।। राजीव चौबै ।।
(प्रभात खबर, रांची)
यह फैलिन तो फैलता ही जा रहा है. इसने पहले रांची में दुर्गा पूजा का मजा किरकिरा किया और अब इसके सीक्वल (फैलिन-2) ने क्रिकेट का. जो क्रिकेट प्रेमी पिछले कई दिनों से स्टेडियम में मैच देखने के लिए पास/टिकट के जुगाड़ में शीर्षासन कर रहे थे, उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. हां, उन विघ्नसंतोषियों के चेहरे पर मुस्कान जरूर है, जो सारे हठयोग साधने के बाद भी स्टेडियम में घुसने का उपाय नहीं कर पाये थे. यकीन मानिए, रांची जैसे शहर में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का आयोजन बावले गांव में ऊंट के आने से कम नहीं होता. ऐसे लोग भी मैच का पास/टिकट पा लेना चाहते हैं, जिन्हें क्रिकेट के ‘क’ का भी कोई अता-पता न हो. उनके लिए तो यह बस एक मौका होता है अपने मोहल्ले/दोस्तों में अपनी हनक साबित करने का.
जरा सोचिए, कितने अरमानों से उन लोगों ने मैच के पास/टिकट का जुगाड़ किया होगा. यह सोच कर कि मैच के अगले दिन अपने ‘दीन-हीन’ साथियों/पड़ोसियों के सामने मैच, स्टेडियम और उसकी झलकियों का शाब्दिक चित्रण कर इतरायेंगे, जैसे पहले लोग सिनेमा देख कर आने के बाद करते थे. लेकिन बुरा हो इस बेमौसम बरसात का, अब कौन-सा मुंह लेकर अपने साथियों के सामने जायेंगे? आप सोच रहे होंगे कि मैं इस मामले में इतनी चुटकी क्यों ले रहा हूं. तो बता दूं कि क्रिकेट से मेरा रिश्ता तभी खत्म हो गया था, जब सचिन ने एकदिवसीय मैचों से संन्यास की घोषणा कर दी थी. सचिन जब मैदान में होते थे, तो मेरा ध्यान भारतीय टीम की हार-जीत से ज्यादा उनके शतक पर ही होता था.
अगर सचिन का शतक लग जाये, तो मुझे भारतीय टीम के हारने का भी गम नहीं होता था. वैसे मैंने आज तक क्रिकेट का कोई मैच पूरा नहीं देखा. बस बीच-बीच में स्कोर जान कर मैच के ‘टच’ में रहने की कोशिश करता रहा हूं. अगर मैच अपने शहर में हो रहा है, तो भी इसके लिए दीवाना होने का कोई मतलब नहीं है. टीवी पर मैच देखना ज्यादा अच्छा होता है, जहां आपको एक -एक गेंद ठीक ढंग से देखने को मिलती है. वहीं, स्टेडियम में अगर दो टीमों की ड्रेस अलग-अलग न हो, तो यह फर्क करना मुश्किल हो जायेगा कि कौन-सी टीम बैटिंग कर रही है और कौन सी टीम बॉलिंग.
अब आप में से कुछ जानकार टाइप लोग यह सवाल उठायेंगे कि स्टेडियम में लाइव स्क्रीन पर तो खेल का हर महत्वपूर्ण हिस्सा दर्शाया ही जाता है, तो मैं कहूंगा कि जब स्क्रीन पर ही यह सब देखना है तो घर के टीवी में क्या कांटे लगे हैं! माना कि कुछ जिंदादिल टाइप लोगों का यह सोचना होता है कि मैच और सिनेमा का वह मजा टीवी पर नहीं, जो स्टेडियम और सिनेमा हॉल में है. हर शॉट व एक्शन पर दिल खोल कर तालियां और सीटियां बजाना घर पर टीवी देखते हुए मुमकिन है भला! ऐसे लोगों को अपने राज्य और करीबी शहर में अगले मैच तक के लिए इंतजार करना ही होगा.