।। डॉ गौरीशंकर राजहंस ।।
(पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत)
अमेरिका की रेडीमेड वस्त्र आयात करनेवाली प्रमुख कंपनियों ने बांग्लादेश की कंपनियों के साथ एक समझौता किया है, जिसमें कुछ शर्तों के साथ बांग्लादेश से पहले की तरह ही रेडीमेड कपड़े आयात करने का प्रावधान है. पश्चिम के देशों के वस्त्र उद्योग को संरक्षण देने के लिए 1970 के दशक में यूरोप और अमेरिका के देशों ने एक ‘मल्टीफाइबर एग्रीमेंट’ किया था.
इसके तहत दक्षिण कोरिया, जापान और एशिया के अन्य देशों के रेडीमेड कपड़ों के आयात पर ‘कोटा’ लगाया गया था, जिससे ये देश अमेरिका और यूरोप को अधिक कपड़े निर्यात नहीं कर सकें. परंतु इन देशों को पता था कि बांग्लादेश एक अत्यंत ही गरीब देश है. अत: उसे इस नियंत्रण से मुक्त रखा गया था.
इस समझौते के बाद अमेरिका और यूरोप में रेडीमेड कपड़े बेचनेवाली नामी कंपनियों ने ढाका के कारखाना मालिकों से बड़े पैमाने पर रेडीमेड वस्त्र खरीदने शुरू कर दिये थे. उनके लिए सबसे बड़ा आकर्षण था कि वहां बननेवाले रेडीमेड कपड़े बहुत सस्ते थे, क्योंकि वहां मजदूरों को बहुत कम मजदूरी मिलती थी.
जब से बांग्लादेश के कारखानों से रेडीमेड कपड़े अमेरिका और यूरोप के देशों को निर्यात होने लगे, बांग्लादेश में आम लोगों की आर्थिक स्थिति में अभूतपूर्व सुधार हुआ. लेकिन अमेरिका और यूरोप के देशों में मांग होने लगी कि बांग्लादेश से रेडीमेड कपड़ों का आयात बंद होना चाहिए, क्योंकि वहां मजदूर बहुत अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं. अमेरिका की ट्रेड यूनियन संस्था ‘एएफएलसीआइओ’ ने अमेरिकी सरकार से कहा कि अमेरिका हमेशा से मजदूरों का शोषण रोकता रहा है. अत: इस सिलसिले में बांग्लादेश से रेडीमेड कपड़ों का आयात बंद करना चाहिए.
लेकिन अमेरिका और यूरोप की बड़ी कंपनियों ने बांग्लादेश से रेडीमेड कपड़े का आयात जैसे ही बंद किया, अनेक देशों में तहलका मच गया. अमेरिका और यूरोप के देशों में भयानक मंदी छायी हुई है और उनके नागरिकों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे महंगे कपड़े खरीद सकें. अत: पश्चिम के देशों की मंडियां बांग्लादेश के बने रेडीमेड कपड़ों से पट गयीं.
बांग्लादेश के रेडीमेड कपड़ों के अधिकारिक आयात पर रोक लगने से पश्चिम के देशों की जनता को घोर असुविधा होने लगी. अमेरिका और यूरोप के प्राय: सभी समाचारपत्रों ने इस बात की कटु आलोचना की है. भारत के भी कई प्रमुख समाचारपत्रों ने अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों के रवैये की कटु आलोचना की और कहा कि यदि बांग्लादेश से कपड़ों का आयात बंद हो गया तो वहां के मजदूर भूखे मर जायेंगे और ये मजदूर देर–सबेर कट्टरपंथियों के संग चले जायेंगे. अत: मानवीय आधार पर भी बांग्लादेश से कपड़े आयात करने चाहिए.
पश्चिमी समाचारपत्रों ने यह सुझाव दिया था कि अमेरिका और यूरोप की कंपनियां बांग्लादेश में यह सुनिश्चित करें कि वहां के कारखानों में मजदूरों को स्वस्थ वातावरण में काम करने का मौका मिले और उन्हें भरपूर मजदूरी दी जाये. यूरोप की प्रमुख कंपनियों ने बांग्लादेश के रेडीमेड कपड़े बनानेवाली कंपनियों के साथ एक समझौता किया जिसके अंतर्गत उन्हें 100 मिलियन डॉलर की मदद कर्ज के रूप में दी गयी, जिससे वे रेडीमेड कपड़े बनाने के नये कारखाने स्थापित कर सकें.
समझौते में यह भी कहा गया कि यूरोप के देशों की कंपनियां बीच–बीच में बांग्लादेश जाकर यह पता लगायेंगी कि वहां मजदूरों का शोषण तो नहीं हो रहा है. जब यूरोप की कंपनियों ने बांग्लादेशी कंपनियों से समझौता कर लिया तब अमेरिकी संसद में मांग होने लगी कि यदि बांग्लादेश की कंपनियों पर प्रतिबंध लगाया गया तो सारा व्यापार यूरोप चला जायेगा, जहां के लोग सस्ते कपड़े पहनेंगे और अमेरिका के लोगों को अमेरिका में बनने वाले महंगे कपड़े पहनने पड़ेंगे.
इसके बाद अमेरिकी कंपनियों ने बांग्लादेशी कंपनियों से समझौता किया जिसमें बांग्लादेश के मजदूरों की सुरक्षा के लिए इन कंपनियों ने बांग्लादेश की कंपनियों को 42 मिलियन डॉलर अनुदान में दिया. यूरोप की तरह अमेरिकी कंपनियों ने भी शर्त लगायी कि अमेरिकी कंपनियां बांग्लादेश जाकर मजदूरों की स्थिति का पता लगायेंगे. यदि उनकी स्थिति दयनीय होगी तो उन कारखानों से रेडीमेड वस्त्र खरीदना बंद कर देंगे.
भारत सहित कई देशों को आशंका थी कि कोई बहाना बना कर अमेरिका और यूरोप की कंपनियां भारत से भी रेडीमेड वस्त्रों के आयात बंद कर देंगी. अब अमेरिकी कंपनियों के ताजा निर्णय ने बांग्लादेश के करोड़ों मजदूरों को कट्टरपंथियों के कैंपों में जाने से रोक दिया. यह एक स्वागतयोग्य कदम है.