भारत के जिन क्षेत्रों में शाक्त संप्रदाय का आधिपत्य था, वहां आज भी दुर्गापूजा की परंपरा जीवित है. शेष भाग में रामायण की कथा का वर्चस्व था, अत: वहां विजयदशमी (दशहरा) धूमधाम से मनायी जाती रही है.
धनबाद से दून एक्सप्रेस से लौटते हुए सबेरे-सबेरे जब नींद खुली, तो ट्रेन सोन नदी के लंबे पुल से गुजर रही थी. शोणभद्र (सोन) के लंबे पाट में तांबई रंग के बालू में जगह-जगह उगी कास की हरी-घनी झाड़ियां कास के सफेद फूलों से लदी हुई थीं. हवा में लहराते उन फूलों का खिलना शरद के आगमन का लक्षण है. इन्हीं दिनों तालाबों में श्वेत कमल भी खिलता है, जिसे मिथिलांचल में ‘कोका’ कहते हैं. बचपन का संस्कार कुछ ऐसा है कि कास, कोका और हरसिंगार के फूलों का स्मरण होते ही अनायास गुग्गुल की गंध दोनों नथुनों में भर जाती है. सोन नदी की गोद में उन कास फूलों को देखते ही नवरात्रा के पंडाल, दुर्गा प्रतिमाएं, ढाक की आवाज, गुग्गुल की गंध- सभी एक साथ याद आ गयीं और स्मरण हो आया तीन साल के वय में पिताजी द्वारा रटाया गया वह देवी श्लोक, जिसे शाक्त-धर्म प्रधान मिथिला के गांवों में हर बालक को अक्षरारंभ से पहले रटाया जाता है – ‘सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखर-वासिनी। उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपति: पति:॥’ श्लोक का अर्थ है, (हिमालय के) शिखर पर रहनेवाली वह देवी तुझ पर प्रसन्न हों, जिन्होंने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त किया.
शरद का आना देवताओं के जागने और जगत की माता के प्रसन्न होने का समय-संकेत है. शरद यानी वर्षा ऋतु के कठिन कृषिकर्म के बाद देवता-पितरों की आराधना का अवसर. पहले पितरों का तर्पण, फिर देवताओं का पूजन. महालया तक पितृपक्ष चलता है, जिसमें पुण्य-तिथि के अनुसार कुल के पूर्वजों का तर्पण किया जाता है. उसके बाद नौ दिनों तक आद्याशक्ति की उपासना और कार्तिक मास तक कई अन्य देवों की उपासना की जाती है. इसीलिए वैदिक शरद को इतना महत्व देते हैं कि इसे वर्ष का पर्याय मान लेते हैं-‘जीवेम शरद: शतम’.
शारदीय नवरात्रा भारत के पूर्वी एवं पूर्वोत्तर राज्यों में ज्यादा लोकप्रिय है. बंगाल में नवरात्रा धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि सामाजिक उत्सव है. नवरात्रा यानी भगवती दुर्गा की पूजा-आराधना की नौ रातें. दुर्गा के नौ रूप- शैलपुत्री,ब्रह्नाचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री की क्रमश: आराधना की जाती है. इन्हीं रातों में साधक लोग मध्य रात्रि में जाग कर मंत्र सिद्ध करते हैं. भूमंडलीकरण, भ्रष्टाचार व भीषण महंगाई एक तरफ और आध्यात्मिक पथ पर चलनेवालों की उपासना एक तरफ. बंगाल तो इन दिनों लगभग पगला ही जाता है. नये वस्त्र, नये आभूषण, नया खान-पान, बंगला पत्रिकाओं के नये शारदीय विशेषांक और नये पर्यटन स्थलों कीयात्रा.
मेरा जन्म मिथिला के गांव में हुआ, जहां ब्राह्नाण नवरात्रा के दिनों में सर्वाधिक व्यस्त होते हैं. उनका काम है, ब्रह्नामुहूर्त में नदी-पोखरे में नहा कर और शिवालय में भोलेबाबा पर जल चढ़ा कर, यजमानों के घरों में विधिवत कलश स्थापित कर नवो दिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करना. प्रतिदिन पाठ की शुरुआत कवच के ‘यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम’ से होती है और यजमान के आर्थिक सामथ्र्य के अनुसार एक अध्याय, दो अध्याय का पाठ किया जाता है. बचपन में मैंने भी कई यजमानों के घर जाकर चंडीपाठ किया है. मेरी संस्कृत की नींव मजबूत थी, क्योंकि पिताजी ज्योतिष के विद्वान थे और मुङो भी विद्वान बनाना चाहते थे. इसलिए जिस वय में मेरे चचेरे भाई गुल्ली-डंडा और कबड्डी खेलते थे, उस वय में मैं ‘अमरकोश’ के श्लोक, ‘लघुकौमुदी’ के सूत्र-वार्तिक और ‘तर्कसंग्रह’ की परिभाषाएं रटने के लिए बाध्य था.
संस्कृत के श्लोक धड़ल्ले से पढ़ लेने की क्षमता के कारण मैं अन्य चचेरे भाइयों की तुलना में दो अध्याय जल्दी पूरा कर उठ जाता था. छठा और तेरहवां अध्याय वैसे बहुत छोटा है. यजमान संस्कृत से अपरिचित एक किसान थे. उन्हें लगता था कि मैं अधूरा अध्याय छोड़ कर ही उठ जाता हूं. इस भ्रांति को यजमान पिताजी के समक्ष रखे कैसे? पिताजी बड़े ही क्रोधी, स्वाभिमानी और अनुशासनप्रिय थे. वे केवल एक बड़ी ड्यौढ़ी में संपुट पाठ किया करते थे. संपुट पाठ यानी एक निश्चित श्लोक को सप्तशती के हर श्लोक के आगे भी और पीछे भी पढ़ना. इसमें पांच-छह घंटे लग जाते हैं, वह भी उनको जो इस पाठ में शूर-वीर माने जाते हैं. यह मेरे जैसे बछड़ों के वश का काम नहीं था. इसलिए यह दुष्कर काम हमें नहीं दिया जाता था. हमें फुटकर एक-दो अध्याय के पाठ का काम दिया जाता था. पूजा के समय प्रसाद के रूप में चढ़ाये गये खीरा के कतरे की खुशबू और हरसिंगार (पारिजात) फूल की भीनी-भीनी सुगंध बहुत सुखद लगती थी. इस सात्विक सुगंध के सहारे ही हम विप्रबटु नौ दिन चंडीपाठ का नीरस काम किया करते थे.
दशमी के दिन कलश के नीचे उगे जौ के अंकुर ‘जयन्ती’ को उखाड़ कर यजमानों के सिर पर शिखा में बांधते थे, जिसके बदले में हमें तांबे के एक पैसे से लेकर चौअन्नी तक मिल जाती थी. इसके अलावा नौ दिन पाठ की दक्षिणा में दो रुपये और ‘सिदहा’ (भोजन के बदले अनाज) के रूप में आटा-चावल-दाल-आलू मिल जाते थे. उस दिन मेरी मां अपने छोटे-से कमाऊ पूत की कमाई के पैसे अपने आंचल के खूंट में सहेज कर निहाल हो जाती थी और उसमें से चार आने दशहरे के मेले में जाकरझिल्ली-कचरी (नमकीन) खाने के लिए हम भाई-बहनों को दे देती थी. मेले की ङिाल्ली-कचरी का स्वाद तो भूल गया, मगर ‘जयन्ती’ (जौ का बिरवा) यजमानों की शिखा में बांधने का मंत्र आज भी याद है- ‘जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोùस्तु ते॥’ इस श्लोक में आद्याशक्ति के प्रचंड रूप काली को भद्रकाली के रूप में वंदित किया गया है.
मिथिला क्षेत्र मुख्यत: शक्ति का उपासक रहा है. वहां के लोगों के लिए यह उक्ति पंडितों में प्रसिद्ध है- ‘अन्त: शाक्ता: बहि: शैवा: सभा मध्ये तु वैष्णवा:’ यानी भीतर से वे शक्ति के उपासक हैं, व्यावहारिक रूप में शिव के भक्त हैं और सभा-गोष्ठियों में वैष्णव धर्म के अहिंसा-व्रत के प्रचारक हैं.
बंगाल जब संयुक्त था, यानी असम, बिहार, ओड़िशा आदि भी उसी के अंतर्गत थे, तब शास्त्रों को बनाने का काम मिथिला के अयाची और कणाद जैसे प्रकांड शास्त्रज्ञों ने किया और उनका संरक्षण-परिवर्धन शेष क्षेत्र अर्थात् बंगाल, असम, ओड़िशा ने किया. भारत के जिन क्षेत्रों में शाक्त संप्रदाय का आधिपत्य था, वहां आज भी दुर्गापूजा की परंपरा जीवित है. शेष भाग में रामायण की कथा का वर्चस्व था, अत: वहां विजयदशमी (दशहरा) धूमधाम से मनती रही है. इसमें रामलीला मंचित होती है और दशानन रावण का पुतला जलाया जाता है.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
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