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तसवीर न बनने से परेशान रुसवा साहब

।।सत्य प्रकाश चौधरी।।(प्रभात खबर, रांची)खुमार बाराबंकवी साहब का लिखा एक गाना है- तसवीर बनाता हूं, तसवीर नहीं बनती. रुसवा साहब की इन दिनों कुछ यही कैफियत है. थोड़ा और साफ ढंग से कहूं, तो ‘सेब’ लफ्ज सुनते ही उनके दिमाग में लाल-लाल, गोल-गोल कोई शै नहीं उभरती, बल्कि उन्हें आटे-दाल का भाव याद आने लगता […]

।।सत्य प्रकाश चौधरी।।
(प्रभात खबर, रांची)
खुमार बाराबंकवी साहब का लिखा एक गाना है- तसवीर बनाता हूं, तसवीर नहीं बनती. रुसवा साहब की इन दिनों कुछ यही कैफियत है. थोड़ा और साफ ढंग से कहूं, तो ‘सेब’ लफ्ज सुनते ही उनके दिमाग में लाल-लाल, गोल-गोल कोई शै नहीं उभरती, बल्कि उन्हें आटे-दाल का भाव याद आने लगता है. मतलब यह कि लफ्ज के मुताल्लिक जो तसवीर दिमाग में उभरनी चाहिए, उसकी जगह कुछ दूसरी ही तसवीर बनने लगती है. अब कल सुबह की ही बात ले लीजिए. वह सैर पर निकले थे, तभी उनके कानों में एक गीत घुलने लगा. एक पल को उनकी तबीयत मचल उठी.

दरअसल यह वही गाना था, जो जवानी के दिनों में वह अपनी किसी ‘खास’ के लिए गाया करते थे.. लेकिन यह क्या? चंद लम्हों में ही उस माशूका की जो तसवीर दिमाग में उभरनी शुरू हुई थी, वह धुंधली पड़ने लगी. उसकी जगह डौंडिया खेड़ा लाइव शुरू हो गया और हसीना की जगह दाढ़ी-जटा वाला ओम महाराज जैसा नगीना उभरने लगा (शुक्र है शोभन सरकार का जो टीवी के परदे से दूर रहते हैं, नहीं तो वह भी मेरी माशूका की तसवीर न बनने देने के गुनहगार बन जाते). बातों-बातों में यह तो बताना भूल ही गया कि वह गाना कौन-सा था.

जी हां, तीसरी मंजिल का वही मशूहर गीत- ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना रे. रुसवा साहब की एक बड़ी ख्वाहिश है कि जमीन पर जिंदगी तो जैसे-तैसे कट जा रही है, पर खुदा उन्हें जन्नत जरूर बख्शे, जहां हूरें हों, फलों के बगीचे हों, अंगूरी का इंतजाम हो. लेकिन, दो-तीन दिन पहले उन्हें बड़ा अजीब सा ख्वाब आया. क्या देखते हैं कि वह जन्नत पहुंच गये हैं, मगर वहां का नजारा उस तसवीर से बिल्कुल जुदा है, जो वह बरसों से अपने दिमाग मे बनाते आ रहे थे. बाग-बगीचों और हूरों की जगह हर तरफ बस प्याज ही प्याज पसरा है और वह उसके बीच लोट रहे हैं. अपने ख्वाबों की तसवीर का इस तरह बदरंग होना उनसे बरदाश्त नहीं हुआ और चौंक कर जाग गये. तभी बेगम साहिबा आवाज देती हुई नमूदार हुईं और पाव भर प्याज बाजार से ले आने के लिए उन्हें झोला थमा दिया. वह झोलीनुमा झोला लेकर निकले ही थे कि रास्ते में उनके बचपन का दोस्त पप्पू टकरा गया.

वह पप्पू से भाभी और बाल-बच्चों का हाल-चाल पूछ रहे थे, पर उनके दिमाग में तसवीर उभर रही थी राहुल गांधी की. वह बेचैन होने लगे. कहां पहले पप्पू का नाम सुनते ही सांवले-सलोने, साथ में गिल्ली-डंडा खेलनेवाले दोस्त की तसवीर दिमाग में बनती थी, अब उस पर यह अनाड़ी भाषणबाज और बात-बात पर कागज फाड़नेवाला ‘पिनकाहा लक्ष्का’ कब्जा कर रहा है. रुसवा साहब ने अपनी तकलीफ मुझसे बतायी. मैं सुन कर मुस्कराया और बोला शुक्र मनाइए कि आपके किसी दोस्त का नाम फेंकू नहीं है, वरना बेवजह आपका खून जलता रहता. रुसवा साहब खिसियानी हंसी हंसते हुए प्याज लेने चल दिये.

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