।। अनिन्दो बनर्जी ।।
(निदेशक, कार्यक्रम प्रभाग, प्रैक्सिस)
– आर्थिक विकास के नव-उदारवादी एजेंडे को अपना चुके आज के नीति निर्धारक वर्ग के लिए अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर बनाये रखना बड़ी मजबूरी प्रतीत होती है, भले ही इसकी कीमत कुछ भी हो. –
आंकड़ों के अनुसार, देश में मार्च, 2012 के अंत तक सिर्फ 27 करोड़ यानी 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे. शहरी आबादी के संदर्भ में यह अनुपात सिर्फ 13.7 फीसदी बताया गया है. छत्तीसगढ़ (39.93 फीसदी), झारखंड (36.96), मणिपुर (36.89), अरुणाचल (34.67) और बिहार (33.74 फीसदी) में सबसे ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. इन आंकड़ों के अनुसार, देश में उदारीकरण की नीतियां अपनाये जाने के बाद 1993-94 से 2004-05 के बीच 11 वर्षो में गरीबी घटने की सालाना दर सिर्फ 0.74 फीसदी थी, 2004-05 से 2011-12 के बीच 7 वर्षो में बढ़ कर 2.18 फीसदी यानी करीब तिगुनी हो गयी!
असल सवाल इन आंकड़ों की सच्चाई का नहीं, व्याख्या का है. यह एक कड़वी हकीकत है कि आज देश में कम से कम 27 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिनका जीवन अत्यधिक दूभर परिस्थितियों में बीतता है तथा जिनका औसत मासिक उपभोक्ता व्यय ग्रामीण क्षेत्र में महज 816 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में महज 1000 रुपये है.
वैसे योजना आयोग के द्वारा पहचाने गये ऐसे नागरिकों को ‘गरीबी रेखा’ के बजाय ‘भुखमरी रेखा’ के नीचे मानना ज्यादा उपयुक्त होगा, ताकि इस रेखा के ऊपर की आबादी में भी सम्मानपूर्ण जीवन से वंचित लोगों की पहचान का विकल्प खुला रहे. जरूरी यह भी है कि गरीबी रेखा की और व्यापक परिभाषा ढूंढ़ी जाये, जिसमें न सिर्फ आर्थिक मापदंडों, बल्कि सामाजिक संबंधों, स्वास्थ्य व पोषण के स्तर, लिंगभेद के प्रभावों, जमीन जैसी महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों के स्वामित्व, सुरक्षा व देखभाल की उपलब्धता आदि जैसे कारकों को पर्याप्त तवज्जो दी जाये.
असली चुनौती गरीब और गैर-गरीब आबादी के फर्क को अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम ऐसी कसौटी या विभाजक रेखा को ढूंढने की है, जो बदहालियों में जी रहे लोगों की स्पष्ट पहचान कर उन्हें प्राथमिकता के आधार पर सरकार की सेवाओं, सुविधाओं एवं कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलवा सके. सरकार ने सी रंगराजन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन भी किया है, जिसे गरीबी रेखा निर्धारित करने की विधि को मजबूत करने की जिम्मेवारी दी गयी है.
गरीबी रेखा निर्धारित करने की जरूरत इसलिए पड़ती है, ताकि अहम कल्याणकारी योजनाओं के संचालन के लिए सब्सिडियों की मात्र व नीतियां तय की जा सके. आर्थिक विकास के नव-उदारवादी एजेंडे को अपना चुके आज के नीति निर्धारक वर्ग के लिए किसी भी कीमत पर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर बनाये रखना बड़ी मजबूरी प्रतीत होती है, भले ही इसकी कीमत कुछ भी हो.
इस गहराती मजबूरी का प्रभाव कल्याणकारी नीतियों पर अलग-अलग तरीकों से पड़ता दिख रहा है. गरीबों की संख्या में अविश्वसनीय दर से कमी बताना, जनवितरण प्रणाली जैसी जरूरी नीतियों के खात्मे की दिशा में पहल, निजी पूंजी को आकर्षित करने के नाम पर बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की कोशिशें इसी अपरिहार्य मान ली गयी मजबूरी के साक्ष्य हैं.
देश में गरीबी रेखा तय करने की दिशा में अब तक हुए प्रयासों में अर्थशास्त्रियों की भूमिका प्रभावी रही है. कई विशेषज्ञ दलों व समितियों ने बीते दशकों में गरीबी रेखा तय करने की चेष्टाएं की हैं. पिछले कुछ वर्षो में गरीबी निर्धारण में गैर आर्थिक मापदंडों के समावेश की कोशिशें भी हुई हैं, मगर कोई पूर्ण रूप से स्वीकार्य विधि सामने नहीं आयी है. यानी इस दिशा में की गई कोशिशें बहुत सहभागी नहीं रही हैं; विशेषकर स्वयं गरीबी झेलनेवालों या बदहाली की परिस्थितियों को करीब से समझनेवालों के अनुभवों को शामिल करने के मामले में.
देश में मौजूदा सामाजिक, आर्थिक व जाति सर्वेक्षण गरीबी निर्धारण की कोशिशों में एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसके तहत हर परिवार को सात अलग-अलग मापदंडों पर चिह्न्ति किया जाता है. इनमें कच्चे दीवारों व कच्चे छत के एक कमरे में रहने की मजबूरी, परिवार में 16 से 59 साल के किसी वयस्क सदस्य का मौजूद न होना, 16 से 59 उम्र के किसी वयस्क पुरुष की अनुपस्थिति में परिवार का महिला-प्रमुख होना, परिवार में शारीरिक रूप से सक्षम वयस्क के न रहते हुए किसी नि:शक्त सदस्य की उपस्थिति, परिवार का अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का होना, 25 वर्षो से ज्यादा उम्र के किसी साक्षर वयस्क का परिवार में मौजूद न होना तथा भूमिहीनता की स्थिति में पारिवारिक रोजगार का मुख्यत: अनौपचारिक शारीरिक मजदूरी पर निर्भरता शामिल हैं.
इस विधि का मकसद ऐसे परिवारों की पहचान करना है जिनमें उपरोक्त स्थितियों में से ज्यादातर मौजूद हों. साथ ही सर्वेक्षण की नीति के अनुसार बेघर परिवारों, भीख मांग कर गुजारा करनेवाले परिवारों, अपने शरीर का इस्तेमाल कर मानव मल जैसी गंदगियों की सफाई करनेवाले अपमार्जकों, आदिम जनजातीय समूहों तथा कानूनी हस्तक्षेप से छुड़ाये गये बंधुआ मजदूरों को स्वत: ही गरीबों की श्रेणी में शामिल किया जाना है.
इसके अलावा ऐसे परिवारों को गरीबों की श्रेणी से स्वत: बाहर रखा जाना है जिनके पास मोटरचालित दोपहिया, तीनपहिया या चारपहिया गाड़ी, नाव या कृषि यंत्र हों, 50 हजार रुपये से अधिक की कर्ज सीमा वाला किसान क्रेडिट कार्ड हो, परिवार का कोई सदस्य सरकारी सेवा में हो या 10 हजार रुपये से अधिक मासिक आय अर्जित करता हो, जिसके गैर-कृषि उद्यम पंजीकृत हों, जो आय या व्यावसायिक कर देता हो, जिसके पास पक्की दीवारों व छतवाले तीन कमरे हों, सिंचाई के अपने साधन के साथ ढाई एकड़ या ज्यादा जमीन हो, दो या ज्यादा फसलों के लिए पांच एकड़ या ज्यादा सिंचित जमीन हो, सिंचाई के कम से कम एक साधन के साथ कम से कम 7.5 एकड़ अपनी जमीन हो, निजी प्रशीतक व लैंडलाइन दूरभाष हैं.
गरीबों की पहचान में स्वत: समावेश या बहिष्कृत करनेवाले कारकों का प्रयोग सुझाने वाला उपरोक्त तरीका यों तो नीतिगत दृष्टिकोण से उपयोगी दिखता है, पर इसके इस्तेमाल की विधि में कुछ विरोधाभाषी या आपत्तिजनक बातें रह गयी हैं. यह तर्क विचारणीय है कि जिन सात मापदंडों पर परिवारों को चिह्न्ति किया जाना है, उनमें से सभी मापदंड अलग-अलग प्रकार के आर्थिक व गैर आर्थिक बदहालियों के महत्वपूर्ण सूचक हैं. अत: एक से ज्यादा मापदंडों की एक साथ मौजूदगी की खोज इन मापदंडों के महत्व को कम आंकना है. यानी यह तरीका भी गरीबों की संख्या को कम से कम दिखाने, या, अल्ट्रा गरीबों की पहचान के मकसद से ही प्रेरित लगता है.