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उदारवाद कहीं बचा है क्या!

।।राजेंद्र तिवारी।।(कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर)शुक्रवार को पटना में प्रो प्रताप भानु मेहता को सुन रहा था. पहले तो यह जान कर ही ताज्जुब हुआ कि चंद्रशेखर स्मृति व्याख्यान के लिए प्रो मेहता को आमंत्रित किया गया है. दरअसल, हमारे दिमागों की कंडीशनिंग ही इस तरह से है कि ऐसे आयोजनों पर सहज ही आश्चर्य में […]

।।राजेंद्र तिवारी।।
(कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर)
शुक्रवार को पटना में प्रो प्रताप भानु मेहता को सुन रहा था. पहले तो यह जान कर ही ताज्जुब हुआ कि चंद्रशेखर स्मृति व्याख्यान के लिए प्रो मेहता को आमंत्रित किया गया है. दरअसल, हमारे दिमागों की कंडीशनिंग ही इस तरह से है कि ऐसे आयोजनों पर सहज ही आश्चर्य में पड़ जाते हैं, जैसे कुछ बहुत अस्वाभाविक घटना हो रही हो. मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूं. लिहाजा, मेरा ताज्जुब भी स्वाभाविक था. मुझे पिछले दिनों दिल्ली में हंस की संगोष्ठी का किस्सा याद आ गया. इसमें विद्रोही कवि वरवर राव, अरुंधती राय, गोविंदाचार्य, अशोक वाजपेयी वक्ता के तौर पर आमंत्रित थे. वरवर राव दिल्ली पहुंच कर भी कार्यक्रम में इसलिए नहीं गये कि वहां अशोक वाजपेयी भी आमंत्रित हैं जो बड़े कारपोरेट संस्थानों से जुड़े हुए हैं और अरुंधती राय इस कार्यक्रम में सिर्फ इसलिए नहीं आयीं कि गोविंदाचार्य के साथ मंच शेयर करना पड़ेगा. राजेंद्र यादव ने हंस के ताजा अंक में लिखा है- इस बार की संगोष्ठी के लिए ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय को चुनने के पीछे पिछले वर्षो में घटित वे सरकारी या गैर सरकारी गतिविधियां थीं जहां रचनात्मक अभिव्यक्ति को लेकर हंगामे हुए, चाहे हुसैन की पेंटिंग्स थीं या सलमान रुश्दी की रचनाएं, क्रांतिकारी किस्म के नाटक थे या दूसरे इसी तरह के रचनात्मक आयोजन. हमें यह जानना जरूरी लगा कि इस विषय पर विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े और अन्य स्वतंत्र बुद्धिजीवी क्या सोचते हैं. मुझे नहीं लगता कि राजेंद्र यादव ने जो लिखा है, इसमें कहीं कोई नीयत की गड़बड़ी है. लेकिन हमारी दिमागी कंडीशिनंग ऐसी है कि जैसे जो हमारी धारा के साथ नहीं हैं और कई मामलों में ठीक उलट हैं, उनकी बात हमें क्यों सुननी चाहिए और उनके साथ बात कैसे हो सकती है. और यही हंस की स्थापना संगोष्ठी में हुआ.

पिछले हफ्ते एक और किस्सा हुआ. ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कन्नड़ लेखक और विचारक डॉ यूआर अनंतमूर्ति ने कहा कि वे ऐसे देश में नहीं रहना चाहेंगे जिस देश का शासन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में हो. 81 वर्षीय अनंतमूर्ति का मानना है कि उनके जैसा आदमी, जो हमेशा सरकार में मौजूद तानाशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ता रहा, भारत में नहीं रह सकता, यदि अगले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी सत्ता पर काबिज हो जाते हैं. मजेदार बात यह है कि डॉ अनंतमूर्ति राम मनोहर लोहिया, जेपी जैसे कई बड़े समाजवादी नेताओं के साथ रहे हैं और कर्नाटक में समाजवादी आंदोलन का हिस्सा रहे हैं. उन्होंने कहा कि जब मैं नौजवान था, प्रधानमंत्री नेहरू की आलोचना करता रहता था, लेकिन उनके समर्थकों ने कभी मुझ पर हमला नहीं किया. वे लोग हमेशा मेरे दृष्टिकोण का आदर करते थे, लेकिन मोदी के समर्थक तो फासिस्टों जैसा व्यवहार करते हैं. मैं बहुत बूढ़ा और बीमार हूं और यदि मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो यह मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा होगा. मैं जी न पाऊंगा. डॉ अनंतमूर्ति की पीड़ा समझ में आती है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति जिस तरह से की गयी, वह लोकतंत्र के मूल आधार से मेल नहीं खाती. हालांकि उनके इस बयान में यह दर्द भी छिपा हुआ है कि दूसरे विचारों का सम्मान करने की प्रवृत्तियां समाज व राजनीति में खत्म हो रही हैं.

एक और किस्सा. शनिवार को पटना में सुभाषिनी अली आयी थीं. उनसे बातचीत में एक संवाददाता ने पूछ लिया कि जैसे हिंदुत्ववादी ताकतों की बात की जाती है, क्या मुसलिमवादी ताकतें भी देश में मौजूद हैं. सवाल सुनते ही जवाब देने की जगह संवाददाता पर भाजपाई होने की तख्ती लगा दी सुभाषिनी ने. क्या इस सवाल का संयमित उत्तर नहीं दिया सकता था.

प्रो मेहता अपने व्याख्यान में कह रहे थे कि हमारे यहां तर्क समझाने के लिए नहीं, दूसरे को काटने के लिए किया जाता है और लोग पहले ही जान लेते हैं कि अमुक विचारधारा का आदमी है तो अमुक मुद्दे पर अमुक तर्क ही देगा. यानी सवाल से पहले ही पता है कि जवाब क्या मिलने वाला है. यहां बहुत जोरदार उदाहरण है नरेंद्र मोदी के समर्थकों का. आप एक भी ऐसा सवाल करें जो उनके समर्थकों के लिए असुविधाजनक हो, फिर देखिए कैसे आपको देशद्रोही से शुरू करके आपकी मां और बहनों को भी न्योतने लगेंगे. यहां तो तर्क भी नहीं है. स्थितियां इतनी खराब हो चुकी हैं कि आप यदि हिंदू हैं तो मुसलिम समुदाय के पक्ष में खड़े होकर देखिए और यदि मुसलिम हैं तो हिंदुओं के पक्ष में खड़े होकर देखिए, कैसे आपका समुदाय ही आपको अपना सबसे बड़ा सामुदायिक दुश्मन घोषित करने लगेगा. कहां है व्यक्तिगत स्वतंत्रता या सामूहिक स्वतंत्रता. राजनीति जिसे समाज के हित समझते हुए उसके लिए राह बनानी होती है, खुद समुदाय-समूहों की भेड़चाल के पीछे चल रही है. उन्होंने एक बात और बहुत कायदे से बतायी कि उदारवाद है क्या. जो बात समूह के तौर आपको स्वेच्छा से स्वीकार नहीं है और आप उसे अपने समूह पर लागू होते नहीं देखना चाहते, लेकिन जब आपके समूह के भीतर कोई व्यक्ति समूह की परंपरा आदि को स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करता तो उसे भी यह छूट मिलनी चाहिए कि वह समूह के भीतर रह कर भी अपनी स्व-इच्छा से जी सके. इस स्थिति की ओर बढ़ना ही उदारवाद है. हो सकता है कि बहुत से लोग इससे सहमत न हों, लेकिन इसके जरिये प्रो मेहता ने जो सवाल खड़ा किया, वह बहुत अहम है.

लोकतंत्र का मूल आधार क्या है? शायद उदारता. यही कारण है कि इस तंत्र में धुर दक्षिणपंथी फासिस्ट ताकतों से लेकर राष्ट्रवादी, स्वार्थवादी, मध्यमार्गी, समाजवादी, वामपंथी और माओवादी जैसे धुर वामपंथी के लिए स्पेस है. यही उदारता लोकतंत्र की खूबसूरती है. डेमोक्रेट होने का मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि हम वाम या दक्षिण नहीं हो सकते. प्रो मेहता ने एक बहुत मार्के की बात कही. उन्होंने कहा कि नेहरू और उनकी पीढ़ी के नेता ही इस देश के अंतिम उदारवादी थे. जो अपने को सेकुलर कहते हैं, उनमें भी उदारता नहीं और जो अपने को हिंदुत्ववादी कहते हैं, उनमें भी उदारता नहीं. जबकि उदारवाद ही लोकतंत्र का मूल है. इसका सिमटना क्या लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं है?

और अंत में..

अपने व्याख्यान के अंत में, प्रो मेहता ने मुक्तिबोध की एक कविता की कुछ पंक्तियां पढ़ीं-

एक पैर रखता हूं/ कि सौ राहें फूटतीं

व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूं

बहुत अच्छे लगते हैं

उनके तजुर्बे और अपने सपने

सब सच्चे लगते हैं

अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है/ मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूं

जाने क्या मिल जाए!!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में

चमकता हीरा है

हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है

प्रत्येक सुष्मित में विमल सदानीरा है

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में

महाकाव्य-पीड़ा है

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