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‘समाधि’ में नागे नहीं आते

मैंने अपना शुमार हमेशा खोये हुए लोगों में किया है. मेरे रचे हुए चरित्र भी शायद इसीलिए खोये-खोये से ही होते हैं- अंधेरे में गुनगुनाते हुए : ‘जायें तो जायें कहां’. अपने तहखाने तक पहुंचने के लिए हर लेखक अपना रास्ता और तरीका खुद तराशता है, तलाशता है, और उस रास्ते या तरीके को सीधे-सीधे […]

मैंने अपना शुमार हमेशा खोये हुए लोगों में किया है. मेरे रचे हुए चरित्र भी शायद इसीलिए खोये-खोये से ही होते हैं- अंधेरे में गुनगुनाते हुए : ‘जायें तो जायें कहां’. अपने तहखाने तक पहुंचने के लिए हर लेखक अपना रास्ता और तरीका खुद तराशता है, तलाशता है, और उस रास्ते या तरीके को सीधे-सीधे शब्द दे पाना मेरे लिए हमेशा कठिन रहा है.

पहली बार कलम कब उठायी, यह ठीक याद नहीं, क्यों उठायी इसका जवाब शायद दे सकूं. सभी तो नहीं, लेकिन बहुत से उपन्यासकार अपने पहले उपन्यास में अपने बचपन या लड़कपन का सहारा लेते हैं. जेम्स जॉयस और उनका पहला उपन्यास, ‘पोट्र्रेट ऑफ दि आर्टिस्ट ऐज ए यंगमैन’ याद आता है. विभाजन ने क्योंकि मेरा पैदाइशी कस्बा- डिंगा, और उस कस्बे की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और छोटी ईंटों से बने पुराने मकानों और बड़ी-बड़ी बेरियों के सायों में गुजरा मेरा कठिन लेकिन भरा-पूरा बचपन और लड़कपन मुझसे छीन लिया था, इसलिए अपने पहले उपन्यास ‘उसका बचपन’ में उस तरफ लौटना मेरे लिए स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी था. इस अनिवार्यता में उस बचपन की शिद्दत और उसका दिया हुआ दुख और दर्द और उनको अभिव्यक्ति देकर उनसे किसी हद तक मुक्त हो जाने की कामना भी जरूर अपना काम कर रही होगी. अब यहां से पीछे देखने पर तो यही लगता है कि मैं अपने ‘भूत’ को निकाल कर भूत-मुक्त हो जाना चाहता था. हुआ नहीं, वरना पच्चीस साल बाद ‘गुजरा हुआ जमाना’ में मैं फिर उसी ‘भूत’ से न जा भिड़ा होता. पूरी तरह भूत-मुक्त कोई नहीं होता, लेखक तो हरगिज नहीं.

मैं किसी जमाने में रात को ही काम किया करता था, लेकिन इधर कई दशकों से सुबह को ही ‘समाधि’ लगाने की कोशिश करता हूं. आजकल अगर दो-तीन घंटे बैठ लेता हूं तो दिन-भर उसकी मस्ती बनी रहती है और बाकी का दिन पढ़ कर या कुढ़ कर या सुस्ता कर गुजार लेता हूं. ‘समाधि’ किसी भी गलत आवाज या हरकत या ख्याल से टूट सकती है, इसलिए कमरे और मन का दरवाजा बंद करके बैठता हूं. सारी एहतियात के बावजूद कई प्रकार के खलल उन बंद दरवाजों पर दस्तक देते रहते हैं. मैं शोर शराबे के बीच नहीं लिख सकता, मुङो बंद कमरा चाहिए. अगर मुझमें प्रूस्त जैसी जिद और हिम्मत होती, तो मैंने अपने कमरे को साउंडप्रूफ बना लिया होता. कभी-कभी ऐसे दौरे भी पड़ते हैं कि थकावट के बावजूद रुक-रुक कर दिन-भर जुटा रहता हूं लेकिन अब ऐसे दौरे कम होते जा रहे हैं. जैसे चाय और शराब का वक्त तय-सा हो गया है, वैसे ही लिखने के लिए बैठने का भी. अगर वह वक्त किसी बाधा या कारणवश निकल या टल जाये, तो मानसिक संतुलन बिगड़-सा जाता है. इससे यह मतलब निकाल लें कि काम में या ‘समाधि’ में नागे नहीं आते.

मैंने हर स्थिति में लिखा है- छोटी जगह में भी लिखा है लेकिन छोटी-से-छोटी जगह में भी एक छोटा सा कोना अपने लिए बनाना मेरे लिए जरूरी हो जाता है. ज्यादा वक्त मैदानी इलाकों में ही बीता है इसलिए ‘ऊपर’ का अनुभव उतना नहीं जितना ‘नीचे’ का. शुरू के पंद्रह बरस और कॉलिज की छुट्टियों का समय छोड़ दूं तो देश में गुजारी उम्र बड़े शहरों-लाहौर, रावलपिंडी, दिल्ली- में ही गुजरी है.

अमेरिका में करीब 17 बरस एक छोटे-से कस्बे में गुजारे.उस कस्बे जैसा एकांत (जिसमें बर्फ के फाहों और छोटे-छोटे ढेरों की भूमिका बहुत खूबसूरत और कभी-कभी खौफनाक हुआ करती थी) उसके पहले कहीं नसीब नहीं हुआ, न उसके बाद. उस माहौल का प्रभाव वहां रहते लिखी गयी कुछ रचनाओं में व्याप्त है, खासतौर पर दूसरा न कोई, दर्द ला दवा, नसरीन और उसके बयान में. जब कुछ लिख रहा होता हूं तो उसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता, उसके बारे में पूछे गये किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहता- मारे इस वहम के कि अगर उसके बारे में कुछ कहूंगा तो वहीं रुका रह जाऊंगा. हर लेखक ने कई वहम पाल रखे होते हैं. मैंने भी.

प्रस्तुति : प्रीति सिंह

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