।। अनुज सिन्हा ।।
वरिष्ठ संपादक
प्रभात खबर
ताजा उदाहरण है लालू प्रसाद और सरयू राय का. दोनों जेपी आंदोलन के मित्र. दोनों दो दल में. एक राजद के शीर्ष नेता, तो दूसरे भाजपा में बड़े कदवाले. सरयू राय चारा घोटाले को अदालत में ले गये. पूरी लड़ाई लड़ी. लेकिन जब लालू प्रसाद को सजा हो गयी, तो अपने मित्र से मिलने जेल भी गये. दोनों ने बात की. कोई गिला–शिकवा नहीं.
वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में हाल में एक घटना घटी..
मेडिकल के छात्र राहुल गुप्ता पर अपने सबसे जिगरी दोस्त मार्क वॉ की हत्या करने का आरोप लगा है. कारण बिल्कुल मामूली. राहुल को लगा कि उसकी गर्लफ्रेंड पर मार्क की नजर है. मामला कितना सच था, यह बात तो सामने नहीं आयी, पर दोस्त की जान चली गयी. युवा पीढ़ी अधीर हो गयी है.
उनके आदर्श बदल गये हैं. आधुनिकता, तेजी से धन कमाने की लालसा ने युवाओं की जीवनशैली बदल दी है. निजी हित, निजी लाभ, पैसा और बिंदास जीवन ने दोस्ती की परिभाषा बदल दी है. संबंधों के अर्थ बदल गये हैं. परिवार हो, दोस्ती हो या समाज हो, आज की पीढ़ी संबंधों को निभाने में लगभग असफल दिखती है. पहले ऐसी बात नहीं थी. आज भी ऐसी घटनाएं दिख जाती हैं, जिसमें एक–दो पीढ़ी के पुराने लोग वैचारिक मतभेद रहने के बावजूद संबंधों को बनाये रखते हैं.
ताजा उदाहरण है लालू प्रसाद और सरयू राय का. दोनों जेपी आंदोलन के मित्र. दोनों दो दल में. एक राजद के शीर्ष नेता, तो दूसरे भाजपा में बड़े कदवाले. इसके बावजूद जब लालू प्रसाद के जमाने में पशुपालन घोटाला हुआ, तो सरयू राय ने इस मामले में अपने मित्र को आगाह किया. फिर इस मामले को अदालत में ले गये.
पूरी लड़ाई लड़ी. जब लालू प्रसाद को सजा हो गयी, तो अपने मित्र से मिलने जेल भी गये. दोनों ने बात की. कोई गिला–शिकवा नहीं. राजनीतिक मतभेद अपनी जगह, पार्टी की नीतियां अपनी जगह और संबंध अपनी जगह.
पुराने संबंधों को बनाये रखने, उनका सम्मान करने का ऐसा नैतिक साहस अब कहां दिखता है? मित्र अगर संकट में हो तो साथ खड़े होने की परंपरा अब लुप्त हो जा रही है. लालू प्रसाद–सरयू राय के संबंध में दल की दीवार आड़े नहीं आयी. राजनीति के प्रति अरुचि अपनी जगह, पर ऐसे उदाहरणों से युवा पीढ़ी को प्रेरणा लेनी चाहिए.
भारतीय राजनीति के इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे. श्रीमती इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण बहुत मानते थे. लेकिन जब देश में महंगाई बढ़ी, भ्रष्टाचार बढ़ा, अराजकता बढ़ी तो 1974 में इसी जेपी ने इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए अभियान छेड़ दिया. इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की.
जेपी को जेल में बंद कर दिया गया. 1977 के चुनाव में जेपी ने इसी इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया. जिस दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उसी दिन जेपी इंदिरा गांधी के घर उनसे मिलने पहुंच गये. उनसे कहा कि यही लोकतंत्र है. हिम्मत मत हारना. संघर्ष जारी रखना. तुम एक न एक दिन सत्ता में लौटोगी. जेपी की जगह कोई और होता तो शायद इंदिरा गांधी के घर जाने के लिए सपने में भी नहीं सोचता.
शायद मन में यही बात आती कि इसी इंदिरा गांधी के शासन में उन्हें कितना कष्ट भोगना पड़ा. आज की राजनीति से ऐसी चीजें तेजी से लुप्त होती जा रही हैं. न तो सच का सामना करने की ताकत रह गयी है और न ही सच कहने की.
संबंधों के ऐसे उदाहरण जवाहरलाल नेहरू के समय भी मिलते थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बड़े हिंदुत्ववादी नेता थे. 1947 में नेहरू प्रधानमंत्री बने. उनके श्यामा प्रसाद से गहरे वैचारिक मतभेद थे. पर जब नेहरू ने कैबिनेट का गठन किया तो उसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी लिया. मंत्री बनाया. ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी, पर यह विरोधियों को भी साथ लेकर चलने की कोशिश थी. यह अलग प्रसंग है कि दोनों बहुत दिनों तक साथ काम नहीं कर सके.
आज चुनाव बिल्कुल अलग हो गया है. पुराने संबंध हैं भी, निभाना चाहते भी हैं, तो दल आड़े आता है. दूसरे दल के नेताओं से थोड़ा सा संबंध गहरा दिखा कि हो गयी कार्रवाई. लखनऊ से राज बब्बर चुनाव लड़ रहे थे.
सामने थे अटल बिहारी वाजपेयी. राज बब्बर ने उनसे आशीर्वाद लेकर चुनाव प्रचार की शुरुआत की और उन्हें अच्छी टक्कर दी. लेकिन, अब स्वार्थ पर संबंध बन रहे हैं. युवा पीढ़ी को इससे सतर्क रहना होगा. संबंधों के महत्व को समझना होगा. तभी उसका भविष्य बेहतर बन सकता है.