झारखंड का शाब्दिक अर्थ है वनों का टुकड़ा. इस राज्य का निर्माण ही जल, जंगल व जमीन को बचाने व इसके समुचित विकास की सोच पर आधारित था. लेकिन, झारखंड के निर्माण के बाद सबसे उपेक्षित वन विभाग ही है. यह विभाग लूट व भ्रष्टाचार के लिए काफी चर्चित रहा है. राज्य में पांच करोड़ रुपये चार पेड़ पर खर्च कर दिये गये. वहीं विभाग का हाल यह है कि विभागीय पुनर्गठन के बाद भारतीय वन सेवा के अधिकारियों के 27 पद खाली हैं.
इन पदों पर पदस्थापन के लिए प्रधान मुख्य वन संरक्षक बार-बार आग्रह कर रहे हैं, लेकिन इनकी सुनी नहीं जा रही है. हालत यह है कि कर्मियों की कमी के कारण भारत सरकार की महत्वाकांक्षी वाटरशेड योजना अधर में है. यहां महत्वपूर्ण यह है कि झारखंड के समूचे भू-भाग का 28 फीसदी वन क्षेत्र है. यह प्रतिशत राष्ट्रीय भू-भाग के परिप्रेक्ष्य में 3.34 है. ऐसे में झारखंड वाटरशेड योजना के लिए काफी महत्वपूर्ण है.
बावजूद इसके वन विभाग को दरकिनार कर दिया गया है. आज स्थिति यह है कि इन्हीं सब मुद्दों को लेकर अलग राज्य की मांग करनेवाले झारखंड मुक्ति मोरचा के सरकार में रहते हुए भी स्थिति जस की तस बनी हुई है. वन विभाग पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. सूबे के मुखिया को इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. झारखंड के लिए महत्वपूर्ण है कि यहां का वन क्षेत्र काफी घना है. इसका फायदा सरकार कई मायने में उठा सकती है. यहां का खूबसूरत वन क्षेत्र पर्यटन के दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण है. साथ ही, यहां के वन राज्य की बड़ी आबादी को रोजगार भी दे सकते हैं.
जरूरत है सही दृष्टिकोण व दूरगामी सोच की. लेकिन आज इसके उलट देखा जा रहा है कि लगातार वनों की कटाई हो रही है. इसको देखने वाला कोई नहीं है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कई पद दोहरे प्रभार में चल रहे हैं. रांची के अधिकारी को जामताड़ा का प्रभार दिया गया है, जो कहीं से भी उचित नहीं है. रांची के अधिकारी जामताड़ा आकर अपने काम-काज पर कितनी नजर रख सकेंगे? इन सभी खामियों को दूर करने की जरूरत है. झारखंड सरकार के पास वन विभाग को दुरुस्त कर आमदनी बढ़ाने का सुनहरा मौका है. तभी यहां के आदिवासी समुदाय का भी विकास होगा.