विधायिका भ्रष्ट और अपराधी तत्वों से मुक्त रहे- इसके लिए चुनाव-प्रक्रिया में सुधार का रास्ता सुझाया जाता रहा है. इसी भावना से नागरिक संगठन मांग करते रहे हैं कि मतदाताओं के पास अपने निर्वाचन-क्षेत्र में चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों को मतदान के जरिये खारिज करने का विकल्प होना चाहिए. विधायिका में दागियों और चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए नागरिक संगठनों की इस मांग को व्यापक जनसमर्थन हासिल है.
विधायिका को दागी सांसदों से मुक्त रखने की इस जनभावना के मद्देनजर ही सालों पहले (2004 में) एक नागरिक संगठन (पीयूसीएल) ने जनहित याचिका के जरिये न्यायपालिका से अपील की थी कि ईवीएम में एक बटन ऐसा भी होना चाहिए, जिसे दबा कर कोई मतदाता चाहे तो अपने निर्वाचन-क्षेत्र के सारे उम्मीदवारों को अयोग्य मान कर विरोधस्वरूप उन्हें खारिज कर सके. दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में खारिजी मतदान का प्रावधान है. फिर, अपने देश में सांसदों को सदन में मतदान के लिए यह विकल्प दिया गया है.
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में इस जनहित याचिका को विचारयोग्य मान कर उसे संविधान पीठ के हवाले कर दिया. इस बीच चुनाव आयोग ने भी सरकार से कहा कि वह ईवीएम में मतदाताओं के लिए खारिजी मत दर्ज कराने का विकल्प मुहैया कराये. नकारात्मक वोटिंग को मतदाता का अधिकार माननेवाला सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला इसी पृष्ठभूमि में आया है.
यह फैसला यूपीए सरकार के लिए एक झटके की तरह है, क्योंकि सजायाफ्ता सांसदों-विधायकों की सदस्यता खत्म करने के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था तो उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने अध्यादेश का रास्ता अख्तियार किया, जबकि खुद राष्ट्रपति और कुछ कांग्रेसी सांसद भी इस अध्यादेश से नाखुश नजर आ रहे हैं. दूसरे, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से चुनाव-सुधार की प्रक्रिया को गति मिली है और मतदाता मजबूत हुआ है, क्योंकि यह फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक को नया आयाम देता है. इसमें खारिजी वोट डालनेवाले मतदाता की पहचान गुप्त रहेगी. साथ ही खारिजी वोटों की संख्या जीतनेवाले उम्मीदवारों के वोटों से अधिक होने पर उनके चयन पर सवाल भी उठेंगे.