जिन्हें हम पूजते हैं, वहीं हमें लूटते हैं. तो फिर इतनी श्रद्धा के साथ हम उन्हें भगवान का दरजा क्यों देते हैं? संत आसाराम हो या और कोई पाखंडी, जो अपने आपको संत कह कर लोगों की खून–पसीने की कमाई से भोग–विलास और रासलीला रचाता हो, क्या वह संत हो सकता है?
आसाराम जिस तरह से धर्म की चादर ओढ़ कर अनैतिकता का काम कर रहे थे, वैसे कई पाखंडी देश में फैले पड़े हैं. लेकिन अंधविश्वासियों की अंधभक्ति से उनकी दुकान सालों से चलती आ रही है. यह विडंबना ही है कि 33 करोड़ देवी–देवताओं के देश भारत में ऐसे झूठे लोग पूजे जा रहे हैं? क्या हमारा अपने आराध्यों पर से भरोसा उठ गया है, जो ऐसे ढोंगियों की शरण में जाते हैं? जितना चढ़ावा हम उनके यहां चढ़ाते हैं, अगर उसका आधा भी गरीब–दुखियों की सेवा में लगायें, तो ऊपरवाला ज्यादा प्रसन्न होगा.
(दीपक कुमार सिंह, हजारीबाग)