बीते दो दशक का राजनीतिक घटनाक्रम राजनीति के अधोपतन का प्रत्यक्ष गवाह रहा है. मीडियामुखी समाज में लोगों ने अपने टीवी सेट्स पर हैरत भरी आंखों से देखा है कि सांसदों को रुपये का लालच देकर किसी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए संसद में प्रश्न पुछवाया जा सकता है. या फिर किसी कंपनी की तरफ से उन्हें किसी रक्षा-सौदे के लिए बिचौलिये की भूमिका में भी उतारा जा सकता है.
अगर ‘कोबरा पोस्ट’ के स्टिंग ऑपरेशन में प्रमुख राजनीतिक दलों के 11 सांसद चंद रुपयों लेकर किसी विदेशी कंपनी के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखते और लॉबिंग करने पर राजी नजर आये हैं, तो गत उदाहरणों को देखते हुए इसमें अचरज की बात नहीं. कोबरा पोस्ट के स्टिंग से फिर साबित हुआ है कि भारतीय लोकतंत्र में मौजूदा र्ढे पर चलनेवाले राजनीतिक दलों से जनता के हक में बड़ी उम्मीद बेमानी है, क्योंकि उन्होंने लगातार एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति की रचना की है, जिसमें पैसे से सत्ता पाने और सत्ता से पैसे बनाने को बुनियादी प्रेरक शक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया गया है.
हाल के सालों में समय-समय पर उजागर हुए घोटालों के जरिये लोगों में यह हताशा घर करती गयी है कि राजनेता अपनी विभिन्न भूमिकाओं में सत्ता-पद का दुरुपयोग कर रहे हैं. इससे जन उम्मीदों पर भले कुठाराघात हो रहा हो और राष्ट्र हितों की बलि चढ़ रही हो, पर मौजूदा तंत्र इस पर लगाम लगाने में नाकाम है. हताशा की बढ़ती भावना के बीच आशा की किरण बस इतनी भर है कि मीडिया का एक हिस्सा उच्च पदों पर होनेवाले भ्रष्टाचार को समय-समय पर उजागर करता है और लोगों का संचित आक्रोश अब भी औपचारिक व्यवस्था के भीतर रहते हुए राजनीतिक भ्रष्टाचार के समाधान तलाशने की कोशिश कर रहा है.
अन्ना हजारे केंद्रित जन लोकपाल आंदोलन और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के रूप में एक नयी राजनीतिक शक्ति का उदय इसी का संकेत है. यह बात ठीक है कि राजनेताओं के सार्वजनिक आचरण के दोष को अदालती कठघरे में सिद्ध करना देश सत्ता-संरचना के भीतर शायद ही कभी संभव हो पाता है, पर मीडिया की मुख्यधारा भी कोबरा पोस्ट सरीखी सक्रियता दिखाये, तो भ्रष्टाचार की राजनीतिक संस्कृति के अबाध प्रसार पर एक हद तक लगाम कसने में मदद मिलेगी.