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कुलीन साजिश है हिंदी पखवाड़ा

।।सुभाष चंद्र कुशवाहा।।(स्वतंत्र टिप्पणीकार)हिंदी के लिए कसम खाते-चबाते सत्ता तंत्र के बीच कब किसके आदेश से सरकारी दूरदर्शन ‘डीडी नेशनल’, ‘डीडी न्यूज’, ‘डीडी स्पोर्ट्स’ में बदल गया, पता ही नहीं चला. जिन शब्दों के सरल हिंदी शब्द मौजूद हैं, जैसे-’राष्ट्रीय’, वहां अंगरेजी शब्दों को देवनागरी में लिख देने का चलन हमारे कर्णधारों के मन में […]

।।सुभाष चंद्र कुशवाहा।।
(स्वतंत्र टिप्पणीकार)
हिंदी के लिए कसम खाते-चबाते सत्ता तंत्र के बीच कब किसके आदेश से सरकारी दूरदर्शन ‘डीडी नेशनल’, ‘डीडी न्यूज’, ‘डीडी स्पोर्ट्स’ में बदल गया, पता ही नहीं चला. जिन शब्दों के सरल हिंदी शब्द मौजूद हैं, जैसे-’राष्ट्रीय’, वहां अंगरेजी शब्दों को देवनागरी में लिख देने का चलन हमारे कर्णधारों के मन में शायद शर्म पैदा नहीं करता. आजादी के 66 वर्ष बाद भी राष्ट्रभाषा की चिंता के लिए एक पखवाड़ा चुन लिया जाता है. उसमें कुछ कसमें खायी जाती हैं, कुछ संकल्प लिये जाते हैं और सरकारी बजट का ‘सदुपयोग’ कर लिया जाता है. जिस आजाद मुल्क में पढ़े-लिखे, संभ्रांत और सभ्य होने का प्रतीक अंगरेजी भाषा हो, संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका हर कहीं अंगरेजी सम्मानित हो, सरकारी बैठकों के नामपट्ट अंगरेजी में, हिंदी फिल्मों के नाम रोमन लिपि में और हिंदी अखबार के शीर्षक अंगरेजी में लिखे जा रहे हों, वहां इस भाषा की रुग्णता को समझा जा सकता है.

एक साजिश के तहत, देश के कुलीन तबके ने करोड़ों गरीबों पर राज करने के लिए, विदेशी रहन-सहन, सुख-सुविधाओं को भोगने के लिए, साथ ही सत्ता और उच्च प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाये रखने के लिए भारतीय भाषाओं को पछाड़ कर अंगरेजी भाषा को कुलीनों की भाषा बनाने की योजना बना रखी है. अब तो हर किसी के दिमाग में एक बात बिठा दी गयी है कि सारा ज्ञान अंगरेजी भाषा से संभव है. हम इस सवाल का जवाब नहीं चाहते कि रूस, चीन, जापान, इजराइल, फ्रांस, जर्मनी जैसे देश जब अपनी भाषा में ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा पा सकते हैं, तो करोड़ों लोगों की भाषा हिंदी में यह क्यों संभव नही है? नयी तकनीक के माध्यम से भाषा का वर्चस्व स्थापित किया जा रहा है. यह सिर्फ अंगरेजी की पक्षधर है. सारे आविष्कार इसी भाषा में हो रहे हैं. एक तरह से हम भाषाई गुलामी की ओर बढ़ने को मजबूर कर दिये गये हैं. गरीब मुल्कों के पढ़े-लिखे छात्र, वैज्ञानिक विकसित देशों में जाकर जो आविष्कार कर रहे हैं, वह उन्हीं की भाषा और मुल्क के अनुरूप होती है. प्रामाणिक शब्दकोशों का निर्माण करने और अंगरेजी भाषा की तरह ‘स्पेलिंग चेक’ की सुविधा कंप्यूटर पर उपलब्ध कराने की दिशा में काम नहीं हो रहा है. इस दिशा में जो छिटपुट काम हुए हैं, वे कंपनियों द्वारा बाजार की जरूरतों के मुताबिक हुए हैं, न कि हिंदी भाषा को समृद्घ करने के लिए.

हिंदी भाषा में कुछ भी लिखा-बोला जा सकता है. ‘कृपया’ के बजाय ‘कृप्या’ तो तमाम सरकारी विभागों में लिखा दिख जाता है. हिंदी में न तो लिंग का ख्याल करने की जरूरत है, न शब्दों की शुद्धता की. तमाम चैनलों की हिंदी भाषा में अशुद्धियां देखी जा सकतीं हैं. इसके लिए न तो शर्म करने की आवश्यकता है, न खेद व्यक्त करने की. हिंग्लिश के प्रचलन ने तो हिंदी भाषा के तमाम शब्दों को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर देने का संकट पैदा कर दिया है. बेशक हिंदी भाषा में दूसरी भाषा के शब्दों को समाहित करने से कोई आफत नहीं आनेवाली है, परंतु दूसरी भाषा के ऐसे शब्दों को ही अपनाना चाहिए जिसके लिए हिंदी में सरल शब्द नहीं बने हैं, जैसे कि कंप्यूटर, की बोर्ड, चैनल आदि.

हिंदी भाषी समाज की हिंदी का स्तर तेजी से गिरा है. इस साल उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षा में सबसे ज्यादा छात्र हिंदी में ही अनुत्तीर्ण हुए. विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़नेवालों की संख्या तेजी से गिर रही है. हिंदी भाषा और साहित्य समझने-पढ़ने की चीज नहीं मानी जा रही है. नयी पीढ़ी के लिए देश के सैकड़ों पुराने-नये प्रतिष्ठित लेखकों का लिखा साहित्य काम का नहीं है. वे तो हैरी पॉटर की फंतासियों को पसंद कर रहे हैं. आम जनता की भाषा से इन्हें घृणा हो रही है. ऐसी पीढ़ी का देश की आम जनता के प्रति कैसा व्यवहार होगा, कल्पना कर सकते हैं.

इतिहास गवाह है कि किसी राष्ट्र को उसकी भाषा और साहित्य से काट कर आसानी से गुलाम और पिट्ठू बनाया जा सकता है. वैश्वीकरण इसी उद्देश्य से भाषाओं का शिकार कर रहा है. वैसे, आजाद भारत में हिंदी को सम्मानजनक स्थान दिलाने का प्रयास कभी हुआ ही नहीं. आज भी संवैधानिक मजबूरी व हिंदी पखवाड़ा मना कर सरकारें हिंदी का श्रद्ध कर रही हैं. ये हर साल हिंदी के उत्थान के लिए कसमें खाती हैं और पूरे साल अंगरेजी को खाद-पानी देती रहतीं हैं. देश के निजी स्कूलों में हिंदी में बतियाने पर पाबंदी है. भारतीय भाषाओं के सवाल पर हम क्षेत्रीयता और संप्रदाय में बंटे नजर आते हैं, पर विदेशी भाषा के लिए पलकें बिछा देते हैं. अंगरेजी के हम विरोधी नहीं हैं, पर भारतीय भाषाओं की कीमत पर हमें यह स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए. एक अरब से अधिक लोगों द्वारा बोली-समझी जानेवाली भाषा को उसी के देश में हेय समझना नि:संदेह स्वाभिमान और मौलिक विकास के रास्ते को बंद करना है.

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