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भारतीय राजनीति में क्षरण के साक्ष्य

।। अमेरिका से गुहार।।कोई अपना मूल्यांकन न कर पाये, अपने कृत्य के अच्छा या बुरा होने का फैसला दूर बैठे किसी दूसरे से सुनना चाहे, तो उसे क्या कहेंगे? यही कि सोच के मामले में वह व्यक्ति स्वावलंबी नहीं है, उसमें अपनी राह खुद चुनने–चलने की क्षमता का अभाव है. व्यक्ति के स्तर पर तो […]

।। अमेरिका से गुहार।।
कोई अपना मूल्यांकन कर पाये, अपने कृत्य के अच्छा या बुरा होने का फैसला दूर बैठे किसी दूसरे से सुनना चाहे, तो उसे क्या कहेंगे? यही कि सोच के मामले में वह व्यक्ति स्वावलंबी नहीं है, उसमें अपनी राह खुद चुननेचलने की क्षमता का अभाव है. व्यक्ति के स्तर पर तो यह स्थिति फिर भी बर्दाश्त की जा सकती है, पर राष्ट्र के स्तर पर नहीं, क्योंकि राष्ट्र का मूलाधार उसकी संप्रभुता है.

यह संप्रभुता हर स्तर पर झलकनी चाहिएजैसे व्यवहार में वैसे ही सोच में. इस लिहाज से देखें तो भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का अमेरिका जाकर गुहार लगाना कि नरेंद्र मोदी को अमेरिकी वीजा दिया जाये और देश की बारह पार्टियों के पैंसठ सांसदों का अमेरिकी प्रशासन को चिट्ठी लिखना कि मोदी को वीजा देने की नीति जारी रखी जाये, दोनों एक सरीखे प्रयास हैं. दोनों मान रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि अपने किसी नेता, मिसाल के लिए नरेंद्र मोदी, के कृत्य के बारे में ठीकठीक फैसला सुना सके. दोनों चाह रहे हैं कि वीजा देना या देना तय कर भारतीय सेकुलरवाद से मोदी के रिश्ते के बारे में आखिरी और अटल निर्णय अमेरिका सुनाये.

2005 में गोधरा दंगों के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका ने मोदी को डिप्लोमेटिक वीजा देने से मना किया था. साथ ही, पहले से प्राप्त टूरिस्ट/ बिजनेस वीजा की मान्यता अपने इमीग्रेशन एंड नेशनलिटी एक्ट के उस प्रावधान के तहत रद्द कर दी थी, जिसमें धर्मगत स्वतंत्रता को गंभीर चोट पहुंचानेवाले व्यक्ति को वीजा देने से मनाही है. यह विडंबना ही है कि एक तरफ सेकुलरिज्म की बहस में भाजपा देश को यह याद दिलाना नहीं भूलती कि अदालत ने मोदी को दंगों के मामले में बेदाग घोषित किया है, दूसरी तरफ धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन की बात कह कर किसी देश ने वीजा से इनकार कर दिया, तो वहां गुहार लगाने पहुंच जाती है. क्या उसे मोदी को लेकर खुद के फैसले पर विश्वास नहीं है? यही बात मोदी को वीजा देने के अमेरिकी फैसले को भारतीय सेकुलरिज्म की जीत के रूप में देखने और इस नीति को अमेरिका द्वारा जारी रखने की अर्जी देनेवालों की राजनीति के बारे में भी कही जा सकती है.

क्या अर्जी देनेवाले सांसदों को भारतीय अदालत और मतदाता के फैसले पर विश्वास नहीं है? यह भी मौजूदा राजनीति में क्षरण का ही साक्ष्य है कि अर्जी लगानेवालों के बीच अपने हस्ताक्षर तक को लेकर सहमति नहीं बन पा रही कि वह असली है या नकली. कह सकते हैं कि किसी अन्य देश के आगे गुहार और अर्जी लगाने की मजबूरी जब तक जारी रहेगी, देश से सच्चा लोकतंत्र दूर ही रहेगा.

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