संत भाई श्री से प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश की लंबी बातचीत की अंतिम किस्त
-प्रश्न : कभी -कभी जलन या ग्लानि की भावनाएं आती हैं मन में? ऐसी बहुत-सी स्थितियां आती हैं. इन्हें कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?
भाई श्री : मैं एक अनुभव सुनाता हूं. तुम कोशिश करके देखना कि यह तुम्हें परिणाम देता है, तो बहुत अच्छा. मेरा इसमें कोई आग्रह नहीं है कि मुङो इस चीज ने मदद की. अपने दोषों के प्रति दुश्मनी की भावना नहीं रखनी चाहिए़ अपने आप को एक मौका दें कि आप मनुष्य बन सकें. आप एक मनुष्य हैं. यू आर सपोज्ड टू हैव इंपरफेक्शऩ डोंट क्रिएट ए ह्यूज थिंग आउट ऑफ नथिंग़ अरे! यह जलन कहां से आ गयी? ऐसा भी नहीं करना है कि उसको व्यक्त भी नहीं करना है. जो जैसा है, उसको वैसा ही स्वीकार करो. वह मेरे पास आया. क्यों? हो सकता है उसे मेरे मन की जगह अच्छी लगी होगी, इसलिए मेरे पास आया. मेरे पास आकर उसको अच्छा क्यों लगा? हो सकता है, कुछ मिला होगा उसको, तो दोषी तो मैं हूं. जलन को अपना दुश्मन बना रहा हूं. मेरे घर में कोई घुस गया और मैं उस पर अंगुली उठा रहा हूं, तो दोषी मैं हूं. मेरे घर में किसी को घुसने की हिम्मत कैसे हो गयी? इस तरह हम देखेंगे कि जलन इसीलिए होती है कि हम अपने में जरा एक्सक्लूसिव और बेहतर देखना पसंद करते हैं.
इसलिए जलन होती है. जलन को गाली नहीं देना है. इसको दुश्मन नहीं बनाना है. यह अपने अस्तित्व में नहीं रहता है. यह किसी की पीठ पर सवार है. तुम्हारे अंदर की यह इच्छा कि हम कुछ विशेष हैं, हम औरों की तरह नहीं हैं. हम कुछ विशिष्ट हैं, तो क्या है? जहां कोई दूसरा उस तरफ बढ़ने लगता है, तो जलन की भावना आ जाती है. जब भी ऐसा लगता है कि मेरी तरह की कोई चीज किसी और को भी मिल रही है, तो जलन की भावना और प्रबल हो जाती है. मेरी तरह होने का मौका किसी और को भी मिल रहा है. तब हमको लगता है कि कहीं कोई और आगे न बढ़ जाय़े हम जहां जाना चाहते हैं, कोई दूसरा न पहुंच जाय़े मेरा जो भविष्य है, वो एक चैलेंज लगता है. मेरा जो रास्ता है, वो बाधित लगता है. इसलिए जलन का दोष नहीं है. अपनी इस इच्छा का दोष है. और अगर जलन की तरफ नजर न देकर, उसकी तरफ ध्यान न देकर, तुम अपनी इस छिपी हुई ताकत को देखोगे, तो एक अंतिम समाधान मिलेगा. इस जलन को गैरजरूरी ढंग से महत्व दे रहे हैं. उसे एक बहुत बड़ा विलेन बना देते हैं. हम बहुत लोगों को कंसल्ट करने लगते हैं कि ये जलन की प्रवृति जायेगी कैसे? यह बड़ी समस्या हो गयी है. इसकी कोई जरूरत नहीं है. जलन को उतना महत्व मत दो. एक तो इसकी खुद की हिम्मत नहीं कि अपने से चल कर आय़े, यह हमेशा किसी की पीठ पर बैठ कर आता है. इसका इंडिपेंडेंट अस्तित्व नहीं है.
इसलिए चलो इस समस्या को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करते हैं. हम मेहनत करें. हम अपना पूरा साहस लगा दें. जो देना होगा, भगवान हमको देगा. उसमें हमको संतोष करना है. अगर नाम-यश देता है, तो यह उसकी इच्छा है. नहीं देता है, तो यह उसकी इच्छा. मैंने तो अपना काम या मेहनत कर दिया. अपनी कोशिश कर दी. मैं इससे ज्यादा नहीं कर सकता. मैं इससे कम क्यों करूं? मैं ईमानदार आदमी हूं. जितना कर सकता था, उतना कर दिया. अपनी इस इच्छा को तुम हटाओगे अपने दिमाग से कि हम एक विशेष इनसान बनें? हर आदमी चाहता है कि ऐसे ही सबसे बड़ा बऩे हर आदमी चाहता है. तुम यहां अकेले नहीं हो. हर लोग चाह रहे हैं कि इस रेस में पहले स्थान पर आएं. हम पहले स्थान पर होंगे या नहीं, यह तो भगवान पर निर्भर करता है. हमें अपना साहस, अपनी पूरी शक्ति लगानी है. होना होगा, तो होगा. नहीं होना होगा, तो नहीं होगा. आइ विल एक्सेप्ट बोथ द रिजल्ट. कोई शिकायत नहीं कि वैसा ही होना चाहिए़ मैं शांति से सो सकूंगा. मैं शांति से जाग सकूंगा. दिल में शांति रहेगी. भीतर में एक शांति होगी. एक आदमी बढ़ रहा है, और हम जल रहे हैं? जलने की बू आ रही है? क्यों साहब? प्रोमोशन पा गये आप! उसकी तारीफ अधिक हो गयी. उसको बॉस ने कल दो बार बुलाया, आपको आज तीन दिन से नहीं बुला रहे हैं. तरह-तरह की बातें. छोटी-छोटी बातों से हम परेशान हैं. कर कोई और रहा है, परेशान हम हैं.
-प्रश्न : पिछले साल मानसरोवर गया था. उस परिवेश में ईश्वर है या नहीं, नहीं जानता. लेकिन वह स्थल अन्यों से अलग-सा है. कुछ तो, वहां हैं?
भाई श्री : कठिनाई इसका प्रमुख कारण है. यात्राबहुत कष्टप्रद है न! इसलिए वहां का वाइव्रेशन मोटिवेशनल (प्रेरक माहौल) है. आप अच्छी सड़कें, जाने की अच्छी सुविधा कर दीजिए न, देखिए धीरे-धीरे वहां का वाइव्रेशन कम हो जायेगा. ऐसा अभी तक इसलिए है, क्योंकि वहां आने-जाने में बहुत परेशानी होती है. इसलिए वाइव्रेशन है. शिव का आवास हैं, वहां. श्रद्घा क्या करती है वहां? विश्वास क्या करता है वहां? केरल और तमिलनाडु के साधारण लोग अपने जीवन का संशय लेकर आते हैं काशी. काशी विश्वनाथ के दर्शन करऩे अपने इस मानव शरीर को धन्य करऩे मैंने देखा है. मैं वर्षो बनारस में रहा हूं. गंगा के एकदम किनारे रहा हूं. हर तरह से बनारस को देखा हूं.कितनी आस्था लेकर लोग आते हैं, यहां जो गंगा में डुबकी मार रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि जीवन का सारा पाप धुल रहा है. पवित्रता का अनुभव उनको होता है. वे निकलते हैं, तो बड़े प्रेम से, स्नेह से मिलते हैं कि जीवन धन्य हो गया. अब क्या चाहिए? कैसी आस्था है? हजारों वर्षो से एक आस्था लेकर समाज चल रहा है. उसी तरह हजारों वर्षो से लोगों की यह आस्था रही है कि शिव भगवान वहां बसते हैं. शिव तो सब जगह हैं, पर वहां विशेष रूप से हैं. कैलास उनका अपना घर है. एक ऐसी परिस्थिति जहां रहना ही मुश्किल है. वहां क्यों रह रहा है? कष्ट क्यों कर रहा है? इस आस्था के साथ हम हजारों वर्षो से जीते आ रहे हैं. कैलास क्या है? वहां शिव जी रहते हैं, यह लोक मान्यता है. और कुछ तो है नहीं. मतलब वहां भगवान रहते हैं. उनकी ताकत है. इस ताकत ने इस वाइब्रेशन को बनाया है. टिका कर रखा है, भगवान को. धीरे-धीरे मान लीजिए कि वहां जाने की सुविधा हो जाये, तो स्वाभाविक है कि यह लय टूट जायेगी. एक ऐसी शीतलता निर्विचार, निष्पाप, निर्दोषमन को उपलब्ध होती है.
–प्रश्न : आप जैसा कह रहे हैं, उससे जोड़ कर खुद को देखता हूं. मेरी फारमेटिंग उस दौर की है, जब मध्यवर्ग कष्ट में रहा है. साल में मैं 2-3 कपड़े खरीद पाता था. बंबई में रहता था. बाद में कोलकाता, हैदराबाद या दिल्ली वगैरह में रहा. धर्मयुग या रविवार में काम करता था. पर वे कन्विक्शन के दिन रहे हैं. हमलोगों ने भी नहीं सोचा था कि सर्विस में जितनी सुविधाएं अभी हैं, वे कभी जिंदगी में मिलेंगी. पर ये मिलने पर वह कन्विक्शन नहीं रहा. इसका मतलब कष्ट, मनुष्य को ज्यादा परफेक्ट बनाता है, और सुविधाएं उसे तोड़ती हैं. आपके विचार ?
भाई श्री : महाभारत का प्रसंग है. श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के बाद अपनी बुआ कुंती से विदा लेने आये हैं. अपनी बुआ से पूछते हैं कि उनके लिए कोई आदेश है? कुंती आशीर्वाद मांगती हैं कि भगवान श्रीकृष्ण उनको कष्ट में रखें. कुंती कहती हैं कि जबतक हम पांडव कष्ट में थे आप बराबर साथ थ़े आज युधिष्ठिर सम्राट हैं, पांडव सुख से हैं लेकिन आप छोड़ कर जा रहे हैं. कष्ट में भगवान का सहज ही संग होता है. कष्ट आपको सावधान करता है. कष्ट आपको सोने नहीं देता है. आपको रिलेक्स नहीं होने देता. कष्ट आपको एकदम अलर्ट रखता है. जीवन में कष्ट का बड़ा रोल है. सुख आपको रिलैक्स कर देता है, जीवन में. कल ही हम इनलोगों से चर्चा कर रहे थे कि खाना-पीना हो रहा है, व्यवस्था ठीक है, तो चलो मोटा-मोटी दिमाग रिलैक्स है. क्या होता है कि भगवान पर से निष्ठा हट कर, किसी मनुष्य पर, किसी राजनीतिज्ञ पर, किसी लखपति-करोड़पति पर हो जाती है. भरोसा शिफ्ट कर जाता है. संभव है, हम गये थे, भगवान पर भरोसा करऩे चले थे कि हम भगवान पर भरोसा करके जीवन काटेंगे और थोड़ी देर चलने के बाद कैसे भरोसा शिफ्ट कर गया, पता ही नहीं चला. माइंड रिलैक्स कर गया. कैसे रिलैक्स कर गया कि कोई संगी-साथी मिल गया. दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो गयी. माइंड रिलैक्स करने लगा. धीरे-धीरे यह निर्भरता भगवान पर से उठ कर उस सेठ पर, उस साहूकार पर, उस राजनीतिज्ञ पर शिफ्ट हो गयी. पहले सोचते थे कि भगवान करेगा, अब सोचते हैं कि जो उद्योगपति है, वो करेगा. कितनी शिफ्टिंग हुई दिमाग में? आदमी में यह शिफ्टिंग किसके साथ और क्यों हो गयी, रिलैक्सेशन के कारण हुआ़ इसीलिए यह माइंड रिलैक्स न कऱें थोड़ा कष्ट कऱे थोड़ा कष्ट आवश्यक है. थोड़ा अभाव आवश्यक है. बहुत सुख-समृद्घि अच्छी बात नहीं है. कहीं न कहीं कुछ कमी रहनी चाहिए़ कुछ खटका-सा रहना चाहिए़ कुछ बात रहनी चाहिए़ सब सुख मिल जाये, तो यह अच्छी बात नहीं है. बहुत अच्छी परिस्थिति नहीं है. इट्स नॉट एन आइडियल ह्यूमन सिचुएशऩ यह एक पाषविक कामना हो सकती है. जानवर की कामना हो सकती है. सब अपना भला चाहते हैं. लेकिन किसी को नुकसान पहुंचा के नहीं चाहत़े ऐसा नहीं है कि किसी को कष्ट हो जाय़े किसी का शेयर हम नहीं ले रहे हों. किसी को हम तकलीफ नहीं पहुंचा रहे हो. बिना किसी को ठेस पहुंचाये, तकलीफ पहुंचाये, थोड़ा-सा सुख मिल जाता है. कोई भी अच्छा आदमी इसे जरूर महसूस करेगा कि यह आदमी, आदमी है. इसके भी बच्चे हैं. हमको लगता है कि वह कितनी अच्छी बात है. हम उस दूरी को तय करना चाहते हैं. उस खाई-गैप को बांटना चाहते हैं. यही अच्छे मनुष्य की निशानी है.
प्रश्न : आप काफी दिनों तक बनारस रहे हैं. लोग कहते हैं कि वह त्रिशूल पर है. मेरी शिक्षा बनारस से ही हुई है. यह बनारस आपकी स्मृति में कैसा है?
भाई श्री : बहुत अच्छा. मेरी स्मृति का जो बनारस है, वो छुटपन का बनारस है. जब मैं बड़ा हुआ, तो बनारस गिरने (पराभव) लगा. पिछले 20-25 वर्षो में बनारस बहुत गिर गया है. वहां गंगा और शिव के केंद्र में जो संस्कृति थी, जिसकी नस-नस में गंगा और महादेव थे, वे अब रुपये-पैसे से बदल गये हैं. वो संस्कृति नही रही. वो भाव नहीं रहा. जब मैं 15-16 साल का था, तब मान्यता थी कि काशी के घाटों पर घूमने से ही अनायास महापुरुषों के दर्शन हो जायेंग़े कोई पहचानता नहीं, अनायास ही मिल जायेंग़े यह रिकार्डेड है. मेरे बाबूजी के जीवन में. उनकी उम्र जब 16-17 वर्ष थी, तब उनको महादर्शन हुआ़ साधु रूप में. तुलसीघाट पर बैठे हुए उनके आंखों के सामने से वे महापुरुष अदृश्य हो गय़े दो सज्जनों में रामकथा को लेकर चर्चा हो रही थी. बाबूजी बगल में खड़े होकर सुन रहे थ़े चर्चा के समय सीढ़ियों पर बैठे हुए एक दोहे के अर्थ पर सहमति जताते हुए दोनों उठ खड़े हुए़ जैसे ही आगे बढ़े, तो वे अदृश्य हो गय़े तो बाबू जी ऊपर उठे वहां पर एक छोटा-सा मंदिर है, तुलसीघाट के ऊपऱ वहां पर उसके पुजारी हैं. पुजारी ऊपर बैठे थे, तो बाबू जी ऊपर आये तो वो आश्चर्यचकित रह गय़े बिना पूछे पुजारी ने उनसे कहा, आते हैं प्राय: ये दोनों. मैं भी नहीं पहचान पाया लेकिन देखता हूं आते हैं. इस तरह की घटना पहले बनारस में आम थी. सहज ही लोगों को बड़े-बड़े महापुरुषों के दर्शन हो जाते थ़े गंगा घाट पऱ
प्रश्न : गंगा मर रही है. इसके बारे में आपका क्या मानना है?
भाई श्री : मर नहीं रही है, बल्कि मर चुकी है. आपने वहां टिहरी पर बांध बनाये हैं, तो गंगा तो मरनी ही हैं. दो नदियों के मिलने स़े बांध बना कर एक को तो आपने ब्लॉक कर दिया. भागीरथी और अलकनंदा के मिलने से गंगा बनती थी. एक डैम बन गया तो अलकनंदा खाली नीचे आ रही है. भागीरथी के पानी को रोक दिया गया है. डैम बना कऱ डैम से जगह-जगह बिजली पैदा कर रहे हैं. संगम में स्नान करने के लिए स्पेशल पानी को छोड़ा जा रहा है. हरिद्वार में पानी नहीं है, तो संगम का स्नान कैसे होगा? सरकार ने तब बोर्ड को कहा तो उससे पानी छोड़ा गया. इस तरह गंगा है कहां?
प्रश्न : रावणत्व के बारे में आपका विचार?
भाई श्री : रावणत्व जो है, उसके व्यक्तित्व को परखिए़ वह भोगी है, स्वार्थी है. अपने भोग के लिए वह किसी को भी मार सकता है. काट सकता है. टार्चर (प्रताड़ित) कर सकता है. मतलब वह अपने सुख के लिए कुछ भी कर सकता है., लेकिन क्या वह अपनों का ख्याल नहीं रखता था? उसके प्रति जो लोग ईमानदार थे वह उनको सुरक्षा देता था. उनके साथ खड़ा रहता था. उनका ख्याल रखता था. रावण, जिसने अपने भाई विभीषण को, जिसके बारे में वह जानता था कि उससे मेरा मन नहीं मिलता है, उसको भी रावण ने मान-सम्मान दे रखा था. छोटे भाई के रूप में उसको सेवा-सुविधाएं दे रखी थीं. लेकिन राम ने रावण को मारा. क्यों? एक स्वस्थ्य समाज की रचना के लिए़ दंडकारण्य के ऋषियों ने राम को समझाया तो रामजी ने मान लिया कि रावण का वध नहीं करना है. फिर जब अगस्त्य को मालूम हुआ, तो उन्होंने कहा – अरे! फिर तो आपका जन्म लेना व्यर्थ हो जायेगा. रावण को मारे बिना राम; राम ही नहीं रहेगा. दंडकारण्य के ऋषियों ने कहा कि रावण अवध्य है. इसको मारा नहीं जा सकता है. वह ब्राह्मण है. बहुत बड़ा शिवभक्त है. लेकिन अगस्त्य ऋषि ने कहा कि नहीं आपको रावण को ही मारना है. जब रावण को मार कर श्रीराम आते हैं, तो ऋषि लोग उनसे प्रायश्चित करवाते हैं. रामेश्वरम मंदिर इसका जीता-जागता उदाहरण है. राम ने वहां प्रायश्चित किया है. प्रायश्चित में यह विधान दिया है कि शिव मंदिर की वहां स्थापना की जाय़े इसलिए वहां शिव मंदिर की स्थापना हुई, जिसमें हनुमान जी ने कहा था कि हम शिवजी को उठा कर ले आते हैं. तो वहां उनका (हनुमान का) अहंकार टूटता है.
इस तरह तब तो सिर्फ एक रावण था. आज तो पूरा का पूरा देश रावण हो गया है. किसी को मार सकता है. किसी को काट सकता है. किसी को टार्चर (प्रताड़ित) कर सकता है. अपने स्वार्थ के लिए़ अपने सुख भोग के लिए़ ईरान, अफगानिस्तान वगैरह को आप देखें. चारों तरफ देखें. लगभग सभी जगह यही स्थिति है. सब लोग अपना ही सुख देखते हैं. समाज का सुख नहीं देखत़े यही रावणत्व है. राम और रावण में फर्क है. राम सबका भला देखते हैं और रावण सिर्फ अपना भला देखता है. कल मैं कहीं इंटरनेट पर पढ़ रहा था कि उत्तराखंड में साधुओं के कमंडल से सोने की अंगुठियां व अन्य जेवरात निकल़े रहा न कोई बिनु दांत निपोऱे कोई भी ऐसा नहीं बचा, तो आप कहां? बाइबिल का उदाहरण देखिए कि यदि नमक अपना नमकीनपना छोड़ दे तो आप किसी चीज को नमकीन कैसे करेंगे? आज यदि आप किसी औसत मनुष्य को उठा लें, तो आपके पास जो समाज का चेहरा आयेगा, वह बड़ा भयावह होगा.
आज हम इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं. आदमी अपने हिसाब से कुछ कर सकता है. इसका परिणाम क्या होगा, मालूम नहीं. परिणाम तो भगवान के हाथ में है. हमको तो सिर्फ कर्म का अधिकार है. फल का अधिकार तो हमारा नहीं है. आज हम करना क्या चाहते हैं? यह समाज मेरी बात नहीं सुनेगा. क्योंकि वह भोग के लिए पागल है. वह अपने लिए कुछ भी कर सकता है. आज राजनीतिक पार्टियों को देखिए़ इसी समाज से वहां भी लोग हैं. आप जब किसी बड़ी समस्या का समाधान करने निकलते हैं तो आप सोचते हैं. आपको समझ में आयेगा कि सभी समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. एक-दूसरे से जुड़ते-जुड़ते ये समस्याएं बड़ी भयावाह समस्या के रूप में दिखाई देने लगती हैं. हमें ऐसा लगता है कि मनुष्य के लिए इसे ठीक करना संभव ही नहीं है. ऐसा क्यों? धरती पर जब कोई इनसान जन्म लेता है, तो उस पर किसी तरह का बोझ नहीं होता है. न किताब का, न भगवान, न अन्य किसी चीज का. जन्म लेते ही हम मुक्त होते हैं. हम अपनी दृष्टि (तीनों दृष्टि- व्यावहारिक, प्रातिभाषिक, पारमार्थिक ) से संसार को देखते हैं.
स्वार्थ जब बहुत बढ़ जाता है, तो टकराता है. अपने सुख के लिए जो प्रकृति का शोषण हो रहा है, वह बढ़ते-बढ़ते जब एक सीमा पर पहुंच जाती है, तब विनाश होता है. प्रकृति तो कोई दैवी चीज नहीं है. हमारा विचार बहुत साफ है कि जैसे शब्द से अर्थ अलग नहीं किया जा सकता, शिव से पार्वती को अलग नहीं किया जा सकता, उसी तरह प्रकृति से मनुष्य को अलग नहीं किया जा सकता है. हम पिछले कई सौ वर्षो से प्रकृति का शोषण करते आ रहे हैं, तो प्रकृति तो अपना रूप दिखायेगी ही. हमारी चेतना आज कितनी संकीर्ण हो गयी है. बिल्कुल पशु की तरह़ आज पशु और इनसान में क्या फर्क है? मनुष्य अपने को शरीर से अलग कर सकता है, पशु नहीं कर सकता है. कई बुद्घिमान पशु भी हैं. आज हमारी चेतना सिमटते-सिमटते इतनी सिमट गयी कि बाप, बेटी को नहीं समझ रहा है. भाई, बहन को नहीं समझ रहा है. आपके सामने कैसी परिस्थिति आ गयी है? अभी तुमने अपने पिछले लेख में जो गालिब की कविता लिखी थी. इस तरह जब कोई शरीर का भाग अधिक तकलीफ देने लगेगा तो उसे हटाना ही होगा. प्रकृति भी मनुष्य के साथ कुछ ऐसा ही करेगी या कर कर रही है. मारने के लिए बचाना नहीं, बचाने के लिए मारना. आज एक टीवी चैनल पर देखा कि अमेरिका, भारत को चेतावनी दे रहा था कि दक्षिण भारत में वोल्केनो इरप्ट हो सकता है. जिस तरह की गतिविधि वहां हो रही है, उसके अनुसार यह चेतावनी भारत को मिली है. अभी उत्तराखंड में जो हुआ, उस पर राजनीतिक परिदृश्य आप देख ही रहे हैं. कितना भद्दापन है. भाजपा-कांग्रेस व अन्य राजनीतिक पार्टियां कैसी राजनीति कर रही हैं. राजनीतिक परिदृश्य हो, प्राकृतिक परिदृश्य हो या सामाजिक परिदृश्य हो, ऐसी स्थिति आ गयी है कि मानवीय प्रवृति में कुछ सुधरता हुआ नहीं दिख रहा है. भगवान की मदद की आवश्यकता दिखाई पड़ती है. इस परिस्थिति में हम एक इनसान की भूमिका में क्या कर सकते हैं? इस भयावह परिस्थिति में ऐसा न हो कि हम मुड़ कर देखें और हमें पछतावा हो. कुछ बड़े लोग इतिहास बनाते हैं और कुछ लोग इतिहास के प्रोडक्ट (उत्पाद) होते हैं. कुछ लोग इतिहास बनाते हैं और कुछ लोगों को इतिहास बनाता है. आज की इस परिस्थिति में भगवान एक स्थिति बना रहे हैं. अब हमें सोचना होगा कि हम इस परिस्थिति में क्या करें? इनसान में जब रावण बैठा होगा, तो वह क्या करेगा? इसलिए दो बातें बहुत साफ दिखती है. पहली तो यह कि यदि ईश्वर पर विश्वास है तो प्रार्थना करते हुए हम कुछ करें. परिणाम की चिंता किये बगैर हम कुछ अच्छा करें. अच्छी चीजों को समाज के सामने रखें. संगठन का मोह हमको न हो. एक व्यक्ति के नाते हम कार्य करें जिसमें कोई स्वार्थ न हो. नि:स्वार्थ भाव से हम समाज को कुछ दें.
हम लोगों में यह बात पहुंचा सकते हैं, क्योंकि मैं मानता हूं कि लोग सोये हुए नहीं हैं. जगे हुए हैं. मैं जगाने की बात नहीं कर रहा हूं. लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि सच सामने है और दिखाई नहीं दे रहा है. तब आंख में उंगली डाल कर दिखाना पड़ता है कि यह सच है और यह तुम्हारे सामने है. इस तरह एक बात तो यह समझ में आती है जो एकदम खाटी शुद्घ, देहाती बात है. समुदाय-संगठन से मुक्त होकर एकदम शुद्घ बात, वह समाज के सामने रखी जाय़े समाज इसे स्वीकार करता है कि नहीं, यह अलग बात है. इस समाज रूपी भगवान (नारायण) के उत्थान के लिए काम करना होगा. हृदय में भगवान जगन्नाथ (भगवान जो न हिंदू है न मुसलमान न सिख न ईसाई़ भगवान जो पूरे विश्व का है, सबके अंतर्मन में बसनेवाला) को स्थापित कर अपने जीवन को इस काम के लिए समर्पित करना चाहिए़ ऐसा न हो कि पीछे मुड़ें तो हमको अफसोस हो कि ओह! हम एक ऐसी परिस्थिति में थे कि कुछ कर सकते थे, लेकिन किया नहीं.