मर्यादित आचार-विचार, निर्मल व शुद्घ व्यवहार व सादगीपूर्ण जीवन हमेशा से ही हमारी पूंजी रहे हैं़ आज यह पूंजी खतरे में है. इसे बचा लिया, तो जीवन में आनंद-ही-आनंद है. अन्यथा बरबादी का यह दौर कहां जा कर रुकेगा, यह बताने की आवश्यकता नहीं है. ऐसे में युवाओं को अपनी जीवनशैली बदलनी होगी.
समाज के वर्तमान स्वरुप को देख कर कभी-कभी मन बेचैन हो जाता है. ऐसा प्रतीत होता है जैसे लोग जानबूझ कर एक ऐसी दिशा में बढ़ रहे हैं, जहां कुछ पाने को तो नहीं है, लेकिन खोना बहुत कुछ पड़ सकता है. जीवनशैली, आचार-विचार व कार्यप्रणाली में इतने बदलाव आ गये हैं कि इनका असर लोगों के स्वास्थ्य, दूसरों के साथ संबंध, काम-धंधे व सोचने-विचारने की क्षमता पर भी दिखने लगा है.
पहले लोग स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से कोसों दूर रहते थ़े मधुमेह, हृदय रोग व किडनी संबंधी बीमारियों से पीड़ित जनों की संख्या न के बराबर थी. इसकी वजह थी कि लोग बड़े ही परिश्रमी हुआ करते थ़े सुबह से शाम तक लगभग हर काम में शारीरिक व मानसिक रूप से उन्हें मेहनत करनी पड़ती थी. सुबह उठ कर कुआं से पानी निकालना, खेतों में काम करना, मीलों पैदल चल कर बाजार जाना, वजनदार सामान उठाना रोजर्मे की जिंदगी का हिस्सा थे. इससे स्वास्थ्य उत्तम बना रहता था. बीमारियां पास भी नहीं फटकती थीं. रोग ने जकड़ भी लिया, तो आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से इलाज कर लेते थ़े दिमागी तौर पर अधिक परेशान हुए, तो योग व प्राणायाम से खुद को नियंत्रित कर लेते थ़े
मेहनत का अभाव
बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं कसने का खामियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है. पहले खाद्य पदार्थ बहुतायत में उपलब्ध थ़े आज इसका उलटा है़ यही वजह है कि अनाज व खाने-पीने की अन्य वस्तुओं में मिलावट बढ़ गयी है. ऐसे में स्वास्थ्य तो प्रभावित होना ही है. मेरी दादी ने सौ वर्ष से भी अधिक समय तक जिंदगी का आनंद लिया. उनकी जीवनशैली एकदम साधारण और मेहनत से भरी थी. हफ्ते में एक दिन व्रत करके नमक छोड़ने की परंपरा थी, ताकि शरीर के अंदर की मशीनों को भी सुस्ताने का वक्त मिल़े आज लोग सुविधाओं, भोग-विलास की वस्तुओं के पीछे ऐसे आंख मूंद कर दौड़े जा रहे हैं कि आज नहीं, तो कल इसके कुप्रभाव देखने को मिलने ही हैं. औसत आयु भी लगातार घटती ही जा रही है.