लॉर्ड मेघनाद देसाई भारत के बाहर भारत की प्रमुख आवाज हैं. उनका निवास स्थान भले इंग्लैंड हो, लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में भारत ही है. वे भारत की राजनीति और अर्थव्यवस्था पर बारीक नजर रखते हैं. एक ऐसे समय में जब देश आर्थिक संकट के दौर में दाखिल होता दिख रहा है, देश के सामने मौजूद चुनौतियों पर देसाई के मतों को जानना वर्तमान संकट के कारणों को समझने और भविष्य का रास्ता खोजने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री और विचारक लॉर्ड मेघनाद देसाई से बातचीत की अंजनी कुमार सिंह ने और उनसे जाना कि हमारी अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट क्या है और क्या इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता हमारे पास है? प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश..
परिचय
लॉर्ड देसाई के नाम से प्रसिद्ध मेघनाद जगदीशचंद्र देसाई मूल रूप से भारत में जन्मे एक ब्रिटिश अर्थशास्त्री हैं. वर्ष 2008 में देसाई को भारत सरकार द्वारा दिये जानेवाले प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था. पेनसिलवेनिया यूनिवर्सिटी से 1963 में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने प्रतिष्ठित लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में 1965 तक अध्यापन कार्य किया. देसाई लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में डेवलपमेंट स्टडीज इंस्टीट्यूट (डीइएसटीआइएन) के संस्थापक सदस्यों में से हैं. मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में विशेषज्ञता के साथ ही देसाई एक सफल लेखक भी हैं. 1973 में अर्थशास्त्र पर ‘मार्क्सियन इकोनॉमिक थ्योरी’ के नाम से इन्होंने अपनी पहली किताब लिखी थी. देसाई इंग्लैंड के हाउस ऑफ लॉर्डस के सदस्य रहे हैं.
-रुपये में गिरावट का दौर जारी है. यह हर दिन डॉलर के मुकाबले अपने न्यूनतम स्तर का रिकॉर्ड बना रहा है. इसे आप किस तरह से देखते हैं?
सबसे पहले रुपये के मूल्य में आ रही गिरावट के कारणों को समझना जरूरी है. हम कुछ जरूरतों के लिए दूसरे देशों से आयात करते हैं. हम जिस देश से आयात करते हैं, भुगतान भी उसी देश की मुद्रा में करना होता है. इसे हम इंपोर्ट कहते हैं. भारत का विदेशी व्यापार मुख्यत: डॉलर में होता है. जब रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर होता है, तो बाहर की चीजें हमारे लिए महंगी हो जाती हैं, क्योंकि हमें डॉलर में भुगतान करना होता है. यदि एक डॉलर की कीमत 50 रुपये हो, तो पांच डॉलर की कीमत 250 रुपये हो जायेगी. यदि रुपया 60 के स्तर पर पहुंच जाये, तो पांच डॉलर की कीमत 300 रुपये हो जायेगी. यानी जो वस्तु हम पांच डॉलर खर्च कर 250 रुपये में खरीद सकते थे, रुपये का भाव प्रति डॉलर 60 रुपये हो जाने पर उसी चीज के लिए हमें 300 रुपये का भुगतान करना होता है. इससे हमारा आयात खर्च बढ़ता है, जिससे हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आती है. एक तरह से यह मांग और आपूर्ति का गणित है. यही गणित रुपया और डॉलर पर भी लागू होता है. यदि मांग बढ़ी, पर आपूर्ति नहीं बढ़ी, तो कीमतों में उछाल आ जाता है. चूंकि डॉलर की मांग बढ़ रही है, इसलिए डॉलर में उछाल आ रहा है.
-रुपये में गिरावट से शेयर बाजार पर क्या असर पड़ता है तथा दोनों एक दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं?
हमारे यहां बाहर से लोग पैसा लाते हैं और शेयर बाजार में निवेश करते हैं. इस निवेश का बहुत बड़ा प्रभाव शेयर मार्केट पर पड़ता है. जैसे ही रुपया कमजोर होता है, तो निवेशक बाजार से अपना रुपया निकालने लगते हैं, जिसके चलते शेयर बाजार नीचे आ जाता है. इसका प्रभाव विनिमय दर (एक्सचेंज रेट) पर पड़ता है. शेयर के भाव गिरने लगते हैं. मान लीजिए कोई निवेशक यहां एक करोड़ डॉलर निवेश करता है, लेकिन उसे लगता है कि यहां मुनाफा नहीं है. यदि अमेरिका में मुनाफा ज्यादा होगा, तो वह यहां से अपनी सारी रकम निकाल लेगा. अपनी रकम निकालने के लिए वह रुपये बेच कर डॉलर खरीदेगा. जब लोग डॉलर बहुत खरीदें और रुपये बेचें, तो रुपये का भाव घट जाता है और डॉलर का भाव बढ़ जाता है. इसी तरह से, बहुत से लोगों ने विदेश से हमारे स्टॉक एक्सचेंज में पैसे डाल रखे हैं. ये लोग डॉलर लाते हैं और यहां के शेयर रुपयों में खरीदते हैं. यदि रुपये का भाव घट गया, तो उनको कुछ नफा नहीं हुआ. फॉरेन एक्सचेंज का दर जैसे कम होता है, विदेशी निवेशक अपना पैसा निकालने लगते हैं. बड़ी–बड़ी कंपनियां यहां आकर यहां के शेयर खरीदती हैं, लेकिन ऐसी हालत में वे यहां से चली जाती हैं.
–आखिर लोग ऐसा क्यों करते हैं?
इसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारे यहां जो विदेशी निवेशक हैं, उनका भारतीय बाजार पर भरोसा कम हो गया है. इसीलिए वे अपने पैसे निकाल कर बाहर ले जा रहे हैं. दूसरे लोग जो बड़े–बड़े पूंजीपति हैं, उनके भीतर जब तक चुनाव की अनिश्चितता बनी रहेगी, तब तक वे यहां निवेश करने से कतराते रहेंगे. इसलिए वह भी बाहर निवेश कर रहे हैं. इन सभी कारणों के चलते हमारा करेंट एकाउंट डेफिसिट (चालू वित्तीय घाटा) बहुत निगेटिव (नकारात्मक) हो गया है. क्योंकि हम पैसा बाहर भेज रहे हैं, लेकिन बाहर से पैसा अपने देश में आ नहीं रहा है. एक बात और सबसे नकारात्मक है कि अभी भारत के और दूसरे देशों के लोगों को भी यह लगता है कि भारत का विकास दर घट गया है.
भारत में महंगाई बहुत है और भारतीय सरकार का इकोनॉमी पर जो कंट्रोल रहता था, अब वह नहीं है. इस कारण लोगों के विश्वास में कमी आयी है. इससे हमारे यहां एक्सचेंज की हालत बिगड़ रही है. रुपये के मूल्य का अवमूल्यन एक बीमारी का लक्षण है. बुखार आ गया तो टेंपरेचर देख कर यह बताया जा सकता है कि आपको बुखार है. इसके उपचार के तौर पर किसी पारासिटामोल सरीखे दवा की गोली लेकर टेंपरेचर कम किया जा सकता है, लेकिन आखिर बुखार आया ही क्यों और बुखार की वजहें क्या हैं, इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इसके लिए समग्रता से इलाज की जरूरत है. लेकिन सरकार इससे निबटने के लिए कभी सोने पर कंट्रोल करती है, तो कभी कुछ और उपाय ढूंढ़ती है. इसके बाद भी लोगों की जो बुनियादी चिंता है, उसका निदान नहीं हो पाता है.
–अनिश्चितता का यह दौर कब तक रहेगा?
आजकल हमारी इकोनॉमी (अर्थव्यवस्था) में कुछ दम नहीं है. विकास का काम बाधित है. ये सब ऐसे प्रश्न हैं, जो अनसुलङो हैं. इस कारण से रुपये की दर घटती जा रही है और मुङो लगता है कि यह दर और थोड़े दिनों तक घटती रहेगी, क्योंकि छह महीने बाद चुनाव होने हैं. इसलिए अनिश्चितता का दौर जारी रहेगा. यदि चुनाव पहले हो जाते हैं, तो शायद यह मुमकिन हो कि अनिश्चितता का दौर खत्म हो जाये. नयी सरकार बनने के बाद ही अनिश्चितता का दौर खत्म होगा और तब रुपये में सुधार होगा. ऐसे में देश में जितनी जल्दी चुनाव होगा, अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही अच्छा होगा. चुनाव हो जाने से जो मौजूदा अनिश्चितता का माहौल है, वह खत्म हो जायेगा. किसी भी चीज को स्थिर करने के लिए उस तरह के माहौल का होना भी जरूरी होता है. अगली सरकार को लेकर भी तरह–तरह के कयास लगाये जा रहे हैं. कोई सर्वेक्षण किसी को, तो कोई किसी को आगे बता रहा है. कभी लगता है कि थर्ड फ्रंट यानी माइनस कांग्रेस और भाजपा सत्ता में आ सकती है. इस तरह के सर्वेक्षणों से निवेशकों के मन में एक डर और भ्रम पैदा होता है. एक बार जो रुपया निकाल लिया, उसे दोबारा लगाने से पहले निवेशक कई बार सोचेगा. उस स्थिति में खासकर जब आम चुनाव नजदीक हो या फिर ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही हो कि नवंबर–दिसंबर में कुछ राज्यों में होनेवाली विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव भी कराये जा सकते हैं.
-आप इसे किस प्रकार की चुनौती मानते हैं?
यह बहुत बड़ी चुनौती है. यह सिर्फ शॉर्ट टर्म (कम समय का) चैलेंज नहीं, बल्कि लॉन्ग टर्म चैलेंज है. डॉलर का भाव 50 से 55 तक होना चाहिए. 65 तो बहुत ज्यादा हो गया है. लेकिन तत्काल में ऐसा लग रहा है कि इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अब लोग भी बहुत ज्यादा फॉरेन एक्सचेंज (विदेशी विनिमय) करने लगे हैं, चीजें खरीदने लगे हैं. यदि आप इसे बंद करें, तो उसमें भी बहुत नुकसान हो जाता है, क्योंकि रिजर्व बैंक को डॉलर खरीदने पड़ते हैं. कभी डॉलर बेचने पड़ते हैं और रुपये खरीदने पड़ते हैं. मुङो लगता है कि रुपये का भाव 60 और 65 के बीच सेटल (स्थिर) हो जायेगा. 55 तक नहीं जायेगा. जब कोई नयी सरकार आयेगी या फिर यही सरकार नये जनादेश के साथ आयेगी, एक स्ट्रांग इकोनॉमी पॉलिसी (मजबूत आर्थिक नीति) बनायेगी और उसी आधार पर चलेगी, तब संभावना है कि इसमें कुछ सुधार हो. लेकिन मौजूदा स्थिति को देख कर तो लगता है कि सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा.
–क्या यह भारत के लिए आर्थिक संकट की स्थिति है?
इसे शार्ट टर्म (अल्प अवधि) आर्थिक संकट कह सकते हैं. क्योंकि संभवत: यह सिर्फ छह से नौ महीने का है. चुनाव के बाद सब कुछ ठीक हो जायेगा. जब भी अनिश्चितता का माहौल पैदा होता है, तो इस तरह के संकट दिखते हैं. ऐसे में लोग घबरा जाते हैं. पैसे बेच देते हैं या निकाल लेते हैं या फिर सोना खरीद लेते हैं. इन सभी कारणों से ही ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है. बचत को महंगाई से बचाने के लिए लोग सोना खरीदते हैं. लेकिन सवाल है कि यह सोना कितना खरीदा जायेगा?
–यदि आगे भी कुछ महीनों तक यही स्थिति रही, तो इससे हमारी कृषि, नौकरी, विकास, महंगाई आदि पर किस तरह का असर पड़ेगा?
ऐसा लगता है कि विकास की दर नहीं बढ़ेगी. यह साढ़े चार प्रतिशत से पांच प्रतिशत तक ही रहेगी. इसके परिणामस्वरूप रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं होगी. वैसे भी पिछले पांच वर्षो में किसी भी तरह के नये रोजगार का सृजन नहीं हुआ है. कृषि को लेकर सरकार की जो नीति है, उससे भी विकास दर पर असर पड़ रहा है. कहने का मतलब यह है कि आर्थिक विकास का असर तमाम चीजों पर पड़ता है. मुङो लगता है कि सरकार में लोगों के बीच भरोसा पैदा करने की जो शक्ति थी, वह शक्ति अब नहीं है. हो सकता है कि रघुराम राजनजी जब रिजर्व बैंक के गवर्नर बनें, तो वह कोई जादुई काम करें, जिससे इस पर कुछ नियंत्रण हो सके, लेकिन यह सब तो अभी आगे देखने की बात है.
–क्या वर्तमान आर्थिक स्थिति का प्रभाव देश के विकास पर पड़ेगा?
जरूर असर पड़ेगा. यह दोनों तरफ की बात है. आर्थिक विकास कम हो गया, तो लोगों को डर हो जाता है कि यहां लाभ कम मिलेगा. निवेश करनेवाले लोग कहीं और चले जा रहे हैं, इसलिए यह दर और कम होती जा रही है. आर्थिक विकास से जुड़े उन तमाम क्षेत्रों पर इसका प्रभाव पड़ेगा, जो देश के विकास में सहायक सिद्ध होते हैं.
–यह संकट सिर्फ हमारी आर्थिक नीतियों का परिणाम है या फिर बाहरी नीतियों के कारण भी ऐसा हुआ है?
बाहर का असर तो है, मगर बहुत कम है. यह हमारी आर्थिक नीति का परिणाम है, जिससे डेफिसिट (घाटा) बढ़ गया है. इतना ही नहीं, चार साल से सरकार ने महंगाई को काबू में करने का कोई मुकम्मल प्रयास नहीं किया और महंगाई बढ़ती रही. पिछले चार वर्षो से महंगाई दर सात–आठ–नौ प्रतिशत रही है. इससे बहुत बड़ा नुकसान हुआ है. सरकार इसका समाधान क्यों नहीं कर रही है या कर पायी है, यह हम लोगों की समझ से भी परे है. सरकार को जिस तरह से महंगाई की चिंता होनी चाहिए, वह किसी भी स्तर पर नहीं दिखती है. यदि चिंता होती तो कुछ करती. शायद सरकार में बैठे लोग ऐसा समझते हैं कि फलों–सब्जियों के दाम बढ़ जायें, तो देहात के लोगों को फायदा होगा और शहरों में नुकसान होगा. मगर ऐसी बात नहीं है. देहात में भी लोगों को सामान खरीदना पड़ता है और इससे उन्हें बड़ा नुकसान होता है.
–आपकी नजर में इस संकट से उबरने का क्या रास्ता हो सकता है, जिससे निवेशकों का विश्वास लौटे और रुपये की गिरावट रुके और अर्थव्यवस्था मजबूत हो?
सरकार को लोगों के जेहन में विश्वास बहाल करना होगा. सबलोग जानते हैं कि बजट डेफिसिट (घाटा) हमारे नियंत्रण में नहीं है. फिर भी सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक ला रही है. लोगों को लगता है कि एक ओर महंगाई बढ़ रही है और दूसरी ओर सरकार इस तरह का काम कर रही है, तो लोगों का भरोसा डममगाता है. सरकार को यह कहना होगा कि वह छह महीने में बजट कंट्रोल कर लेगी. उसे लोगों को यह विश्वास दिलाना होगा कि आप निवेश करें, हम आपका स्वागत करेंगे, तभी संभव है कि कुछ सुधार होगा.