।।विजय प्रताप।।
(राजनैतिक चिंतक)
11 अक्तूबर जेपी का जन्मदिन. आठ अक्तूबर जेपी और 12 अक्तूबर डॉ राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि. दो अक्तूबर गांधीजी और 31 अक्तूबर आचार्य नरेंद्र देव का जन्मदिन. ये तिथियां हिंदू कैलेंडरों के उन दिनों के आसपास पड़ती हैं, जब हिंदुओं के अधिकतर संप्रदाय अपने पुरखों को याद करते हैं, श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. कर्मकांड में आस्था प्रतीकात्मक संकेतों के सहारे आम जन के लोकमानस को प्रभावित करते हैं, संस्कारित करते हैं. लेकिन यदि समाज अपनी आस्थाओं और उससे जुड़े कर्मकांड पर विवेक, आत्मनिरीक्षण, पुनर्निरीक्षण का झाड़ू-पोंछा न लगाये, तो वही आस्थाएं सत्वविहीन रूढ़ियों में या ढोंगपूर्ण कर्मकांड में परिवर्तित हो जाती हैं.
आज अमेरिकी उपभोगवाद के स्वर्ग में स्थान पाने की पागल दौड़ इतने रूपों और इस गति से चल रही है कि उसमें अर्धविराम और विराम की कोई गुंजाइश नहीं. भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था और राजपाट चलानेवालों में अधिकतर इस बात पर सहमत दिखते हैं कि अमेरिकी उपभोगवाद का पीछा करना, उसे पाने की कोशिश करना एक वांछनीय और संभव लक्ष्य है. इसी मानस के चलते बाजार और बाजारवाद के मूल्य हमारे जीवन के हर पहलू पर हावी होते दिख रहे हैं. यह परिस्थिति पूरी दुनिया की साझी पहचान बन गयी है. इसी पागल दौड़ का नतीजा है कि औपचारिक तौर पर चाहे राजपाट चलाने के लिए शक्ति और वैधता का साध वोट राज (तथाकथित लोकतंत्र) हो, लेकिन व्यवहार में अधिकतर देशों में कॉरपोरेटी लोकतंत्र मजे से चल रहा है.
भारत में ही देखें, 1991 के बाद देश के सभी प्रमुख राष्ट्रीय और प्रांतीय दल केंद्र की सत्ता पर काबिज हो चुके हैं, लेकिन राज्य व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था में कॉरपोरेट लूट के संस्थागत तरीकों, कानूनों और माहौल की ताकत उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है. दो सौ साल के संघर्ष के बाद मजदूर वर्ग ने जो हासिल किया था, वह आज खो चुका है. अब मजदूर को रोजगार की सुरक्षा या सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन नहीं मिलती. मालिकों को शोषण की मनमानी छूट देने एवं पुराने समय में बन गये श्रम कानूनों से बचने के लिए बहुत सरल रास्ता निकाल लिया गया है. पूरी अर्थव्यवस्था के अधिकांश हिस्सों से स्थायी रोजगार प्रथा को ही खत्म कर दिया गया है. अफसर हों या चपरासी, सभी अब ठेके पर रखे जा रहे हैं. किसी को कोई स्थायी अधिकार नहीं, केवल ठेकेदारी प्रथा के जरिये रोजगार से असीमित असुरक्षा, अनिश्चतता और असहायता की गारंटी.
अब ऐसे माहौल में जेपी की विरासत को ठोस रूप में याद करना हमारे लिए मजबूरी बन जाती है. हम चाह कर भी उपरोक्त परिस्थिति से समझौता नहीं कर सकते, क्योंकि कॉरपोरेट नियंत्रण और अंधी लूट का विरोध न करने पर भी कोई युद्धविराम नहीं. लूट की भूख तमाम मर्यादाएं तोड़ रही हैं. संस्कृति के मानदंडों और जीवन मूल्यों को इस प्रकार परिभाषित किया जा रहा है, कि जीना और जीवन दोनों ही अर्थ खोते जा रहे हैं. भारत में 1980 में गांधी, जेपी, लोहिया की धारा की खुद इस धारा के वारिसों के कारमानों से हार हुई थी. 1980 के दशक के मध्य से ही देश के क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों को देखने पर आप पाएंगे कि देश में आत्महत्याओं की दर में लगातार इजाफा हो रहा है.
मर्यादाविहीन पागल दौड़ जनित असुरक्षा और असहायता के व्यापक माहौल का दूसरा खतरनाक नतीजा हो रहा है, अपने पहचान के घेरों का सिकुड़ना. भारत में सभी धर्मो के आम जन की पहचान ‘खुद’, ‘स्व’ से शुरू होकर कुल, जाति, गोत्र के घेरों से होती हुई वसुधैव कुटुंबकम् तक पहुंचती है. स्व या खुद के पहचान के घेरों का यह सफर केवल हिंदुओं तक ही नहीं, सभी धर्मो-संप्रदायों में है. अलग-अलग भाषा और मुहाबरे के बावजूद एकात्मता और समग्रता की दृष्टि किसी भी स्वस्थ समाज का जरूरी लक्षण है, लेकिन हमलोगों की यह दृष्टि धुंधली होने लगी है. भारत में संकीर्णता की हवा हाल के दशकों में जोर पकड़ने लगी है. डेढ़ दशक पहले को याद करें, एनडीए में वाजपेयी को इसलिए नेता चुना गया, क्योंकि वे आडवाणी से उदार और समावेशी नेता माने गये थे. अब मामला उलट गया है. हिंदुत्व को आक्रामकता से मानने और जीनेवाले का चुनाव मुख्य विपक्षी दल के अगुआ चेहरे के तौर पर किया गया है.
कुल मिला कर आज हमारे देश के सामने जो चुनौतियां मूल रूप से मौजूद हैं, गहरे गुणात्मक अर्थो में पूरी दुनिया के सामने वही चुनौतियां हैं. इसके मद्देनजर जेपी का जीवन, उनकी विचार यात्र और उनके द्वारा किये गये प्रयोग भारत और दुनिया, दोनों के लिए समान रूप से संगत हैं. जेपी के सांगठनिक और वैचारिक रुझान सर्वग्राही, समावेशी और समग्रतावादी थे, जो आज की परिस्थिति में महत्वपूर्ण दिशा संकेत हैं.