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फर्जी मुठभेड़ और कानून

।। विश्वनाथ सचदेव ।। (वरिष्ठ पत्रकार) लगभग दो दशक पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुए सांप्रदायिक दंगों की रिपोर्टिग के सिलसिले में मैं वहां था. उसी दौरान विभिन्न तबकों के लोगों से हुई बातचीत में किसी ने वहां की कानून-व्यवस्था के संदर्भ में ‘एनकाउंटर’ से जुड़ी एक बात कही थी. उस इलाके […]

।। विश्वनाथ सचदेव ।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

लगभग दो दशक पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुए सांप्रदायिक दंगों की रिपोर्टिग के सिलसिले में मैं वहां था. उसी दौरान विभिन्न तबकों के लोगों से हुई बातचीत में किसी ने वहां की कानून-व्यवस्था के संदर्भ में ‘एनकाउंटर’ से जुड़ी एक बात कही थी. उस इलाके में अपराधी तत्व कुछ ज्यादा ही सक्रिय थे- और ज्यादा ही दबंग भी. स्थिति संभल नहीं रही थी और ऊपर से तुर्रा यह कि वहां एसएसपी बन कर जाने के लिए कोई आसानी से तैयार नहीं होता था. एक पुलिस अधिकारी यह आश्वासन लेकर वहां आया था कि उसे अपने तरीके से काम करने दिया जायेगा- और इस अपने ‘तरीके’ में अपराधियों का एनकाउंटर करना शामिल था. कहते हैं उस अधिकारी की बात मान ली गयी थी और इसके परिणाम भी ‘सकारात्मक’ निकले. कुछ ही दिनों में हालात बदल गये.

यह घटना मैं आज इसलिए याद नहीं कर रहा कि पुलिस एनकाउंटर की वकालत करूं, बल्कि यह कहने के लिए कि स्थिति नियंत्रण में करने का यह तर्क भले ही कितना भी सही क्यों न दिखे, इसके औचित्य पर प्रश्नचिह्न् जरूर लगेगा. लगना भी चाहिए. यह कतई जरूरी नहीं कि एनकाउंटर हमेशा गलत ही होते हैं, पर यह भी गलत नहीं है कि अकसर एनकाउंटर होते नहीं, किये जाते हैं. और सिर्फ इस आधार पर कि यही एक तरीका है अपराधी तत्वों को निरुत्साहित अथवा खत्म करने का, इस अमानवीय एवं गैरकानूनी कार्य का समर्थन नहीं किया जा सकता.

यह सही है कि अक्सर अदालतों में अपराध प्रमाणित करना मुश्किल होता है, पर जब किसी फर्जी मुठभेड़ के लिए अदालत पुलिस को दोषी ठहराती है तो इस फैसले को प्रबुद्ध नागरिकों का समर्थन ही मिलता है. यदि अपराधी तत्वों द्वारा कानून को हाथ में लेना गलत है तो कानून के रखवालों के लिए भी इसका ख्याल रखना जरूरी है. एक आकलन के अनुसार यदि देश में हर तीसरे दिन एक फर्जी मुठभेड़ होती है, यह कानून-व्यवस्था की असफलता का ही उदाहरण है.

सीबीआइ द्वारा इशरत जहां मुठभेड़ को फर्जी करार दिये जाने के बाद एनकाउंटर के सवाल पर देश में बहस का छिड़ना जहां एक ओर पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, वहीं राजनेताओं द्वारा ऐसी कार्रवाई को संरक्षण देना भी सवालों के घेरे में है. यह बात भी सामने आती है कि पुलिस ने ईनाम पाने के लिए फर्जी मुठभेड़ को अंजाम दिया.

हाल ही में महाराष्ट्र की एक अदालत ने एक फर्जी मुठभेड़ के लिए 21 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है, जिनमें 13 पुलिसवाले हैं. सजा पाये इन लोगों को ऊंची अदालत में जाने का अधिकार है. हो सकता है कि ऊंची अदालत फैसला पलट दे. फिर भी यह तथ्य तो महत्वपूर्ण है ही कि देश की किसी अदालत ने एनकाउंटर के किसी एक मामले में इतने सारे पुलिसकर्मियों को दोषी पाया.

महाराष्ट्र मामले पर सवाल उठाया जा रहा है एक प्रतिबंधित अपराधी को सजा देनेवाले मराठी पुलिसवालों को दंड क्यों मिलना चाहिए. शिवसेना और मनसे दोनों ने दोषी पाये गये पुलिसवालों का साथ देने की घोषणा की है. यह गलत नहीं, लेकिन साथ देने का आधार उनका मराठी होना है तो इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता. मनसे अध्यक्ष का यह कथन सही हो सकता है कि पुलिसवालों ने किसी अधिकारी के आदेश पर कार्रवाई की होगी, लेकिन यह कहना नितांत गलत है कि उनके गैर-मराठी अधिकारियों को सजा क्यों नहीं मिली? अधिकारी यदि अपराधी है तो उन्हें भी सजा मिलनी चाहिए.

राजस्थान के बीकानेर का एक पुराना किस्सा है. तत्कालीन महाराजा की शोभायात्रा निकल रही थी. जनता महाराजा के दर्शन के लिए खड़ी थी. महाराज की जय के नारे लग रहे थे, तभी एक तरफ से शोर उठा. भगदड़ देख राजा ने कारण जानने को कहा. कुछ देर बाद एक अधिकारी ने बताया कि कोई खास बात नहीं महाराज, एक परदेसी खाई में गिर गया है. यह उदाहरण उसी मानसिकता का है जो प्रांतवादी और भाषाई राजनीति को आकार दे रही है. यदि मराठी पुलिसकर्मी निदरेष हैं तो उनकी सजा रद होनी चाहिए, लेकिन इसका आधार उनका मराठी होना नहीं होना चाहिए.

फर्जी मुठभेड़ गलत हैं. उनका समर्थन करना भी गलत है. उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक ने एक मुलाकात में बताया कि, ‘पुलिसकर्मी अपना गुडवर्क दिखाते हैं, ताकि उन्हें समय से पहले पदोन्नति मिले.’ निश्चित रूप से फर्जी मुठभेड़ में उनके अधिकारियों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है. सजा उन्हें भी मिलनी चाहिए, लेकिन कानून के दायरे में ही.

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