यह बात देखने लायक होगी कि अपने चीन दौरे से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या कुछ हासिल करने में सफल होते हैं, क्योंकि चीन के आश्वासनों की विश्वसनीयता बहुत पहले नष्ट हो चुकी है और भारतीय राजनय का सामथ्र्य भी संदिग्ध है.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बहु प्रतीक्षित एवं बहु प्रचारित चीन यात्रा आज से शुरू हो रही है. आशावादी विश्लेषकों (चीन समर्थक तथा सरकारी दरबारी समेत) का मानना है कि लंबे समय से चला आ रहा गतिरोध उनके इस दौरे से दूर होगा और दो बड़े एशियाई देशों के बीच सार्थक सहकार की जमीन तैयार हो जायेगी.
दूसरी ओर ऐसे जानकार विद्वानों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि चौफतरफा घिरे मनमोहन सिंह इस वक्त ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं के जरिये यह दिखाने की कोशिश में जुटे हैं कि राजनयिक मोरचे पर यूपीए की उपलब्धियां अभूतपूर्व हैं– शायद इससे मतदाताओं का ध्यान भ्रष्टाचार, लापरवाही आदि जैसे गंभीर आरोपों से भटकाया जा सके!
किसी तटस्थ व्यक्ति के लिए यह स्वीकार करना कठिन है कि चीन के साथ संबंध सुधारने, तनाव घटाने का यह उपयुक्त समय है.हाल में अरुणाचल प्रदेश के खिलाड़ियों को चीन में एक प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए नत्थी वीजा प्रदान कर चीन ने एक बार फिर अड़चन पैदा की. जम्मू–कश्मीर हो या अरुणाचल, इन्हें विवादग्रस्त क्षेत्र साबित करने की चेष्टा से चीन बाज नहीं आ रहा. भारतीय अधिकारियों को भी उसने इस आधार पर वीजा नहीं दिया कि वे मानवाधिकार हनन के आरोपी या अशांत प्रदेश में अनावश्यक बल प्रयोग के दोषी हैं.
यह लांछन पाक सरकार लगाती रही है और खुद हमारे देश के कुछ अति उत्साही गैर सरकारी संगठन भी इस मुद्दे को तूल देते रहे हैं. विडंबना यह है कि हमारा विदेश मंत्रालय यह हठ पाले रहता है कि चीन के साथ हमारे संबंध संवेदनशील भी हैं, जटिल भी. अत: छोटी–मोटी शरारतों की अनदेखी ही सही है.
विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद तो सरहद पर चीनी घुसपैठ को चिकोंटी सरीखा बता चुके हैं. प्रधानमंत्री एकाधिक बार यह बयान दे चुके हैं कि चीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हमारा सबसे बड़ा साझीदार है, इसलिए सीमा विवाद को अभी ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए.
इस समय दावा किया जा रहा है कि चीन के साथ सीमा विवाद को विस्फोटक होने से बचाने के लिए परस्पर भरोसा बढ़ानेवाले समझौते पर हस्ताक्षर किये जा सकते हैं. यह याद रखने लायक है कि चीनी सेना के अधिकारी स्पष्ट कर चुके हैं कि ऐसा समझौता ‘राजनीतिक’ फैसला ही समझा जाना चाहिए (राजनयिक रस्मअदायगी), जिसका कोई असर जमीनी हकीकत पर या सामरिक समीकरण पर नहीं पड़ेगा.
यह भी नहीं भूलें कि चीन की पीएलए की तुलना भारतीय सेना से नहीं की जा सकती, जो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के आदेशानुसार ही काम कर सकती है. चीन की जनमुक्ति सेना तथा साम्यवादी पार्टी का रिश्ता बहुत घनिष्ठ और जटिल है. उसके नजरिये को वहां की सरकार सामान्यत: खारिज नहीं करती. रही बात परस्पर भरोसा बढ़ानेवाले प्रयासों की, तो पाकिस्तान के संदर्भ में अरसे से पीटे जा रहे इस ढोल की पोल भलीभांति खुल चुकी है. चीन के साथ भी यही होता नजर आ रहा है.
चीन के साथ भारत के हितों का टकराव सीमा विवाद तक सीमित नहीं है. जल विवाद कम विकट नहीं. चीन की दक्षिण से उत्तर की ओर जल–प्रवाहित करने की महत्वाकांक्षी परियोजना जगजाहिर है.
ब्रह्मपुत्र (जिसे चीनी ‘यारलुंग सांगपो’ कहते हैं) पर दैत्याकार बांध निर्माण कर चीन अपनी जलसुरक्षा तो सुनिश्चित कर रहा है, पर भारतीय उपमहाद्वीप की जलसुरक्षा तथा पर्यावरण को जोखिम में डाल रहा है. इस विषय में भारत को तकनीकी जानकारी देने या परामर्श करने में चीन हिचकिचाता रहा है, जिससे तरह–तरह की आशंकाएं उत्पन्न हो चुकी हैं. यह तय है कि भारत इस मुद्दे को फिर उठायेगा, पर संभावना यही नजर आती है कि इस बार भी मौखिक आश्वासन के सिवा हमारे हाथ कुछ नहीं लगेगा.
चीन के साथ आर्थिक रिश्तों पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है. सौ अरब डॉलर के करीब का पहुंचता यह व्यापार हम पर चीन का दबाव निरंतर बढ़ा रहा है. चीन हमारे लिए तो नंबर एक का साझीदार है, परंतु चीन के लिए हमारी अहमियत नंबर दस तक नहीं. यह तर्क सही है कि जब सारा विश्व आर्थिक मंदी की चपेट में है, तब हम किसी तरह का जोखिम नहीं उठा सकते.
चीन के साथ अपने व्यापार को जारी रखना ही बेहतर है. आखिर चीन दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और सस्ते श्रम का विपुल भंडार. अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी वह भारत की तुलना में कहीं अधिक आत्मनिर्भर है. अत: यह सुझाना कि हम चीन की उपेक्षा कर सकते हैं, मूर्खता ही होगा.
किंतु यह नजरअंदाज नहीं कर सकते कि एशिया और विश्व में भारत और चीन एक–दूसरे के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी हैं. यह मुकाबला सहकारी प्रतिस्पर्धा से छटक कर कभी भी बैरी–वैमनस्य में बदल सकता है. खाद्य सुरक्षा से ऊर्जा सुरक्षा तक अनेक उदाहरण जुटाये जा सकते हैं, जो इस स्थापना को पुष्ट करते हैं.
पाकिस्तान को परमाण्विक संयंत्र–ईंधन सुलभ कराने में चीन का उत्साह भी भारत को चिंतित करता रहा है, जिसे निराधार नहीं कहा जा सकता. 1960 के दशक में चीन ने भारत की घेराबंदी के लिए जिस तरह पीकिंग–पंडी–जकार्ता धुरी तैयार की थी, कुछ इसी अंदाज में आज चीन का राजनय सक्रिय है.
नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, भूटान और मालदीव तक में भारत के पैर पसारने की कोई गुंजाइश वह नहीं छोड़ता. ईरान में भी जैसे ही मौका मिला, चारबहार बंदरगाह निर्माण परियोजना से भारत को विस्थापित करने की चीनी पेशकश आरंभ हो गयी थी.
यह बात समझ में आती है कि चीनी मंसूबों को निरंकुश न छोड़ने के लिए भारतीय राजनय सक्रिय हो, पर यथार्थवादी विश्लेषण यही दर्शाता है कि इस मामले में अतिशय आशावादिता हमें किसी घातक मरीचिका में ही भटका सकती है.
जब से भारत अमेरिका को अपना सामरिक साझीदार घोषित करने लगा है, चीन को यह चिंता होने लगी है कि भारत उसकी घेराबंदी में अमेरिका का हाथ बंटाने को उतावला है. ब्रिक्स जैसे संगठनों में वह अपनी हस्ती का प्रदर्शन करने का कोई मौका गंवाता नहीं.
गनीमत है कि इस बार हमारे प्रधानमंत्री सिर्फ चीन की यात्रा नहीं कर रहे. पहले वह रूस जा चुके हैं और राष्ट्रपति पुतिन के साथ सामरिक (परमाण्विक सहित), आर्थिक सहकार के बारे में चर्चा कर चुके हैं. यह सोचना तर्कसंगत है कि वह चीन को यह संकेत देना चाहते हैं कि भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर अकेला या मित्रविहीन नहीं. यह बात देखने लायक होगी कि प्रधानमंत्री इस संदेश को पहुंचाने के अलावा क्या कुछ और हासिल करने में सफल होते हैं.
चीन के आश्वासनों की विश्वसनीयता बहुत पहले नष्ट हो चुकी है और भारतीय राजनय का सामर्थ्य भी संदिग्ध है. ऐसे में प्रधानमंत्री पर बोझ और भी बढ़ जाता है!
।। पुष्पेशपंत
अंतरराष्ट्रीयमामलोंकेविश्लेषक