।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
तेलंगाना के गठन में अभी तमाम बाधाएं हैं. आंदोलनकारियों के सवाल गलत नहीं हैं. केंद्र उनके जवाब देने के बजाय दूर से अपने फैसले सुना रहा है. आंध्र प्रदेश की जनता जाने–अनजाने एक–दूसरे को शत्रुओं के रूप में देखने लगी है. यह अच्छी बात नहीं.
कांग्रेस के लिए खौफनाक अंदेशों का संदेश लेकर आ रहा है तेलंगाना. जैसा कि अंदेशा था, इसकी घोषणा पार्टी के लिए सेल्फगोल साबित हुई. इस तीर को वापस लेने और छोड़ने, दोनों हालात में उसे ही घायल होना है. सवाल यह है कि नुकसान कम–से–कम कितना और कैसे हो? इस गफलत की जिम्मेवारी लेने के लिए पार्टी का कोई नेता तैयार नहीं है. आंध्र प्रदेश की जनता, उसकी राजनीति और प्रशासन दो धड़ों में बंट चुका है.
मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी इस फैसले से खुद को काफी पहले अलग कर चुके हैं. शायद 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले यह राज्य बन भी नहीं पायेगा. यानी इसे लागू कराने की जिम्मेवारी आनेवाली सरकार की होगी.
तेलंगाना नौ साल पहले ही बना दिया जाता तो इतना बड़ा संकट पैदा नहीं हुआ होता. नवंबर, 2009 में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने के चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए तेलंगाना बनाने की घोषणा कर दी. आज उसे जगनमोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू के दो आमरण अनशनों का सामना करना पड़ रहा है.
पूरे सीमांध्र में आंदोलन है. प्रदेश अंधेरे में है. 2004 में ही चुनावी सफलता के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा किया था. संयोग से तब केंद्र में उसकी सरकार बन गयी. तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं हुई, यूपीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में भी कामयाब हो गयी थी. पर सबको पता था कि यह सिर्फ मामले को टालने के लिए है.
2009 में चिदंबरम का वक्तव्य भी बगैर सोचे–समझे दिया गया था और इस मसले पर कांग्रेस की बचकाना समझ का प्रतीक था. इस बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गयी, जिसने समाधान देने की जगह कुछ नये सवाल खड़े कर दिये. उसकी रपट को लेकर आंध्र प्रदेश हाइकोर्ट तक ने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, आंदोलन को मैनेज करने के बाबत केंद्र सरकार को हिदायतें हैं.
इस फैसले की सबसे बड़ी खराबी यह है कि यह चुनाव को निगाह में रख कर किया गया है, न कि राज्य की प्रशासनिक जरूरतों को देख कर. तेलंगाना क्षेत्र में आंध्र प्रदेश विधानसभा की 294 में से 119 और लोकसभा की कुल 42 में से 17 सीटें हैं. फायदा मिलेगा भी तो तेलंगाना राष्ट्र समिति को, जिसके आंदोलन के दबाव में राज्य बन रहा है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि उसका विलय देर–सबेर कांग्रेस में हो जायेगा.
उन्हें यह भी लगता है कि सीमांध्र में वे जगनमोहन की पार्टी से समझौता करने में कामयाब हो जाएंगे. जरूरी नहीं कि ऐसा संभव हो. राज्य में हुए उत्पात की तोहमत कांग्रेस पर जा रही है, क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर उसकी सरकार है और कोई भी पक्ष उससे खुश नहीं है. राज्य बन भी गया तो हैदराबाद की खींचतान कायम रहेगी. नौ साल पहले यह फैसला हुआ होता तो अब तक सीमांध्र की राजधानी तैयार हो जाती.
अभी कैबिनेट का फैसला हुआ है और नये राज्य की सीमा तैयार करने के लिए ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की घोषणा की गयी है. फिलहाल भौगोलिक सीमा में आंध्र प्रदेश के 23 में से 10 जिले आएंगे. इसमें महबूब नगर, नलगोंडा, खम्मम, रंगारेड्डी, वारंगल, मेडक, निजामाबाद, अदिलाबाद, करीमनगर और हैदराबाद शामिल हैं.
2009 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना क्षेत्र से कांग्रेस को चुनाव में अच्छी सफलता मिली थी. प्रदेश के 42 में से 17 सांसद कांग्रेस के हैं, जिनमें से 12 तेलंगाना क्षेत्र से हैं. कांग्रेस की रणनीति है कि ये 12 सीटें तो उसे कम–से–कम मिल ही जाएं. क्या किसी राज्य का भविष्य किसी पार्टी के राजनीतिक हिसाब–किताब से तय होगा? कांग्रेस चाहती है कि जगनमोहन रेड्डी का विस्तार रायलसीमा के बाहर न होने पाये.
उनका असर रायलसीमा के अनंतपुर, कुनरूल, कडपा और चित्तूर जिलों में है. कांग्रेस की योजना रायल तेलंगाना बनाने की है, जिसमें रायल सीमा के दो जिले कुनरूल और अनंतपुर भी शामिल होंगे. इससे जगनमोहन की ताकत दो राज्यों में बंट जायेगी. फिर ऐसी कोशिश भी होगी कि तेलुगु देशम पार्टी दोनों राज्यों में ज्यादा आगे न बढ़ पाये और बीजेपी को इस प्रक्रिया में कोई भी फायदा मिलने न पाये.
कांग्रेस मजलिस इत्तहादुल मुसलमीन (एमआइएम) को भी अपने साथ रखना चाहेगी. पहले पार्टी चाहती थी कि आंध्र प्रदेश विधानसभा नया राज्य बनाने का प्रस्ताव पास करे– जैसे उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना में हुआ था. यह संभव नहीं हुआ, क्योंकि जितना ताकतवर तेलंगाना आंदोलन है, उतना ही ताकतवर राज्य को वृहत्त रूप में बनाये रखने का समैक्यांध्रा आंदोलन है. मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने हमेशा ही खुद को इस एटम बम से अलग करके रखा है. अब कांग्रेस को कुएं और खाई में चुनाव करना है.
आजादी के बाद देश का पहला राजनीतिक संकट तेलंगाना के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खड़ा हुआ था, जो आज नक्सली आंदोलन के रूप में चुनौती पेश कर रहा है. भाषा के आधार पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, लेकिन उसे एक बनाये रखने में भाषा मददगार साबित नहीं हो रही है.
तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी. राज्य पुनर्गठन आयोग की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाये और शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने. नेहरू जी आंध्र व तेलंगाना के विलय को लेकर शंकित थे.
उन्होंने शुरू से ही कहा था कि इस शादी में तलाक की संभावनाएं बनी रहने दी जाएं. राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष जस्टिस फजल अली भी तेलंगाना के आंध्र में विलय के पक्ष में नहीं थे. तेलंगाना का सपना करीब साठ साल पुराना है. उसे 1956 में ही पूरा कर लिया जाता तो आज यह नौबत नहीं आती.
अभी यह प्रस्ताव आंध्र प्रदेश की विधानसभा के पास जायेगा. वहां से यह संसद में आयेगा. दोनों जगह से इस प्रस्ताव को पास कराने में कई तरह की चुनौतियां हैं. चूंकि भाजपा ने तेलंगाना बनाने का समर्थन किया है, इसलिए संसद से प्रस्ताव पास होने में अड़चन नहीं है, पर तेलंगाना के भौगोलिक स्वरूप को लेकर दिक्कतें पैदा होंगी और विधानसभा से प्रस्ताव पास कराना और भी मुश्किल होगा.
राज्य के गठन में अभी तमाम बाधाएं हैं. कृष्णा और गोदावरी नदियों के पानी का बंटवारा बेहद जटिल काम है. प्रशासनिक व्यवस्था, बिजलीघरों का वितरण, उद्योग–व्यापार और शिक्षण संस्थाओं का संतुलन आदि भी देखना होगा. आंदोलनकारियों के सवाल गलत नहीं हैं. केंद्र उनके जवाब देने के बजाय दूर से अपने फैसले सुना रहा है. राज्य की जनता जाने–अनजाने एक–दूसरे को शत्रुओं के रूप में देखने लगी है. यह अच्छी बात नहीं.