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आम आदमी के नाम एक खास वर्ष 2013

किसी राष्ट्र के इतिहास में एक साल का अंतराल ज्यादा बड़ा वक्फा नहीं होता, लेकिन कुछ वर्ष किसी राष्ट्र की यात्र में खास महत्व रखते हैं. 2013 जाते-जाते भारत के इतिहास में एक ऐसे ही वर्ष के तौर पर दर्ज होने की दावेदारी पेश कर रहा है. 2013 जब अपने पन्‍नों खोल रहा था, उस […]

किसी राष्ट्र के इतिहास में एक साल का अंतराल ज्यादा बड़ा वक्फा नहीं होता, लेकिन कुछ वर्ष किसी राष्ट्र की यात्र में खास महत्व रखते हैं. 2013 जाते-जाते भारत के इतिहास में एक ऐसे ही वर्ष के तौर पर दर्ज होने की दावेदारी पेश कर रहा है.

2013 जब अपने पन्‍नों खोल रहा था, उस समय घनघोर निराशा के बादलों के बीच उम्मीद की हल्की किरण भी जगमगा रही थी. 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में पारा मेडिकल छात्र के साथ हुए जघन्य सामूहिक दुष्कर्म ने जैसे राष्ट्र की सोयी हुई अंतरात्मा को झकझोर दिया था. दिल्ली के जंतर-मंतर पर ‘निर्भया’ को इंसाफ दिलाने के लिए लोग जिस स्वत: स्फूर्त ढंग से जमा हुए और कम से कम एक महीने तक वहीं डटे रहे, उसने हर किसी के मन में यह यकीन पैदा किया था कि अब इस जनता को वादों की मीठी गोलियों से भरमाया नहीं जा सकता.

जनता बदलाव चाहती है और इसके लिए ताकतवर सत्ता प्रतिष्ठान से लड़ने के लिए भी तैयार है. अब जबकि वर्ष 2013 अपनी डोरी समेट रहा है, हम देश की फिजां में बदलाव की इस चाहत को और गहरा होते देख रहे हैं. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत, वर्ष 2010 में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के पहले चरण के पूरा होने का संकेत कर रही है.

आम आदमी पार्टी की इस जीत ने राजनीति की परंपरागत मान्यताओं की जड़ें हिला दी है. हम मान बैठे थे कि देश की राजनीति बदली नहीं जा सकती. लोकतंत्र के भ्रष्टतंत्र में बदल जाने की हकीकत हमारे सामने थी, लेकिन हम बेबसी की बेड़ियों में बंधे थे. 2013 के समाप्त होते-होते ये बेड़ियां टूटती नजर आ रही हैं और यही इस वर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि है. थोड़ा ठहर कर अगर इस बदलाव के नायकों को याद करें, तो जेहन में पहला चेहरा आम आदमी का उभरता है.

यह आम आदमी ही है, जिसने इस साल साबित किया कि वह सिर्फ पत्थर नहीं है. उसने साबित किया कि आवाज में असर हो, तो वह पिघल भी सकता है. और जब ‘पत्थर’ पिघलते हैं, तो सब कुछ पर छा जाते हैं. ज्वालामुखी के लावे की तरह पूरे भू-दृश्य को बदल देते हैं. 2013 में हमने आम जनता के गुस्से के ज्वालामुखी को फूटते देखा है. किसी राष्ट्र के इतिहास में ऐसे मौके बार-बार, हर साल नहीं आते.

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