से चलती थी. ग्रामीण जीवन भी प्रभावित हुआ. वहां की सरकार कह रही है कि उसे दो साल में पूर्व की स्थिति में ला दिया जायेगा. पर, हजारों लोगों को इसका नुकसान हुआ. इसका आकलन करना सबसे मुश्किल काम है. डैमेज लॉस के आकलन पर पूरी दुनिया में काम हो रहा है. इसके लिए इसीएलएसी नामक एक टूल है. अब अपने देश में भी इस टूल को आपदा से होने वाले नुकसान का आकलन करने के लिए अपनाने पर काम हो रहा है.

2005 के आपदा प्रबंधन कानून में कहा गया है कि हमलोग आपदा में ऐसा काम करें, ताकि जानमाल की क्षति कम से कम हो. हम रिलिफ बांटने के मोड की बजाय पूर्व तैयारी करें. यानी रि एक्टिव मोड की जगह प्रो एक्टिव मोड में रहें. इससे बदलाव आ रहा है.

राज्य में हाथियों के शिकार लोग होते हैं. वज्रपात के कारण भी लोग मरते हैं. कैसे इसे कम करें?
वन का कटाव हो रहा है. इससे पारिस्थितिकी तंत्र जैव विविधता प्रभावित हो रही है. आदर्श सिद्धांत है कि एक तिहाई(33 प्रतिशत) हिस्से पर वन हो, झारखंड में यह 29 प्रतिशत हिस्से पर रह गया है. हम उसकी बसावट को नुकसान पहुंचायेंगे तो हमें नुकसान ङोलना होगा. इसलिए हमें वन आच्छादन बढ़ाना होगा.

पूर्व आपदा सूचना तंत्र बना लिया जाये और सूचना जारी कर दी जाये तो वज्रपात व अन्य मौसम जनित खतरे से बचा जा सकता है. आइएमडी (भारतीय मौसम विज्ञान विभाग) से डाप्लर रडार लगाने का आग्रह किया गया है. अगर उसे लगा दिया जायेगा तो राज्य में बताया जा सकता है कि कहां पर वज्रपात होने का खतरा है या और किस तरह का संकट है, इससे वैसी आपदाओं से बचाव किया जा सकता है. फिलहाल राज्य के पास यह सिस्टम नहीं है.

आपदाओं से हम कैसे निबटें?
मानव जनित आपदा का पूर्व प्रबंधन कर हम बचाव कर सकते हैं. भूकंप का भी खतरा है. हम यह कह सकते हैं कि मानव जनित आपदा भूकंप की तरह है, जिसके लिए पूर्व तैयारी होनी चाहिए. जैसे 2013 में फैलिन तूफान आया, पर उसका काफी कम नुकसान हुआ. हमने पूर्व में आकलन कर दिया कि पारदीप इलाके में इस गति से तूफान आयेगा और बचाव के उपाय किये, लोगों को खतरनाक इलाके से हटाया. अगर ऐसा नहीं होता तो बड़ा नुकसान होता. ध्यान रहे कि इंडोनेशिया के भूकंप के बाद 26 दिसंबर 2004 को आये सूनामी में हजारों लोगों की मौत सूचना प्रणाली के प्रभावी नहीं होने के कारण हो गयी थी.

प्राकृतिक व मानव जनित आपदाओं से अलग एक अलग तरह की आपदा होती है, जिसे साइलेंट डिजास्टर यानी मौन आपदा कह सकते हैं. यानी ऐसी आपदा के खतरे को हम जानते हैं, लेकिन फिर भी पूर्ववत स्थिति व मानसिकता में रहते हैं. धनबाद का झरिया इलाका ऐसा ही है. वहां साइलेंट डिजास्टर (मौन आपदा) का खतरा है. जमीन के नीचे 450 वर्ग किलोमीटर में आग लगी है. यह सुशुप्त ज्वालामुखी की तरह है. वह शहर कभी भी पूरी तरह से आग में समा सकता है. विदेश की टीम ने भी वहां लोगों को रहने से मना कर दिया. जबकि वहां विश्व की सबसे अच्छी गुणवत्ता का कोयला है. उससे निबटने के लिए वहां से लोगों को हटा कर जल्द से जल्द खनन को पूरा करना होगा. मैं तो कहूंगा कि झारखंड मानव जनित आपदा व प्राकृतिक आपदाओं का थियेटर है.

राज्य में काफी बारिश होती है, उसके बावजूद सूखा की समस्या यहां है. ऐसी आपदाओं पर आप क्या कहेंगे?
झारखंड के सामने बड़ी चुनौती आने वाली है. जलवायु परिवर्तन इसके लिए आग में घी डालने का काम कर रहा है. सुखाड़ का प्रकोप यहां है. बारिश के पानी का संरक्षण यहां काफी कम होता है. उसके संरक्षण की यहां जरूरत है. विश्व बैंक का कहना है कि तृतीय विश्व युद्ध पानी के लिए होगा. वैज्ञानिक कहते हैं कि पेड़ काटने से हाइड्रोलॉजिकल साइकल, हाइड्रो इनलॉजिकल साइकल में बदल जायेगा. इससे बचने का उपाय ढूंढना होगा. अंगरेजों ने अपने गजट में एक जगह उल्लेख किया है कि पलामू के लोग पहले ही आकलन कर लेते थे कि सुखाड़ आने वाला है. इसके लिए एक गीत प्रचलित है : सावन मास में पुरवाई बहे, बैल बेच लियो किनु गाय. यानी अगर सावन में पुरवा हवा बहे तो बैल बेच कर गाय खरीद लें, क्योंकि सूखा पड़ने वाला है और बैल की उपयोगिता नहीं रह जायेगी. गाय रहेगी तो कम से कम उसका दूध बेच कर गुजारा हो जायेगा.

झारखंड में 111 टीएमसी पानी हर साल बरसता है. अगर इसमें 55 टीएमसी पानी को भी हम सहेज लें, तो यहां कभी सुखाड़ नहीं होगा. पर, यहां न तो शहर में और न ही गांव में पानी के बचाव की तैयारी है. रिचार्ज पीट नहीं बना है. बड़े-बड़े अपार्टमेंट में भी यह व्यवस्था नहीं है. इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति के साथ काम करना होगा. हमें यह समझना होगा कि पानी का बचाव व उसके पुनर्चक्रण का प्रबंध करना एक नैतिक कार्य है.

भूकंप की भी चुनौती है. झारखंड में इस खतरे की कितनी आशंका है?
हमारे यहां भूकंप से बचाव की ठोस कार्ययोजना नहीं है. जापान में सात रिक्टर स्केल क्षमता का भूकंप आता है, तो भी बहुत बड़ी क्षति नहीं होती है, जबकि अपने देश में छह रिक्टर स्केल के भूकंप से बड़ा नुकसान हो जाता है. झारखंड के साहिबगंज, पाकुड़ गोड्डा जिले जो उत्तर बिहार(जोन पांच) से सटे हुए हैं, वहां भूकंप का खतरा है. वह क्षेत्र जोनचार में आता है. हालांकि भूकंप के लिए अलगअलग क्षेत्र को जोन में बांटने के बाद भी यह कहना मुश्किल है कि भूकंप किस क्षेत्र को कितना प्रभावित करेगा. यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक क्षेत्र जिसे भूकंप के कम खतरे वाले क्षेत्र में रखा गया है, वहां भूकंप से बड़ी क्षति नहीं हो सकती.

झारखंड खनिज संपदा से संपन्न राज्य है. यहां बड़ी मात्र में खनन कार्य होता है. खनन दुर्घटनाएं भी होती हैं. औद्योगिक त्रसदी का भी यहां खतरा है. कैसे इस खतरे को कम किया जा सकता है?
1958 से 2006 तक के उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि राज्य में खनन जनित दुर्घटना के कारण 662 लोग मारे गये. बहुत सारे मामले अज्ञात भी होते हैं. इस खतरे को कम करने के लिए डीजेएमएस (डायरेक्टर जनरल ऑफ माइनिंग सिक्यूरिटी) को टाइट होना होगा. झारखंड के चासनाला में 1975 में हुई खनन दुर्घटना में 375 लोग मरे थे. दुनिया की 10 बड़ी खनन दुर्घटना में इसका आठवां स्थान है.

दूसरी ओर झारखंड को औद्योगिक हादसे से बचने के लिए भी कड़ाई से सुरक्षा मानकों का पालन कराना जरूरी है. भोपाल में बड़ी औद्योगिक त्रसदी हुई थी. जो कंपनी वहां काम कर रही थी, उसने वही सुरक्षा मानक क्यों नहीं अपनाये जो वह अमेरिका में अपनाती है.

झारखंड में आपदा से बचाव के लिए और कौन-सी पहल होनी चाहिए?
झारखंड में 2010 में एसडीएमए (राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण) बना. जिलों में डीडीएमए (जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण) होते हैं. देश के स्तर पर ऐसे प्राधिकरण के अध्यक्ष प्रधानमंत्री, राज्य में मुख्यमंत्री जिलों में जिलाधिकारी होते हैं. झारखंड में इंस्टिटय़ूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट (आपदा प्रबंधन संस्थान) बनाने की जरूरत है. केंद्र सरकार के स्तर पर बहुत सारे काम हो रहे हैं.

आमलोग कैसे आपदा से बचें. उनकी कैसी सहभागिता हो?
आपदा से बचने या नुकसान कम करने के लिए पांच चीजें जरूरी हैं. पहला क्या करें, क्या नहीं करें, यह लोगों को बताया जाये. दूसरा पूर्व चेतावनी. तीसरा प्रशिक्षण क्षमतावर्धन. चौथा मॉक ड्रिल. पांचवां प्लानिंग यानी राज्य जिले का अपना डिजास्टर प्लान हो. अमेरिका में तो अब फैमिली डिजास्टर प्लान पर काम हो रहा है. हमारे यहां गांव के स्तर पर डिजास्टर प्लान तो बनना ही चाहिए. यानी गांव के दस युवकों को आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाये. आपदाओं से महिला बच्चों की ज्यादा मौत होती है. राहत कैंपों में महिलाओं के साथ र्दुव्यवहार भी होता है. इसलिए राहत चलाइए तो उसके लिए वर्ल्ड स्टैंडर्ड का पालन भी कीजिए. हमलोगों को समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन पर काम करना होगा. कभी गांव में डॉक्टर ले जाकर लोगों को प्रशिक्षण दिलायें कि आपदा आने पर कैसे वे प्राथमिक चिकित्सा करें.

लोगों का रवैया आपदा को लेकर कैसे बदले?
यह सबसे जरूरी चीज है. आपदा प्रबंधन का सिद्धांत कहता है कि आपदा से बचने में सबसे बड़ी भूमिका लोगों के रवैये की होती है. आपदा से बचने में लोगों के कौशल का योगदान 82 प्रतिशत, जानकारी का योगदान 96 प्रतिशत कठोर मेहनत का योगदान 98 प्रतिशत है. लेकिन उनके रवैये का योगदान 100 प्रतिशत होता है. इसलिए इसमें बदलाव सबसे अहम है.

आपलोग आपदा प्रबंधन से बचाव के लिए जो प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाते हैं, क्या उससे आम लोग जुड़ सकते हैं?
हां, बिल्कुल. हमलोग आपदा प्रबंधन के लिए पांच दिनों को प्रशिक्षण सत्र चलाते हैं. जिसमें प्रशासनिक अधिकारी, एनजीओ के लोग, पंचायती राज के सदस्य आदि आते हैं. इसमें आमलोग, युवा कॉलेज के छात्र भी शामिल हो सकते हैं. हम अपने प्रशिक्षण सत्र में जलवायु परिवर्तन, खनन, वज्रपात, सुखाड़ आदि के कारण आने वाली आपदा से बचाव के बारे में बताते हैं. स्कूल सेफ्टी के लिए भी डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान है. स्कूलों को भी ट्रेनिंग देते हैं.

एनजीओ व मीडिया की क्या भूमिका हो सकती है?
मीडिया की पहुंच बहुत ज्यादा है. वे आपदा से बचाव में महत्वपूर्ण टूल हो सकते हैं. वे नियमित रूप से लोगों को इस संबंध में जानकारियां देकर उन्हें जागरूक सावधान कर सकते हैं. एनजीओ वाले प्राथमिक चिकित्सा कर सकते हैं. नुक्कड़ नाटक के माध्यम से लोगों को जागरूक कर सकते हैं. पोस्टर बना कर लोगों को जानकारी दे सकते हैं. सुखाड़ से बचने के लिए बारिश के पानी के संचय के लिए लोगों को प्रेरित कर सकते हैं.

एसोसिएट प्रोफेसर
(आपदा प्रबंधन विभाग) एटीआइ, रांची

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