आम जनता अपने रोजमर्रा के जीवन में जिन परेशानियों से बेजार है, उनकी अभिव्यक्ति आधिकारिक आंकड़े भी कर रहे हैं. मुद्रास्फीति के नये आंकड़े बताते हैं कि बीते एक साल में महंगाई पर लगाम लगाने के लिए किये गये सारे प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं. चिंताजनक यह है कि इस समस्या का जवाब न अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास है, न वित्त मंत्री, न योजना आयोग, न ही रिजर्व बैंक के पास.
वित्तमंत्री का बेबसीभरा जवाब है कि महंगाई को काबू में करने का कोई आसान रास्ता हमारे पास नहीं है. लेकिन, क्या महंगाई पर लगाम लगाना सचमुच उनकी प्राथमिकता में है? ऐसा लगता है कि फिलहाल उनका सारा जोर आंकड़ों की कीमियागीरी पर है, ताकि राजकोषीय घाटे के प्रबंधन की कसौटी पर वे विदेशी रेटिंग एजेंसियों के सामने ‘पास’ हो सकें. जरा तुलना करें वित्त मंत्री की इस प्राथमिकता की उन प्रयासों से जो महंगाई पर काबू करने के लिए पिछले एक साल में किये गये. बीते साल के अक्तूबर के मुकाबले इस साल अक्तूबर महीने में प्याज के दामों में 278 फीसदी, टमाटर में 122 फीसदी और सब्जियों के दामों में 78 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.
महंगाई को चाहे थोक मूल्य सूचकांक से मापें या खुदरा मूल्य सूचकांक से, दोनों ही आम आदमी की जिंदगी के हलकान होने की गवाही देते हैं. तमाम कोशिशों की विफलता के बाद भी आर्थिक-योजनाकारों को लगता है कि जैसे-जैसे आपूर्ति बढ़ेगी, महंगाई कम हो जायेगी. ऐसा कब होगा और ऐसा अब तक क्यों नहीं हो पाया, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. महंगाई दर बढ़ने के साथ ही पहली चिंता यह प्रकट की जाती है कि इससे रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दर घटाना मुमकिन नहीं होगा. दरें नहीं घटेंगी, तो बाजार में पैसा नहीं आयेगा और कॉरपोरेट कंपनियों का मुनाफा कम होगा.
जाहिर है, प्राथमिकता में विकास है, महंगाई नहीं. हमारे योजनाकार यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि गड़बड़ी प्राथमिकताओं को तय करने में है. बहरहाल, महंगाई पर लगाम लगाने की सरकार की असफलता ने आम आदमी का बजट बिगाड़ दिया है और उसकी थाली सब्जियों से खाली होती जा रही है. सरकार शायद यह भूल रही है कि जब सरकार की प्राथमिकताएं नहीं बदलतीं, तो जनता सरकार को बदल दिया करती है.