।। रवि दत्त बाजपेयी ।।
न्यायमूर्ति नहीं न्यायप्रिय-2
मोहम्मद हिदायतुल्लाह देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति भी थे
न्यायमूर्ति मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने अपनी आत्मकथा ‘माय ओन बोसवेल’ में अपने परिवार के बारे में लिखा, ‘वाइज ए तंग नजर ने मुझे काफिर जाना, और काफिर ये समझता है कि मुसलमां हूं मैं,’ हिदायतुल्लाह को सिर्फ सांप्रदायिक तंग नजर से देखना है, तो वह भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले पहले मुसलिम थे, लेकिन यह एक उदभट् विद्वान, अद्वितीय भाषाविद्, विलक्षण न्यायविद् और संपूर्ण हिंदुस्तानी के आंकने का बहुत संकीर्ण नजरिया होगा.
इनके बड़े भाई मोहम्मद इकरामउल्लाह आइसीएस थे और आजादी के बाद इकरामउल्लाह पाकिस्तान चले गये.वहां के पहले विदेश सचिव बने. मोहम्मद हिदायतुल्लाह एक ऐसे विरले इनसान थे, जिनकी न्यायप्रियता और भारतीयता दोनों ही अद्वितीय रही, हिदायतुल्लाह अकेले ऐसे भारतीय हैं, जिन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति और कार्यवाहक राष्ट्रपति बनने का गौरव मिला है और वह भी तब, जब उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया.
वर्ष 1973 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर कनिष्ठ व्यक्ति की नियुक्ति पर मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने कहा था– ‘ इससे सुप्रीम कोर्ट में ऐसे व्यक्ति नियुक्त किये जायेंगे, जो भविष्यद्रष्टा जज नहीं, बल्कि अपने सुखद भविष्य के लिए की ओर देखने वाले न्यायाधीश होंगे.’
17 दिसंबर 1905 को जन्मे हिदायतुल्लाह ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से उच्च–शिक्षा प्राप्त करने के साथ ही 1930 में कानून की पढ़ाई पूरी की. मात्र 38 वर्ष की आयु में मध्य प्रांत व बरार राज्य के महाधिवक्ता, 49 वर्ष की आयु में मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस और 52 वर्ष की आयु में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त होनेवाले हिदायतुल्लाह इन पदों तक पहुंचने वाले सबसे युवा व्यक्ति थे.
1968-1970 तक न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे, सेवानिवृत्ति के बाद वर्ष 1979 में उन्हें सर्वसम्मति से भारत का उपराष्ट्रपति निर्वाचित किया गया. 1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति चुनावों में भाग लेने के लिए उपराष्ट्रपति वीवी गिरी ने अपने पद से इस्तीफा दिया, तो हिदायतुल्लाह कुछ दिनों के लिए भारत के कार्यवाहक राष्ट्रपति भी रहे.
हिदायतुल्लाह केवल एक न्यायाधिकारी नहीं थे, उनकी कार्यशैली इतनी निष्पक्ष और गरिमामय थी कि उनके बड़े से बड़े फैसलों पर कभी भी न्यायिक सक्रियता (ज्युडिशियल एक्टिविज्म) का आक्षेप नहीं लगा और उनके न्याय संगत फैसलों को सहज स्वीकार किया गया. राजनीतिक रूप से बहुत चुनौतीपूर्ण अदालती मामलों में भी वे एक अनुकरणीय उदाहरण हैं.
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की पहली निर्वाचित केरल सरकार के मुख्यमंत्री रहे इएमएस नंबूदिरिपाद ने अदालतों पर बुर्जुआ होने और अमीर लोगों के साथ पक्षपात करने का आरोप लगाया, नंबूदिरिपाद पर अदालत की अवमानना का मुकदमा चला. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश हिदायतुल्लाह ने नंबूदिरिपाद को दोषी पाते हुए उन्हें 50 रुपये का सांकेतिक जुर्माना देने का आदेश दिया.
बिहार के दौरे पर गये डॉ राम मनोहर लोहिया को पटना के डीएम ने भारत सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया, तो डॉ लोहिया ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ याचिका दायर की.
डॉ लोहिया को रिहा करने का आदेश देते हुए अपने निर्णय में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने कहा ‘कानून और व्यवस्था, नागरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा एक केंद्र के तीन चक्र हैं, जिनमें कानून और व्यवस्था सबसे बाहरी और राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे भीतरी और छोटा वृत्त है, किसी गतिविधि का कानून–व्यवस्था पर असर पड़ता हो, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि इससे नागरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी खतरा हो.’ 1968 में मधु लिमये लखीसराय में कानून और व्यवस्था भंग करने के अंदेशे में गिरफ्तार किये गये, लिमये की रिहाई का फैसला देते हुए न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने कहा, ‘ राज्य, केंद्र बिंदु में है और समाज इसके चारों ओर है, सामाजिक गड़बड़ी का दायरा बहुत व्यापक है और सिर्फ शांति–व्यवस्था पर अंदेशे को राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे के बराबर नहीं माना जा सकता है.’
हिदायतुल्लाह की कानूनी विद्वता भारतीय न्यायपालिका के अनेक ऐतिहासिक मामलों में दर्ज है और उनके निर्णय आज भी बहुतायत से उद्धृत किये जाते हैं.
रांची शहर के प्रसिद्ध संत जेवियर महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य फादर प्रूस्ट ने बिहार सरकार द्वारा इस संस्थान के संचालन व नियुक्तियों में दखलंदाजी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया, हिदायतुल्लाह ने अपने निर्णय में अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ सरकारी हस्तक्षेप को गैरकानूनी करार दिया था.
‘ब्लिट्ज’ पत्रिका में प्रकाशित समाचार पर एक निजी कंपनी ने मानहानि का दावा किया, बॉम्बे हाइकोर्ट में सुनवाई के दौरान उस कंपनी ने सुनवाई प्रक्रिया के प्रकाशन पर रोक लगाने में सफलता पायी. ब्लिट्ज ने इस रोक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, अपने अन्य आठ सहयोगी जजों से अलग मत देते हुए हिदायतुल्लाह ने कहा कि ‘ जिन मुकदमों की सार्वजनिक सुनवाई हो उनके बारे में समाचार प्रकाशन रोकना अनुचित है.’
न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने हिदायतुल्लाह को भारतीय न्यायपालिका में मानवाधिकारों से संबंधित विषयों का प्रवर्तक माना, ‘संविधान निर्माण के पहले 20 वर्षो में हिदायतुल्लाह ने बिनी किसी पूर्व दृष्टांत के मूल अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रता और संवैधानिक सीमाओं की जो व्याख्या प्रस्तुत की, उससे उनके उत्तराधिकारियों की राह बहुत सुगम हो गयी.’
उपराष्ट्रपति हिदायतुल्लाह, राज्य सभा के सभापति भी रहे, उनकी नम्रता और प्रत्युत्पन्नमति के कई उदाहरण हैं.
देश में प्याज की भारी कमी पर सदन का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक सदस्य गले में प्याज की माला पहन कर आये, सभापति हिदायतुल्लाह ने माननीय सांसद से पूछा आप कार के टायर या जूतों की कमी के प्रति ध्यानाकर्षण किस तरह करेंगे? सांसद महोदय की माला व शक्ल दोनों उतर गयी.
18 सितंबर, 1992 को हिदायतुल्लाह का निधन हो गया, पत्रकार खुशवंत सिंह ने हिदायतुल्लाह की आत्मकथा की समीक्षा में लिखा, यह पुस्तक बेंजामिन फैंकलिन के नुस्खे पर सटीक बैठती है; ‘यदि अपनी मृत्यु के बाद भी स्मरणीय रहना चाहते हो, तो कुछ ऐसा लिखो जो पढ़ने लायक हो या कुछ ऐसा करो जो लिखने लायक हो,’ अपने जीवनकाल में हिदायतुल्लाह ने दोनों ही मुकाम हासिल किये.
इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में आज आप रू–ब–रू होंगे न्यायमूर्ति मोहम्मद हिदायतुल्लाह से, जिनकी न्यायप्रियता और भारतीयता, दोनों ही अद्वितीय रही. सुप्रीम कोर्ट की नियुक्ति में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा कथित तौर पर हस्तक्षेप के पहले की पीढ़ी के वे ऐसे न्यायविद् हुए, जिन्हें अध्ययन, विश्लेषण व न्यायप्रियता के लिए हमेशा याद किया जायेगा. देश की न्यायपालिका के दूरदर्शी जजों में उनका नाम अग्रणी है.