।।अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
जिन न्यूज चैनलों ने धरती के अंदर सोना दबे होने के साधु के सपने को प्रचारित किया, वही अब इसे धोखाधड़ी और बेवजह की कवायद साबित करने में लग गये हैं. ज्यादातर बुद्धिजीवियों और सक्रियतावादियों के लिए यह केवल एक तमाशा है. प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी भी प्रगतिशील दिखने की चाहत में कह रहे हैं कि दुनिया हम पर हंस रही है कि एक बाबा के सपने पर सरकार सोना खोजने के लिए खुदाई कर रही है. प्रश्न है कि हम किसे सच मानें?
इस प्रकरण के चार पहलू हैं. सबसे पहला है, किले के नीचे 1,000 टन सोना दबा होने का सपना या ज्ञान. विज्ञान में अनुमान का कोई स्थान नहीं है. हालांकि, यह विज्ञान भी अपनी खोज किसी न किसी अनुमान से ही आरंभ करता है. प्रश्न है कि जिस विद्या को, ज्ञान को हम नहीं जानते वह बिल्कुल गलत ही है, ऐसा कहने का आधार क्या हो सकता है?
अब आएं दूसरे पहलू पर. क्या सरकार ने केवल बाबा के कहने पर ही खुदाई आरंभ करा दी? इसका उत्तर है नहीं. बाबा ने स्थानीय प्रशासन से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखा. अपने विश्वासपात्र केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री चरणदास महंत से बात की. उन्होंने प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, मानव संसाधन मंत्री से बात की. प्रधानमंत्री ने भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग को इसकी जांच करने का आदेश दिया. उसने सर्वेक्षण करके बताया कि नीचे 15-20 फुट पर धातु दिख रहा है. इसके बाद पुरातत्व विभाग से खुदाई आरंभ करायी गयी. पुरातत्व विभाग कह रहा है कि वह सोने के लिए नहीं, पुरावशेषों के लिए खुदाई कर रहा है. विभाग का काम खनिज तत्वों का खनन नहीं है.
तीसरा पहलू है इसके प्रचार एवं वर्तमान आशंकित परिणति का. सच यह है इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने इसे सनसनाहट भरी बड़ी घटना बना कर जिस तरह प्रचारित करना आरंभ किया, बवंडर उससे पैदा हुआ. मीडिया का दायित्व था कि वह पूरे प्रकरण के सारे पहलुओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में सामने लाता. इसके विपरीत चैनल तिलिस्म की तरह वहां के मंदिर के त्रिशूल की छाया को दिखा कर बताने लगे कि यहीं खजाना हो सकता है. टीआरपी के लिए इसे बड़ा इवेंट बना दिया गया. न तो सरकार ने इस पर कोई पत्रकार वार्ता की या बयान जारी किया, न भूगर्भ विभाग ने न पुरातत्व विभाग ने. सब मीडिया ने ही किया. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कभी आत्ममंथन करने और सार्वजनिक तौर पर भूल स्वीकारने की शालीनता बरतने का आदी नहीं है. इसलिए अब पुरातत्व विभाग और सरकार पर दोष मढ़ कर उनका उपहास उड़ाने तथा बवंडर के लिए उन्हें दोषी ठहराने का क्रम आरंभ हो गया है.
अब आएं इसके चौथे और अंतिम पहलू पर. भारत को सोने की चिड़िया क्यों कहा गया? यहां सोने के खान नहीं थे, लेकिन प्राचीन काल से भारत की समृद्धि की चर्चा पूरी दुनिया में थी. प्लीनी चिंता प्रकट करते हुए लिखता है कि रोम का सोना भारत जा रहा है. दो वर्ष पूर्व पद्मनाभ मंदिर के तहखाने से निकले सोने और जवाहरात से हम चकाचौंध में पड़ रहे थे. मंदिरों के स्वर्ण भंडार हजारों सालों की परंपरा रही है. स्वर्णजटित मंदिरों के प्रमाण मिलते हैं. राजभवनों के स्वर्ण शिखरों का उल्लेख है. मंदिरों में फिर बाद में बौद्ध विहारों में अक्षय निधि की परंपरा थी. लोग अपने स्वर्ण वहां सुरक्षित भंडार के रूप में रखते थे. स्वर्णकारों की उपस्थिति भारत के हर क्षेत्र में न जाने कितने समय से है. क्यों? साड़ियों के सोने से बने किनारे ही नहीं जूतों में भी स्वर्ण तारों के ऐतिहासिक प्रमाण हैं. जहां धर्मग्रंथों के वाक्यों के लिए धातु के इंक का प्रयोग हुआ हो, वहां कितना सोना रहा होगा जरा इसकी कल्पना करिये. आक्रमणकारी या लूटेरे हमारे देश में सोना और रत्नों का बखान सुन कर ही आते थे. महमूद गजनवी के सैनिकों ने आम किसानों के घरों में क्यों लूटपाट की? उन्हें मालूम था कि यहां की महिलाओं के शरीर पर या उनके बक्से में सोने और चांदी के आभूषण होंगे ही.
जहां तक 1857 का प्रश्न है, तो झांसी की विजय के बाद अंग्रेज कमांडर आदेश देता है कि सोना केवल श्वेत सैनिक लूटेंगे. चांदी सिख सैनिक और उसके बाद के बचे धातु काले सैनिक. 1857 के युद्ध में अंग्रेजों ने विद्रोह करनेवाले राजाओं और जमींदारों के खजानों और भंडारों को लूटा. जो राजा या जमींदार भागते थे वे अपने साथ अपना स्वर्ण और र- भंडार भी ले जाते थे या अपने विश्वासपात्र के पास छोड़ देते थे या फिर ऐसी जगह उसे छिपा देते थे, गाड़ देते थे, जिसे अंग्रेज न ढूंढ़ सकें. फिलहाल, राजा रामबख्श सिंह के किले में खजाना होगा या नहीं, यह खुदाई के बाद ही पता चलेगा. भारत का इतिहास ऐसी कहानियों को जन्म देता रहे, तो इसमें अचरज क्या है!