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प्राथमिकताएं तय ही नहीं हो सकीं कभी

-विकास के पैर खींचे हैं राजनीतिक अस्थिरता ने- हमारा राज्य जरूरत के हिसाब से अब तक अपनी प्राथमिकता तय नहीं कर पाया. शुरू से ही इस राज्य के हर स्क्रिप्ट में भ्रष्टाचार की कहानी जुड़ती चली गयी. बाहर झारखंड की छवि को इससे बहुत नुकसान हुआ. राज्य के विकास के लिए हम एक डॉयनामिक प्लानिंग […]

-विकास के पैर खींचे हैं राजनीतिक अस्थिरता ने-

हमारा राज्य जरूरत के हिसाब से अब तक अपनी प्राथमिकता तय नहीं कर पाया. शुरू से ही इस राज्य के हर स्क्रिप्ट में भ्रष्टाचार की कहानी जुड़ती चली गयी. बाहर झारखंड की छवि को इससे बहुत नुकसान हुआ. राज्य के विकास के लिए हम एक डॉयनामिक प्लानिंग तक नहीं बना सके. रास्ते अब भी बंद नहीं हुए हैं. संजीव कुमार ऐसा ही सोचते हैं. वह मुंबई में दुनिया की मशहूर कंप्यूटर टेक्नोलॉजी कंपनी ‘डेल’ में काम करते हैं. आज जानें उनके विचार.

झारखंड बदलाव के दौर में है. पढ़ने-लिखने के दौर में हम एकीकृत बिहार में रहे. सौभाग्यशाली थे कि स्कूली और कॉलेज के शिक्षा के मामले में तब भी दक्षिण बिहार यह हिस्सा अव्वल था. जातिगत जकड़न भी यहां बिहार की तरह नहीं थी. तब अलग झारखंड की मांग और अपनी पहचान कायम करने की बेचैनी सामाजिक परिवेश में थी. राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में झारखंड बिहार से थोड़ा अलग भी था, इसलिए इसकी मांग भी जायज थी. राज्य बन गया. राज्य बने 13 वर्ष गुजर भी गये. राज्य बनने के साथ ही हम जैसे झारखंडी को नौकरी का अवसर नहीं मिला. प्रोफेशनल्स के लिए तब के दौर में हिंदी क्षेत्रों में वह अवसर नहीं था, जो मुंबई, बेंगलुरु , चेन्नई जैसे जगहों पर थी. लेकिन राज्य बनने की नयी ताजगी के बीच हम जैसे युवा यह भी सोच रहे थे कि अवसर हमें अपने प्रदेश में भी मिलेंगे.

संस्थानों का विकास होगा. लेकिन पिछले वर्षो में झारखंड देश के नक्शे में वह जगह नहीं बना सका. मेरा मानना है कि प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता ने विकास के पैर खींचे हैं. झारखंड किस रास्ते चलना चाहता है, उसे किसी लीडर ने तय नहीं किया. दूसरे प्रदेश में ऐसी लीडरशिप सामने आयी, जो देश को डिक्टेट करती है. अपने-अपने राज्यों में विकास का मॉडल बनाया है. नौकरी के बाद कई बार झारखंड खास कर रांची आना-जाना होता है. अपना घर है. मिट्टी और दोस्त खींच लाते हैं.

वर्तमान में रांची का जो विकास हुआ है, वह स्वाभाविक प्रक्रिया से है. इसके लिए किसी का कोई आउटलुक नहीं दिखता है. समय के साथ शहर बढ़ता है, तो रांची भी बढ़ गया. नये-नये मॉल बन गये, लेकिन बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं बढ़े. नया राज्य बनने के बाद राजधानी का यह स्वाभाविक विस्तार है. मुङो लगता है कि हम पिछले 13 वर्षो में रांची के लिए एक डॉयनामिक प्लॉनिंग तक नहीं बना सके. आनेवाले दिनों को देखते हुए शहर का विस्तार नहीं किया जा रहा है. यही बातें पूरे झारखंड के लिए लागू होती हैं. राज्य जरूरत के हिसाब से पिछले वर्षो में अपनी प्राथमिकता तय नहीं कर पाया. झारखंड के साथ कई दुर्भाग्य रहे. इस राज्य के हर स्क्रिप्ट में भ्रष्टाचार की कहानी जुड़ती चली गयी.

बाहर झारखंड की छवि को बहुत नुकसान हुआ. ये झारखंड की कुछ निगेटिव बातें थीं. लेकिन पिछले 13 वर्षो में झारखंड ने नया इतिहास भी गढ़ा है. देश के ऐसे मध्यम दरजे वाले राज्य और छोटे शहरों से कई शख्सीयतें बाहर निकलीं. महेंद्र सिंह धौनी जैसे क्रिकेटर हमने दिया है. देश के दूसरे राज्यों के लोगों को हम चहक कर बताते हैं कि धौनी हमारे शहर का है. फिर लोगों का स्वाभाविक सवाल होता है, घर देखा है. उसकी छोटी-छोटी बातें. बातें तो क्रिकेट से जुड़ी हैं. मेरा मानना है कि किसी प्रदेश से ऐसे धुरंधर निकलते हैं, तो प्रदेश से बाहर रहने वाले लोगों का भी मनोबल बढ़ता है. ऐसे प्रतिमान कांफिडेंस-मेकर होते हैं. धौनी देश में झारखंड का कांफिडेंस बढ़ा रहा है. छोटे शहरों के युवाओं के लिए धौनी आइकॉन हैं. बाहर रहते हुए भी हम यह उम्मीद करते हैं कि झारखंड में भी विकास का माइंडसेट बनेगा. बिहार बदल सकता है, यूपी में विकास की नयी बातें हो सकती हैं. तो झारखंड में क्यूं नहीं. झारखंड बदले, इसके लिए हमें भी बदलना होगा. ऐसा नहीं है कि रास्ते बंद हो गये हैं. राजनीति तो देश बदलती है, लेकिन राजनीति बदलने की जवाबदेही हम पर है. हमें उम्मीद है कि झारखंड भी बदलेगा.

(लेखक डेल मुंबई में रीजनल मैनेजर, सेल्स हैं)

(बातचीत: आनंद मोहन)

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