भारत में महिलाओं में बांझपन एक बड़ी समस्या है. ग्रामीण और छोटे शहरों से लेकर, मेट्रो और बड़े शहरों में भी महिलाओं में बांझपन की बीमारी आम होती जा रही है. बांझपन के कई कारण हो सकते हैं. इन कारणों में एक है महिलाओं के जेनाइटल ट्रैक्ट (जननांग के भीतरी हिस्सा) में टीबी का बैक्टीरिया पहुंचना. इस बीमारी को गर्भाशय में टीबी होना भी कहते हैं. आमतौर पर यह बीमारी पकड़ में नहीं आती. जब महिलाओं में मासिक रूक जाता है और असुरक्षित सहवास के बाद भी गर्भ धारण नहीं कर पातीं, तभी बांझपन के कारणों का पता लगाया जाता है.
भारत में टीबी एक गंभीर बीमारी है. टीबी नियंत्रण कार्यक्रम की शुरुआत 1962 में हुई थी, पर आज स्थिति यह है कि दुनिया के 26 प्रतिशत टीबी के मरीज भारत में रहते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट में भारत को टीबी पर नियंत्रण करने में फिसड्डी बताया है. हालांकि पल्मनेरी टीबी (फेफड़ों में होने वाली टीबी) प्राइमरी है या फिर कह सकते हैं कि यह भारत में बहुत ही कॉमन है. पर फेफड़ों में टीबी के अलावा शरीर के दूसरे हिस्सों में भी टीबी होने के कई मामले सामने आते हैं. इन्हीं में एक है महिलाओं के जननांग के भीतरी हिस्से (जेनाइटल ट्रैक्ट) में माइकोबैक्टीरियम टय़ूबरक्लूसिस (तपेदिक या यक्ष्मा भी कहते हैं)के बैक्टीरिया का पहुंचना. यह महिलाओं में बांझपन का एक बड़ा कारण है. बांझपन का इलाज कराने वाली 18 प्रतिशत महिलाएं टीबी की शिकार होती हैं. चूंकि जेनाइटल ट्रैक्ट में टीबी का बैक्टीरिया रहता है, इसलिए गर्भाशय के भीतरी अंगों को नुकसान पहुंचने का खतरा रहता है. अगर बैक्टीरिया से फैलोपियन टय़ूब्स, ओवेरीज, एंडोमेट्रियम आदि को गंभीर क्षति होती है, तो बांझपन हमेशा के लिए हो सकता है. गर्भाशय में टीबी पर चर्चा करने से पहले हमें बांझपन पर थोड़ी चर्चा करनी चाहिए.
इनफर्टिलिटी को समझें
शादी के एक साल बाद तक किसी महिला का असुरक्षित सहवास (अनप्रोटेक्टेड सेक्स) के बाद भी गर्भवती न होना बांझपन (इनफर्टाइल) के दायरे में आता है. यह प्राइमरी अवस्था कहलाती है. दूसरे कि 35 साल से ऊपर की महिलाएं यदि छह माह तक नियमित रूप से असुरक्षित सहवास के बाद भी गर्भधारण नहीं करतीं, तो उनमें बांझपन होने का खतरा बढ़ जाता है. बांझपन के जो भी कारण होते हैं, वे स्त्री और पुरुष दोनों में पाये जाते हैं. महिलाओं में बांझपन का प्रमुख कारण अंडाशय (ओवेरीज) से अंडा नहीं निकलना माना जाता है. जैसे पीसीओएस (पॉलीसिस्टक ओवरी सिंड्रोम) एक प्रमुख कारण है. जैसा कि हम जानते हैं कि महिलाओं में मासिक के सातवें दिन से लेकर 13 वें दिन तक अंडोत्सर्ग (ओवुलेशन) की प्रक्रिया चलती है. गर्भाशय के दोनों ओर अंडाशय होते हैं, जो बारी-बारी से हर माह अंडोत्सर्ग करते हैं. ये अंडे ओवरी से निकल कर फैलोपियन टय़ूब्स में पहुंचते हैं, फिर वहां से ये गर्भाशय (यूटेरस) में जाते हैं, जहां ये शुक्राणुओं (सीमेन) से मिलती हैं. अगर फैलोपियन टय़ूब्स में कोई गड़बड़ी होती है तो अंडे गर्भाशय तक नहीं पहुंच पाते. इससे गर्भधारण (इंप्लांट) नहीं हो पाता. कई बार टय़ूब में इंफेक्शन के कारण हानिकारक ऊतकों के जमाव से टय़ूब ब्लॉक हो जाता है. इस स्थिति को एंडोमेट्रिओसिस कहते हैं. यह बांझपन का एक बड़ा कारण है.
फैलोपियन टय़ूब
बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में टय़ूब का आकार सामान्य होता है, पर बीमारी के एडवांस अवस्था में पहुंचने पर टय़ूब में उभार जैसी संरचनाएं दिखायी पड़ने लगती हैं. अंडाशयों और पेडू के दूसरे अंगों के बीच चिपकाव या सिकुड़ने (एडहेशन) की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. ऐसा होने पर अंडाशय से निकलने वाला अंडा गर्भाशय में नहीं पहुंच पाता. हमें एक चीज जाननी चाहिए कि जब टीबी का बैक्टीरिया फेफड़ों के अलावा दूसरे अंगों में भी प्रवेश करता है, तो हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा तंत्र) टीबी बैक्टीरिया के चारों ओर फिब्रोसिस (ऊतकों का समूह) बनाता है. यह एक तरह से इंफेक्शन को रोकने का काम करता है. अगर टीबी का बैक्टीरिया फ्रिबोसिस को तोड़ देता है, तो फिर अंगों को नुकसान पहुंचना शुरू हो जाता है. करीब 10 प्रतिशत मामलों में अंडाशय इसका शिकार बनता है.
एंडोमेट्रियल टीबी
जैसा कि हम जानते हैं कि गर्भाशय के भीतरी दीवारों की परतदार संरचना को एंडोमेट्रियम कहते हैं. जब महिलाओं में माहवारी होती है, तब यह एंडोमेट्रियल मोटा हो जाता है. टीबी का बैक्टीरिया जब एंडोमेट्रियम में प्रवेश करता है, तो एडहेशन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. यानी गर्भाशय में कैविटी (इंप्लांटेशन की जगह) की जगह सिकुड़ने लगती है. इसका पता एंडोमेट्रियल बायोप्सी से किया जाता है. पर कई बार यह पकड़ में नहीं आता. ऐसा इसलिए होता है कि प्रत्येक चार सप्ताह में एंडोमेट्रियल परत का कुछ हिस्सा नष्ट हो जाता है और फिर नया निर्माण होता है. इसलिए कई बार विशेषज्ञ माहवारी में आने वाले खून की जांच करते हैं. एंडोमेट्रियल टीबी की पहचान के लिए माइक्रोस्कोप, हिस्टोपैथोलॉजिकल जांच, माइकोबैक्टीरियल कल्चर, पीसीआर (पॉलीमेराज चेन रियेक्शन) से न्यूक्लिक एसिड एम्पीफिकेशन भी किये जाते हैं.
पेल्विक टय़ूबरक्लूसिस
इसे साइलेंट डिजीज भी कहा जाता है. बिना किसी लक्षण के टीबी का बैक्टीरिया दस से बीस सालों तक पेल्विक (पेडू) में मौजूद रहता है. जबकि प्रभावित महिला के स्वास्थ्य में कोई खास गड़बड़ी देखने को नहीं मिलती.
इलाज
गर्भाशय में टीबी लाइलाज नहीं है. जब इस बीमारी से पीड़ित महिला का इलाज शुरू होता है, तो कई बार इलाज के दौरान ही महिला गर्भधारण करने में सक्षम हो जाती है. आमतौर पर सोनोसालपिनोग्राफी और हिस्टेरोसालपिनोग्राफी (एचएएसजी) टेस्ट के जरिये बीमारी का पता लगाया जाता है. एक बार पता चल जाने पर एटीटी (एंटीटय़ूबरकल थेरेपी) बहुत ही कारगर होता है. इस इलाज की पूरी अवधि 9 महीने से लेकर साल भर तक होती है. इलाज के नियमित न रखने पर बीमारी फिर से उभर सकती है.
जेनाइटल ट्रैक्ट में टीबी
हमें यह जानना चाहिए कि जननांग के भीतरी हिस्सों में इंफेक्शन कैसे होता है यानी टीबी का बैक्टीरिया कैसे पहुंचता है. इसके तीन प्रमुख कारण हो सकते हैं, हिमैटोजेनस रूट (रक्त के जरिये पहुंचना), लिम्फैटिक सिस्टम (लसीका तंत्र के जरिये) और फिर दूसरे अंगों से सीधे आना (एसेंडिंग इंफेक्शन). 90 प्रतिशत मामलों में रक्त के जरिये ही टीबी का बैक्टीरिया पहुंचता है. जेनाइटल ट्रैक्ट में टीबी के बैक्टीरिया पहुंचने पर फैलोपियन टय़ूब्स, अंडाशय और गर्भाशय को क्षति पहुंचाता है. कई मामलों में सर्विक्स (गर्भाशय का द्वार) और वेजाइना (योनिमार्ग) को भी नुकसान पहुंचता है.
लक्षण