साल 2013 अलविदा होने को है. कहते हैं गुजरा हुआ वक्त लौट कर नहीं आता, पर बीतने के कगार पर खड़ा यह साल कुछ ऐसी घटनाएं देकर जा रहा है जिनका अक्स आनेवाले साल की तसवीर में उभर कर आयेगा. भारतीय राजनीति के लिए 2013 के अहम संकेतकों के आधार पर 2014 की राजनीतिक दशा-दिशा को टटोलने की कोशिशें तेज हो गयी हैं. कयास लगाये जा रहे हैं कि 2014 के आम चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों और इनके नेताओं का भविष्य कैसा होगा? दिल्ली में आप के नये राजनीतिक प्रयोगों की ऐतिहासिक कामयाबी के बाद नजरें इस बात पर भी हैं कि 2014 में भारतीय राजनीति जाति-धर्म, परिवारवाद, क्षेत्रवाद आदि से जुड़े पारंपरिक चुनावी समीकरणों में ही उलझी रहेगी या भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी जैसे आम आदमी से जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति में बड़ी भूमिका निभायेंगे. इतना ही नहीं, आम चुनाव से देश में क्षेत्रीय और वामपंथी दलों के भविष्य के साथ-साथ केंद्र सरकार की सामाजिक-आर्थिक नीतियों की दशा-दिशा भी तय होगी..
* यूपीए या एनडीए या कोई और?
वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव से पहले बहुत स्पष्ट तौर पर कांग्रेस के कुशासन के खिलाफ क्रांति की शुरुआत हो गयी है. इस क्रांति के महानायक नरेंद्र मोदी हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तरह देश में विश्वास और उम्मीद नजर आ रही है, यह देश के लोकतांत्रिक इतिहास की एक बहुत अद्भुत घटना है. गांव, गली, चौराहे, खेत-खलिहानों तक से आवाज आ रही है कि मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए. एक तरह से यह राष्ट्रपति प्रणाली के तौर पर चुनाव होता दिख रहा है.
कांग्रेस ने पहले प्रतिनियुक्ति के तौर पर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था और अब परिवारयुक्ति के तौर पर प्रधानमंत्री बनाने की कवायद चल रही है. देश न तो प्रतिनियुक्ति का प्रधानमंत्री चाहता है और न ही परिवारयुक्ति का, बल्कि सुशासनशक्ति का प्रधानमंत्री चाहता है. सुशासनशक्ति के सबसे बड़े महानायक हैं, नरेंद्र मोदी. 2014 में कांग्रेस की डर्टी डींग उसे शर्मनाक डिफीट से नहीं बचा सकती. चौतरफा जनाक्रोश की ज्वाला से तमतमायी, तिलमिलायी कांग्रेस करप्शन एवं कुशासन की कालिख से पुते हुए चेहरे को छुपाने के लिए साजिशों का सेहरा बांध रही है. कांग्रेस की हर साजिश उसके चेहरे पर एक नया बदनुमा दाग डाल रही है. कांग्रेस अपनी उपलब्धियों के अकाल और नाकामियों के सैलाब में बुरी तरह से फंस चुकी है.
आप को लेकर गलत धारणाएं हैं. मैं इसे पार्टी के उदय के तौर पर नहीं देखता. यह आसमान से टपकी हुई पार्टी जैसी है. न तो इसके पास जनता के लिए किये गये किसी प्रकार के संघर्ष का इतिहास है, न इसने कभी डंडे खाये, न जेल गये, न तो किसी भी प्रकार का कोई आंदोलन किया. आंदोलन के तौर पर भी इनका आकलन करें, तो ये टीवी टाइगर के सिवाय कुछ भी नहीं हैं. हालांकि, इन टीवी टाइगरों को दिल्ली की जनता ने जो जनादेश दिया, हम उसके सामने नतमस्तक होकर सलाम करते हैं. लेकिन देश के राजनीतिक इतिहास में यह कोई अनोखी घटना नहीं है.
असम का उदाहरण देखें तो कॉलेजों में पढ़नेवाले लोगों को चुनावी सफलता मिली और सरकार भी बनाने में सफल हुए. आंध्र प्रदेश में एक फिल्म स्टार ने सत्ता को बदल दिया था. दिल्ली की शहरी जनता के बीच इस पार्टी को हाइप मिली, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि जिस व्यक्ति की उंगली पकड़ कर आंदोलन की सीढ़ियां चढ़ीं, आज आप के नेता उन्हें गलत साबित करने पर तुले हुए हैं. एक देशी कहावत है, जो नहीं बना अपने बाप का वह कैसे बनेगा आपका.
पहले राजनीतिक पार्टियों की, फिर लोकतंत्र की और संविधान की आलोचना कर रहे थे. अब वे अपने गुरु को भी भला-बुरा कह रहे हैं. ऐसे में आगामी आम चुनाव पर आप का कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव सुधार की दिशा में कई अहम फैसले दिये हैं, लेकिन हमारा मानना है कि चुनाव सुधार को लेकर संसद में व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए. इसके अलावा पुलिस सुधार, प्रशासनिक सुधार और न्यायिक सुधार ये सभी चीजें एक साथ जुड़ी हुई हैं. केवल चुनाव सुधार हो जाये, लेकिन शेष तीन सुधार न हों, तो यह बेमानी साबित होगी. इसलिए ये सुधार जो ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैं, उन पर जमा पड़े धूल का हटाना होगा. मौजूदा सरकार इस दिशा में कुछ करती हुई नहीं दिखती है. चुनाव के बाद जब हमारी पार्टी सरकार में आयेगी, तो प्राथमिकता में शामिल करते हुए इन सुधारों को ईमानदारी पूर्वक लागू करने की कोशिश करेगी.
मध्य प्रदेश में 10 सालों के सुशासन और विकास कार्यक्रमों को लेकर लोगों ने पार्टी को न फिर से केवल सराहा, स्वीकार किया, बल्कि पिछली बार की तुलना में कहीं अधिक सीटें दीं. राजस्थान में कांग्रेस को पांच वर्ष शासन का मौका मिला, लेकिन वहां पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया. भाजपा यहां 200 में से 162 सीटें जीत गयी. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस लाशों पर खड़ी होकर राजनीति करती रही और वोट मांगती रही. इसके बावजूद रमन सिंह ने अपने काम और लोगों के प्रति अपने विश्वास की वजह से दस साल के बाद पंद्रहवें साल तक के लिए समर्थन प्राप्त करने में सफलता हासिल की. इससे पहले गुजरात में भी ऐसा ही हुआ.
आज लोग अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि लोगों के सरोकार के प्रति भाजपा ईमानदारी पूर्वक काम करती है. दूसरी बात देश का सम्मान और देश का स्वाभिमान है. इसकी सुरक्षा भाजपा के लिए पहली प्राथमिकता में है, जबकि कांग्रेस समय-समय पर इन विषयों के साथ आपराधिक समझौता करती रहती है. यही कारण है कि आगामी वर्ष में कांग्रेस के प्रति जो आक्रोश व गुस्सा है वह और बढ़ेगा. भाजपा के प्रति लोगों का विश्वास प्रदर्शित होगा.
(कमलेश कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
* अपनी गलतियों से सीख लेते हुए 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर वापसी करेगी, ऐसी उम्मीद है.
हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे को देखते हुए कांग्रेस पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बना है. इसे कांग्रेस एक चुनौती के रूप में ले रही है. क्योंकि विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार के नतीजे की हमलोग उम्मीद कर रहे थे, वैसा नतीजा कांग्रेस के पक्ष में नहीं आया है. इसलिए इससे हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर हमारे ऊपर किसी तरह का दबाव नहीं है या फिर हम विधानसभा चुनाव के नतीजे को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं.
हमें थोड़ा पीछे जाते हुए वर्ष 2003 में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों को देखना होगा. कांग्रेस के लिए जो आज दिख रहा है, ठीक वही स्थिति 2003 में आयी थी. तब हम राजस्थान में बुरी तरह से हारे थे. मध्य प्रदेश में हमारी स्थिति और भी खराब रही. छत्तीसगढ़ में भी हम हारे. मिजोरम तक में हमारी हार हुई थी. हम केवल दिल्ली में जीत दर्ज कर पाये थे. यानी पांच राज्यों में से कांग्रेस सिर्फ एक राज्य में जीत पायी थी. इस बार भी ऐसा ही हुआ है. एक बात और ध्यान रखनेवाली है कि 2003 में भाजपा के सर्वोपरि नेता अटल बिहारी वाजपेयी थे. उनकी तुलना में नरेंद्र मोदी इतने लोकप्रिय नहीं हैं. इस तरह से 2003 में जो हमारा मनोबल हिला था, उसे ठीक करते हुए 2004 में यदि हम सत्ता में वापसी कर पाये. इसलिए हमें नहीं लगता कि 2013 में जो मनोवैज्ञानिक चुनौती हमारे ऊपर आयी है, उसका मुकाबला हम 2014 में नहीं कर पायेंगे. ऐसा कोई कारण अभी नहीं दिखता कि हम 2014 में वापसी न कर पायें. हां, यह इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि तब हम विपक्ष में थे और आज 10 वर्षो से सत्ता में हैं.
2014 के आम चुनाव में कांग्रेस के लिए चुनौतियां और संभावनाएं दोनों हैं. चुनाव से पूर्व अन्य दलों के साथ गंठबंधन महत्वपूर्ण है. महाराष्ट्र में हम एनसीपी के साथ चुनाव लड़ रहे हैं. केरल में गंठबंधन है. तमिलनाडु में हम डीएमके के साथ लड़ रहे थे, लेकिन डीएमके ने घोषणा की है कि हम अकेले लड़ेंगे. इसलिए तमिलनाडु पर विचार करना है. पश्चिम बंगाल में पहले हम तृणमूल के साथ थे, लेकिन तृणमूल ने भी अकेले लड़ने की घोषणा की है. इसलिए हमलोग बंगाल में अकेले लड़ने पर विचार कर रहे हैं.
बिहार में क्या अंतिम फैसला होगा, यह अभी तय नहीं हुआ है. उत्तर प्रदेश में रालोद के साथ समझौता है. इस तरह चुनाव पूर्व गंठबंधन को मजबूत करना कांग्रेस के लिए एक चुनौती है. इसे मजबूत बनाना भी जरूरी है. इसलिए इन सारे विकल्पों पर पार्टी विचार करते हुए आगे बढ़ रही है. यदि राज्यों में अन्य दलों के साथ चुनाव पूर्व मजबूत गंठबंधन हो जाता है, तो यह कांग्रेस के लिए अच्छा होगा, क्योंकि कांग्रेस ने बीते 10 वर्षो में आम आदमी के हित के लिए जो काम किया है, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए या दागी को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जो कदम उठाये हैं, वे निश्चित रूप से देश की दिशा को तय करने में मददगार साबित होंगे. अपने कामों के आधार पर ही कांग्रेस 2014 में भी फिर से वापसी की बात कह रही है. चुनाव में हम उन मुद्दों के साथ जनता के बीच जायेंगे, जिसे पूरा करने में कांग्रेस ने सफलता पायी है. हमने जनता से जो वायदे किये हैं, उन्हें पूरा करने में पूरी तत्परता दिखायी है.
निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा का मनोबल ऊंचा है और उस मनोबल का हमें मुकाबला करना है. लेकिन एक बात स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा कि कांग्रेस एक पुरानी पार्टी है. इसमें काम धीरे-धीरे जरूर होता है, लेकिन एक बार जब रास्ता दिख गया या तय कर लिया तो लक्ष्य पर पहुंच कर ही दम लेता है. इसलिए विधानसभा के चुनाव नतीजों के आधार पर जो लोग कांग्रेस की व्याख्या कर रहे हैं या घेरने की कोशिश कर रहे हैं; उन्हें 2014 के आम चुनाव में निराशा हाथ लगेगी. वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की मजबूत छवि के आगे कोई नहीं कह रहा था कि कांग्रेस सरकार बनायेगी. लेकिन हमलोगों ने मेहनत की और सत्ता में वापसी की. इसी तरह से 2003 के विधानसभा चुनावों के बाद पार्टी को और अधिक मेहनत करना होगा. वर्ष 2004 की तुलना में 2014 आसान नहीं है; क्योंकि तब हम विपक्ष में थे और आज 10 साल से सत्ता में है.
मौजूदा समय में सोशल मीडिया का महत्व भी बढ़ गया है. ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस घिरी हुई है. लेकिन कांग्रेस 128 साल पुरानी पार्टी है. कई उतार-चढ़ाव देखे हैं इसने. इसलिए पुराने अनुभव और जनता के हित में किये गये काम को आधार बनाते हुए फिर से सत्ता में वापसी करेगी. कुछ जगहों पर कांग्रेस के प्रति नाराजगी रही है. हमने गलतियां भी की हैं. लेकिन उन गलतियों से सीख लेते हुए कांग्रेस 2014 के आम चुनाव में एक बार फिर से वापसी करेगी.
(अंजनी कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
2014 के आम चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी भले ही पार्टी नेताओं की पहली पसंद हों, लेकिन मतदाताओं का रुख कुछ अलग ही तसवीर पेश करता नजर आ रहा है. कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और मिजोरम को छोड़ पार्टी को इस वर्ष कहीं और सफलता हासिल नहीं हो सकी. लोकसभा चुनाव के सियासी गणित के लिहाज से महत्वपूर्ण माने जानेवाले राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि में पार्टी की सेहत बेहतर नहीं दिख रही. ऐसे में राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी कार्यकर्ताओं के उत्साह में आयी कमी को दूर करने की है. हाल ही में संपन्न चार राज्यों के चुनावी नतीजों ने पार्टी के भीतर किये गये उनके कई नये प्रयोगों को असफल साबित किया है. इन सबके बावजूद कांग्रेस को एकजुट करने और कार्यकर्ताओं में उत्साह के संचार के लिए राहुल फैक्टर बड़ा कारक समझा जा रहा है. साथ ही, बड़ा सवाल यह भी है कि अगर राहुल नहीं तो कांग्रेस में पीएम पद का उम्मीदवार कौन होगा?
* 2013 के संकेतों का असर 2014 पर
।। पुष्पेश पंत ।।
(राजनीतिक विश्लेषक)
इस बात को नकारना असंभव है कि 2013 का साल भारतीय राजनीति में सुनामी जैसी मोदी लहर के लिए यादगार रहेगा. भले ही आप असहमति दर्ज कराते यह हठ पाले रहें कि मोदी की लोकप्रियता का ज्वार सिर्फ भाजपा के प्रचार तंत्र का षड्यंत्र था और वास्तव में मोदी का जादू पांच विधानसभाओं वाले सेमी-फाइनल में कहीं नहीं चला. जहां कहीं भी भाजपा जीती अपने समर्थ मुख्यमंत्रियों के पराक्रम की वजह से ही.
कांग्रेस ने बुरी तरह सहम जाने के बावजूद यह दिखलाने की कोशिश की कि मोदी को वह चुनौती समझती ही नहीं. उनका कद बौना साबित करने के लिए उनके मुकाबले राहुल-सोनिया नहीं, छुटभैया महारथियों को ही रणक्षेत्र में मुकाबले में उतारा जाता रहा. यह रणनीति उसे रास नहीं आयी. जैसे-जैसे मोदी का राक्षसीकरण किया गया, उनका कद दैत्याकार बनता गया, जिसके आगे सभी प्रतिपक्षी बचकाने नजर आने लगे. दिल्ली की जनसभा में मोदी को सुनने-देखने आनेवालों की संख्या शीला-राहुल की सभाओं से कई गुना ज्यादा रही. इसलिए यह सोचना या सुझाना जायज नहीं कि 2014 के संघर्ष में मोदी का प्रभामंडल असरदार नहीं होगा. अगर अपने प्रधानमंत्री पद के दावेदार को नामजद करने के बाबत कांग्रेस को सोच-विचार करने को मजबूर होना पड़ा है तो मोदी की वजह से ही. इसके अलावा एनडीए को समर्थन देनेवाले गैर कांग्रेसी दलों का फैसला भी मोदी के निर्मम-क्रूर व्यक्तित्व और उनकी बेलगाम तानाशाही महत्वाकांक्षा वाली छवि के आधार पर ही किया जायेगा.
भारतीय राजनीति का दूसरा बड़ा विचारणीय मुद्दा आम आदमी पार्टी का अतिनाटकीय उदय है. नवजात राजनीतिक दल का अचानक सरकार बनाने के निकट पहुंच जाना सभी के लिए अकल्पनीय था. अन्ना आंदोलन में फूट, अरविंद केजरीवाल की अव्यावहारिक आदर्शवादिता या मसीहाई मुद्रा का जिक्र बारंबार किया जाता रहा है. यहां इस अनावश्यक विषयांतर में भटकने की जरूरत नहीं.
असली सवाल यह है कि दिल्ली में आप की जीत का 2014 में देशभर में होनेवाले चुनावों पर क्या असर पड़ेगा? जाहिर है, आप के समर्थक देशभर में यह चमत्कार रातोंरात दुहरा नहीं सकते, पर यह कबूल करना ही पड़ेगा कि राजधानी के मतदाताओं ने सत्तारूढ़ यूपीए-कांग्रेस और उसकी नीतियों को बुरी तरह नकार दिया है. कांग्रेस दहाई का आंकड़ा छूने में असमर्थ रही और यह आशंका निर्मूल नहीं कि 2014 में दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, हरियाणा में भी वह वैसे ही नेस्तनाबूद हो सकती है. राजस्थान में तो यह हश्र हो ही चुका है. संक्षेप में विकास बनाम भ्रष्टाचारवाली बहस गरमाने में कांग्रेस असफल रही है. वैसे ही जैसे सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षतावाली नारेबाजी उसके काम नहीं आयी है.
आप ने जिन मुद्दों को रेखांकित किया है, उन्हें निरंतर जुझारू तरीके से मुखर किया है. उसने जनता के दिल को छुआ है और उसके दिमाग पर हावी है. अरविंद को सिरफिरा करार देनेवाले उतने ही मतिमंद नजर आने लगे हैं, जितना मोदी को खतरनाक मसखरा बतलानेवाले. भ्रष्टाचार 2014 के आम चुनाव में भी अहम मुद्दा बना रहेगा, लोकपाल बिल पारित होने के बाद भी. आम आदमी पार्टी की नजर में सरकारी भ्रष्टाचार ही कमरतोड़ मंहगाई के लिए भी जिम्मेवार है.
बीत रहे साल का तीसरा उल्लेखनीय मुद्दा दागी सांसदों-विधायकों को अपदस्थ करनेवाला सर्वोच्च न्यायालय का वह आदेश है जो सभी राजनीतिक दलों के गले की फांस बन गया है. इसके निशाने पर आनेवाले सबसे पहले नेता लालू प्रसाद थे, जो भले ही फिलहाल जमानत पर रिहा हैं पर किसी को भी बाइज्जत रिहा नहीं दिखलायी देते. सवाल किसी एक दागी नेता का नहीं है, गंभीर-जघन्य अपराधों के आरोपी अब यह दलील नहीं दे सकते कि सर्वोच्च न्यायालय से अंतिम याचिका खारिज हो जाने तक वह निर्दोष ही माने जा सकते हैं. जब तक कानून अपना काम करे, तब तक तो यह धरा वीर भोग्या वसुंधरा ही समझी जा सकती है. ऐसे नेताओं-प्रत्याशियों की कमी किसी दल में नहीं. हां, समानुपातिक आंकड़े में फर्क हो सकता है. उसके साथ जोड़िए चुनाव आयोग की सख्ती को, जो आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के लिए मोदी, राहुल, जयललिता को कटघरे में खड़ा कर चुका है और चुनावी खर्च पर पैनी नजर रखे है. तब आप राजनीतिक दलों की परेशानी का अनुमान आसानी से लगा सकते हैं, जो अब तक यह मान कर चलते थे कि उन पर किसी का कोई अंकुश नहीं.
आम आदमी पार्टी तथा अन्ना आंदोलन को इस बात का श्रेय देना ही होगा कि उन्होंने राजनीतिक दलों को दिये जानेवाले चंदे को पारदर्शी बनाने का मुद्दा अनिवार्यत: चुनाव सुधार के साथ जोड़ा और सुर्खियों में रखा. राजनीतिक दलों का खुद को सूचना के अधिकारवाले कानून की पहुंच के बाहर रखना शासक वर्ग के पाखंड का बुरी तरह पर्दाफाश कर चुका है. इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिए कि दिल्ली की ही तरह अन्यत्र भी जहां मतदाता के सामने कोई ईमानदार, आदर्शवादी और अव्यावहारिक ही सही, नया भरोसेमंद चेहरा आयेगा, वह उसी विकल्प को चुनेगा. राजनीतिक दल नहीं, अब उम्मीदवार को अहमियत दी जाने लगी है. उसकी विचारधारा नहीं, विश्वसनीयता का तोल-मोल होने लगा है. यह प्रवृत्ति 2014 को निर्णायक रूप से प्रभावित करेगी.
जो चौथा मुद्दा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, वह अस्मिता की राजनीतिवाला है. भारतीय जनतंत्र के संदर्भ में अस्मिता की राजनीति को अतिमहत्वपूर्ण घोषित करनेवालों की कमी कभी नहीं रही है. जाति और धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता को मतदाता कितना कम भाव देता है, इसका पता 2013 में कई बार, कई जगह चल गया. मुजफ्फरनगर और गोपालगढ़ दंगों ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की कलाई खोल दी.
अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा का भाव बढ़ाने से इनको ही सबसे अधिक लाभ की आशा रहती है. मजहबी ध्रुवीकरण से इनके ही वोट बैंक संपन्न होने की संभावना प्रबल होती है. दुर्भाग्य से नौजवान मतदाता किसी भी धर्म का अनुयाई हो, इस छल-कपट के काल में अब नहीं फंसता. अपने संप्रदाय के नेताओं के फतवों को कबूल कर वह आंख मूंद कर उनके पीछे भेड़ की तरह चलने को तैयार नहीं. जिस किसी दल या नेता यह सोचता है, वह 2014 में निश्चय ही बुरी तरह मायूस होगा. यह जोखिम मुलायम सिंह एवं सपा के लिए सबसे बड़ा है. अपने जातिवादी जनाधार को बरकरार रख लें, वही बहुत बड़ी उपलब्धि होगी. मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों की दिक्कतें इस हमदर्द-मददगार सरकार ने कम नहीं कीं, बढ़ाई ही हैं.
नये राज्यों के गठन में निर्लज्ज मौकापरस्ती की जैसी नुमाइश तेलंगाना तथा सीमांध्रा प्रकरण में देखने को मिली है, वह भी 2014 के चुनावों के माहौल पर असर डालेगी. बुंदेलखंड, पूर्वाचल, हरित प्रदेश, विदर्भ, गोरखालैंड, जाने कहां-कहां असंतोष विस्फोटक रूप ले सकता है. मुद्दे और भी हैं बहुतेरे, पर अभी के लिए इतना काफी रहेगा!
।। डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह ।।
वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव के नतीजे त्रिशंकु आने की संभावना प्रबल है. 2014 के चुनाव के बाद फिर से कुछ सालों में अगला लोकसभा चुनाव हो सकता है. इसके कई कारण है. वर्तमान में जो राजनीतिक परिस्थिति दिख रही है उसमें किसी भी दल या गंठबंधन को पूर्ण बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है. सबसे बड़े दल कांग्रेस और मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा दोनों की हालत खस्ता है. जादुई आंकड़े को छूना इन दोनों के लिए मुश्किल होगा. थर्ड फ्रंट अभी बना नहीं है. इसकी स्थिति का पता तो चुनाव के बाद ही चलेगा. लेकिन इस बीच नेताओं में दूरदृष्टि, धैर्य और काबलियत की जरूरत है. चुनाव के बाद इन नेताओं के ऊपर ही निर्भर करेगा कि वह देश को दोबारा चुनाव में जाने से रोकने में मदद करें.
एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर इस दिशा में बढ़ा जा सकता है. यह काम चुनाव से पूर्व हो तो अच्छा रहेगा, लेकिन लाचारीवश बाद में भी किया जा सकता है, क्योंकि बार-बार चुनाव देश की जनता पर बोझ डालने का काम करता है. भाजपा के साथ भी वैसे सहयोगी नहीं दिख रहे हैं, न ही कांग्रेस के साथ. इसलिए जादुई आंकड़े किसी के पास नहीं होंगे.
जहां तक हाल में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों का सवाल है, तो छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तो भाजपा का पहले से ही रहा है. राजस्थान उन्होंने हासिल किया है. दिल्ली में वे सरकार नहीं बना सके. फिर भी भाजपा का इंप्रूवमेंट है. चाहे वह मोदी के कारण हो या फिर किसी और कारण से, विधानसभा चुनाव के नतीजों में भाजपा की बढ़त दिख रही है, पर 2014 के आम चुनाव में बढ़त उतनी नहीं होगी कि जादुई आंकड़े के करीब अपने सहयोगियों के साथ भी पहुंच पाये.
दक्षिण में भाजपा की स्थिति खराब है. पूरब में भी कोई संभावना नहीं बनती दिख रही है. जहां पर पहले से भाजपा है, वहीं पर कुछ ज्यादा संभावना दिख रही है. इसलिए केंद्र में अगली सरकार भी जोड़-तोड़ की हो सकती है. कांग्रेस से भी डीएमके, तृणमूल कांग्रेस पहले ही अलग हो गये है. प्रमुख सहयोगियों में सिर्फ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बची है. जहां तक सपा, बसपा और राजद का सवाल है, तो ये पार्टियां बिना मांगे समर्थन दे रही हैं. कुछ मुद्दों पर, जहां जन हित का सवाल हो, वहां पर विरोध भी करते हैं. इसलिए राजद यूपीए-वन में कांग्रेस के साथ थी, यूपीए-दो में अभी नहीं है.
एक तरह से देखा जाये, तो देश में अभी विपक्ष का बुरा हाल है. अभी तीन तरह का विपक्ष है. एक भाजपा और उसके सहयोगी. उसमें से शिवसेना भाजपा के साथ रह गयी है, लेकिन जदयू अलग हो गयी. कांग्रेस के साथ वाली तृणमूल कांग्रेस और डीएमके अलग हो गयी. बीजू जनता दल, अन्ना द्रमुक और वामपंथी कहीं नहीं हैं. एक और विपक्ष है जो कागज में सरकार का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन उनका व्यवहार विपक्ष की तरह है. इसमें सपा, बसपा और राजद हैं. इस तरह से एक मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा है, दूसरा वामपंथी दल व अन्य तथा तीसरा सपा, बसपा और राजद जो अपने-अपने कारणों से सरकार का समर्थन भी करते हैं और विरोध भी.
यही कारण है कि सरकार में इतना कुशासन होने के बाद भी सरकार पूरे पांच साल चल गयी, क्योंकि विपक्ष तीन जगह बंटे हुए हैं. नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर यह माना जा रहा है कि भाजपा बढ़त बना लेगी, लेकिन इंडिया शाइनिंग के समय भी लालकृष्ण आडवाणी को पीएम पद का कंडीडेट बनाया गया था, फिर भी भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी. अभी देश में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसके सिर्फ नाम पर वोट पड़े और न ही किसी तरह की लहर है. यदि मोदी के समर्थक लोग हैं, तो उनके घोर विरोधी लोग भी हैं.
हां, इतना तय है कि 2014 के आम चुनाव को महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, संप्रदायवाद आदि मुख्य मुद्दे प्रभावित करेंगे, क्योंकि इन मुद्दों को हल करने का तरीका कोई नहीं बता रहा है. देश की सत्ताधारी पार्टी और मुख्य विपक्षी पार्टी सिर्फ पीएम कंडीडेट कौन होगा इस पर बहस कर रही हैं. इसे जनता सही नहीं मानती है. जहां तक राजद का सवाल है, तो भाजपा के साथ जाने का सवाल ही नहीं उठता है. सांप्रदायिक शक्तियों को बाहर रखने के लिए यदि कांग्रेस का बर्ताव अच्छा रहा, तो सभी सेकुलर पार्टियों को एकजुट होकर इसका मुकाबला करना होगा.
इसके लिए एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाना होगा. भ्रष्टाचार और महंगाई जैसी चीजों को प्राथमिकता में रखना होगा. लेकिन इन सब चीजों से ज्यादा सांप्रदायिकता का खतरा देश पर मंडरा रहा है. इसलिए राजद जैसी पार्टियों के लिए इन चीजों से ज्यादा महत्वपूर्ण देश को एकजुट रखना और सांप्रदायिकता से मुकाबला करना होगा. यह तय है कि मोदी देश को स्वीकार्य नहीं होंगे, क्योंकि यह देश सांप्रदायिकता को सहन नहीं कर सकता है. यह देश धर्मनिरपेक्ष है और इसकी यह छवि हमेशा बनी रहेगी, ऐसा मेरा विश्वास है.
(बातचीत : अंजनी कुमार सिंह)