चार दशक से भी ज्यादा समय से रंग निर्देशन के क्षेत्र में सक्रिय राजिंदर नाथ भारतीय थियेटर का जाना-माना नाम हैं. उनके नाटक थियेटर प्रेमी दर्शकों द्वारा खूब सराहे गये हैं. वरिष्ठ नाट्य निर्देशक राजिंदर नाथ से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के अंश..
आप चार दशक से ज्यादा समय से रंगमंच से जुड़े हैं. इस अनवरत आकर्षण की वजह क्या रही?
इसका कारण बताया नहीं जा सकता है. किसी भी चीज या काम के प्रति एक लगन हो जाती है. मेरे लिए यह लगन थियेटर है. यह मुङो संतुष्टि देता है. अंदर से एक आवाज आती है कि मुङो यही काम करना है. और काम भले छोड़ दूं, लेकिन इसे तो मैं करूंगा ही करूंगा. मेरे साथ ऐसा ही हुआ. कई काम छोड़े भी, लेकिन यह नहीं छूटा अब तक.
आपने विजय तेंदुलकर, मोहन राकेश जैसे प्रमुख नाटककारों के नाटकों का मंचन किया. किसके नाटकों को आप अधिक चुनौतीपूर्ण और संभावनाशील मानते हैं?
हर नाटक का मंचन चुनौतीपूर्ण होता है. ऐसा नहीं है कि एक कम चुनौतीवाला होता है, एक ज्यादा. दरअसल, कोई भी नाटक जब तक स्टेज पर मंचित नहीं हो जाता, तब तक यह नहीं पता चलता कि वह कितना मजबूत है या कितना कमजोर. नाटक पढ़ने की नहीं, खेलने की चीज है. कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि अमुक नाटक सफल होगा या असफल.
अपने द्वारा निर्देशित नाटकों में सबसे अधिक संतुष्टि किस नाटक से मिली ?
किसी एक नाटक का नाम लेना मुमकिन नहीं. ‘जाति ही पूछो साधु की’,‘घासीराम कोतवाल’,‘ताम्रपत्र’ और ‘कमला’ आदि कई नाटक हैं.
आपने बांग्ला और मराठी भाषाओं के नाटकों का हिंदी में मंचन किया है. अनूदित नाटकों के मंचन में किस तरह की मुश्किलें होती हैं?
मुश्किल नाटक का मंचन करनेवाले को उतनी नहीं होती, जितनी अनुवादक को होती है. हां कभी-कभी मचंन के दौरान कोई छोटी या बड़ी चूक यह होती है कि अगर नाटक किसी खास क्षेत्र का है, तो वहां के रहन-सहन या संस्कृति से जुड़ी कोई चीज एकदम वैसी नहीं आ पाती है. हालांकि अगर एक मराठी व्यक्ति, मराठी नाटक का हिंदी में अनुवाद करता है, तो ऐसी चूक होने की संभावना काफी कम हो जाती है. ऐसे दो अनुवादकों को मैं जानता हूं. एक थे और एक हैं. बांग्ला से हिंदी में अनुवाद करने वाली सांत्वना निगम हैं. उनकी मातृभाषा बांग्ला है, लेकिन वह हिंदी बहुत अच्छी तरह से जानती हैं. वे बेहरीन ढंग से बांग्ला से हिंदी में ट्रांसलेट करती हैं. मराठी में वसंत देव थे. वह महराष्ट्रियन थे, लेकिन हिंदी के शिक्षक थे. वह जब मराठी से हिंदी में नाटकों का अनुवाद करते थे, तो उनमें कोई भी चीज छूटती नहीं थी.
रंगमच एक प्रयोगधर्मी विधा है. आप इसे कैसे देखते हैं?
हर नाटक एक एक्सपेरीमेंट होता है मंच पर खेले जाने पर ही उसका असल रूप सामने आता है. मराठी में हर शो को प्रयोग-1, प्रयोग-2, प्रयोग-3 कहते हैं. प्रयोग होने के कारण एक चैलेंज लगातार बना रहता है. नाटक का जादू ही यह कि अगर आप आज देखें और कल फिर देखें, तो आपको एक ही नाटक में फर्क लगेगा. कोई एक्टर गलत संवाद बोल रहा है या कल से और बेहतर बोल रहा है या बदल गया है. कई तरह की चीजें होती हैं.
नाटक का एक खास दर्शक वर्ग है. इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ने के लिए कौन सी चीजें जरूरी हैं?
यह एक अजीब सी धारणा है कि नाटकों का एक खास दर्शक वर्ग है. पहले कभी था एक खास दर्शक वर्ग, लेकिन अब ऐसा नहीं है. सब तरह के लोग आते हैं नाटक देखने. बड़े-बड़े नाट्य महोत्सव होते हैं, उनमें हर तरह के लोग आते हैं.
ऐसे नाटक कार और नाट्य निर्देशक जिन्होंने प्रभावित किया?
जाहिर है जिनके नाटकों का मंचन मैंने किया है, उनसे मैं प्रभावित रहा हूं. नाट्य निर्देशकों में शंभु मित्र थे बंगाल के और हबीब तनवीर हैं हिंदी के. हबीब जी के साथ तो मैंने काम भी किया. इन दोनों ने मुङो प्रभावित किया.
अगर आप अपने निर्देशन की मूल प्रक्रिया को शब्दों में अभिव्यक्त करें तो क्या शब्द होंगे?
अंगरेजी में एक शब्द है ‘मिनस्क्यूल’. मैं अपने आपको वह मानता हूं. मतलब ‘मिन’ यानी लघुत्तम से नाटक करना. सेट को हटा दो, कास्ट्यूम में बहुत व्यय न हो. जितना कुछ हटा सकते हो, हटा दो. सिर्फ ऐसी चीजें रखो, जिनके बिना नाटक हो ही नहीं सकता. मेरे नाटक अगर आप देखें, तो उनमें सेट नाममात्र का ही होगा.
आप 1978 से ‘जाति ही पूछो साधू की’ का मंचन कर रहे हैं. इसकी लोकप्रियता को किस तरह देखते हैं?
इसे मैं हिंदुस्तान की तमाम जबानों में सबसे बढ़िया कॉमेडी मानता हूं. इसकी कॉमेडी हर किसी को पसंद आती है. गंभीर लोगों को भी और जो गंभीर नहीं हैं उन्हें भी. इसका कंटेंट इतना सूक्ष्म और स्ट्रांग है कि सभी को बांध लेता है. 1978 में मैंने पहली बार इसका मंचन किया था. इसके बाद 10-12 साल तक मेरा ग्रुप ‘अभियान’ इसे करता रहा. बीच में लंबे समय तक इसके शो नहीं हुए. 2004 में संगीत नाटक अकादमी और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के फेस्टिवल में यह नाटक हुआ और 1978 की पूरी कास्ट के साथ हुआ. तब के वो जवान कलाकर अब बूढ़े हो गये थे. लेकिन नाटक का वैसा ही प्रभाव रहा. चार-पांच साल पहले मैंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए फिर से इसका मंचन किया, जो अब तक चल रहा है और मेरा ख्याल है कि अभी चलेगा.
अंत में फिर वही प्रश्न कि रंगमंच ही क्यों? आप फिल्म या टेलीविजन की दुनिया में भी जा सकते थे.
मैंने पहले भी कहा कि इसका कोई जवाब नहीं है. रंगमंच ने मुङो चुना और मैंने रंगमंच को चुना. जब दोनों ने एक दूसरे को चुन लिया तो वहां किसी तीसरे की गुंजाइश ही नहीं रही.
आज के समय में थियेटर करना कितना चुनौती पूर्ण है?
थियेटर करना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है. आज भी है, कल भी था और परसों भी रहेगा. यह कोई ऐसा पेशा नहीं, जो आपको जीविका दे सकता है. फिर भी लोग थियेटर करना चाहते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि इतने टेलीविजन चैनल और सिनेमा होने के बावजूद बहुत से लोग हैं, जो थियेटर देखना चाहते हैं.