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ऐसा है तेलंगाना का इतिहास

।। रवींद्र पाठक ।। (जमशेदपुर)आधुनिक भारत के इतिहास में तेलंगाना को किसान छापामार युद्ध के लिए जाना जाता है. 1946-47 का यह युद्ध जब अपने चरम पर था, तो इसने 1600 वर्ग मील में फैले 3000 गांवों की तकरीबन तीस लाख आबादी को प्रभावित किया था. कहते हैं – निजामों द्वारा शासित इस प्रदेश में […]

।। रवींद्र पाठक ।।

(जमशेदपुर)
आधुनिक भारत के इतिहास में तेलंगाना को किसान छापामार युद्ध के लिए जाना जाता है. 1946-47 का यह युद्ध जब अपने चरम पर था, तो इसने 1600 वर्ग मील में फैले 3000 गांवों की तकरीबन तीस लाख आबादी को प्रभावित किया था. कहते हैंनिजामों द्वारा शासित इस प्रदेश में उस समय सामंतवादी शोषण अपने क्रूरतम रूप में देखा गया.

मुट्ठी भर जमींदार निम्न जातियों के किसानों से बेगार कराते थे. लेकिन जमींदारों ने जब किसानों की जमीनें हथिया कर उन्हें बदहाली की ओर धकेला, तब निजामशाही के खिलाफ किसानों में व्यापक आक्रोश उत्पन्न हुआ, जो आगे चलकर सशक्त संघर्ष का आधार बना. 1947 के बाद यह संघर्ष चरम पर पहुंचा, जब कम्युनिस्ट छापामारों ने तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं के नारों को इस आंदोलन में बखूबी इस्तेमाल किया. यद्यपि यह आंदोलन भारतीय सेना के हस्तक्षेप से दबा दिया गया फिर भी कई मायनों में इसके सुखद परिणाम आये, मसलन बंधुआ मजदूरी खत्म हुई, छीनी गयी जमीनें पुन: काश्तकारों को मिलीं.

कालांतर में तेलंगाना को भाषायी आधार पर बने पहले राज्य आंध्रप्रदेश में शामिल कर लिया गया, लेकिन असंतोष और असमानताओं को पाटने का काम नहीं हुआ. नतीजा, पृथक तेलंगाना की चिंगारी सुलगती रही और 1956 में कामरेड वासुपुन्यया ने पहली बार अलग तेलंगाना की मांग कर जनआकांक्षाओं को बल दिया. फिर 1969 में चन्ना रेड्डी ने इस आंदोलन को दिल्ली की सियासत तक पहुंचाया.

इस आंदोलन का आखिरी अध्याय 2009 में टीआरएस के चंद्रशेखर राव ने उस वक्त लिखा, जब यूपीए की सरकार ने उनके आमरण अनशन से घबरा कर तेलंगाना राज्य बनाने के लिए निहित प्रक्रियाएं अपनाने का एलान किया.

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