।। उमेश चतुव्रेदी ।।
(इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हैं)
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अंगरेजियत का विरोध क्या किया, इस बहाने हिंदी को दोयम और उनके बयान को राजनीतिक ठहराने की कोशिश शुरू हो गयी है. अव्वल तो होना यह चाहिए था कि देश को भारत और इंडिया में बांटनेवाली अंगरेजी भाषा और उसके जरिये समाज में अपनी लगातार दखल बना रही अंगरेजियत पर ईमानदारी से विचार होता, लेकिन हो इसके ठीक उलटा रहा है. राजनाथ सिंह के बयान में उस शशि थरूर ने राजनीति ढूंढ़ी है, जिन्हें हिंदी की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं. लिहाजा वे उन लोगों के दर्द को भी नहीं जान पाये होंगे, जिन्होंने अंगरेजियत के सामने अपनी हिंदीयत और भारतीय भाषाओं के समर्थन के नाम पर काफी कुछ झेला है.
अव्वल तो विरोध तब होना चाहिए था, जब हिंदी और भारतीय भाषाओं में हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही कराने की मांग को लेकर दिल्ली के अकबर रोड पर कांग्रेस मुख्यालय और सोनिया गांधी के घर के सामने 225 दिनों से धरना दे रहे श्यामरूद्र पाठक की गिरफ्तारी की गयी और तिहाड़ भेज दिया गया. अव्वल तो विरोध तब भी होना चाहिए था, जब हिंदी और भारतीय भाषाओं की बजाय अंगरेजी और अंगरेजियत को बढ़ावा देनेवाली परीक्षा प्रणाली को देश के सर्वोच्च अफसरों को चुननेवाली संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में लागू किया जा रहा था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
विवाद तब भी होना चाहिए था, जब गुजरात हाइकोर्ट तीन साल पहले एक फैसले में कह रहा था कि हिंदी राष्ट्रभाषा है ही नहीं. वैसे शशि थरूर अंगरेजियत विरोध के खिलाफ खड़े होकर कोई नया काम नहीं कर रहे हैं. हमारे प्रधानमंत्री ऑक्सफोर्ड में अंगरेज महानुभावों और उनके देश इंग्लैंड को इस बात के लिए धन्यवाद दे ही आये हैं कि उन्होंने हमें सबसे बड़ा जो तोहफा दिया है, वह अंगरेजी है.
भारत में कहा जाता है कि दुनिया को देखने की खिड़की अंगरेजी है. यह बात और है कि लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप समेत दुनिया के बड़े इलाके में अंगरेजी से ज्यादा स्पेनिश बोली जाती है और वह कार्यव्यापार की भाषा है. अंगरेजी की औकात देखनी हो तो आप इटली, फ्रांस और जर्मनी चले जाइये, जल्दी कोई रास्ता बतानेवाला भी नहीं मिलेगा. इसके बावजूद अंगरेजी की श्रेष्ठता का बोध करानेवाली मान्यता के आधार पर भारतीय शिक्षा पद्धति में एक वर्ग ऐसा पैदा किया गया, जिसने अंगरेजी माध्यम के जरिये शिक्षा हासिल की और देश का प्रभुवर्ग बन गया.
दूसरी ओर रोजी–रोजगार के मोरचे पर हिंदी लगातार पिछड़ती चली गयी. इसका असर यह हुआ कि देशभर में कुकुरमुत्तों की तरह अंगरेजी माध्यम के स्कूल बढ़ने लगे. इसके बावजूद असर यह है कि आज भी अंगरेजी महज दो फीसदी लोग ही बोल पाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि जनतंत्र की बात करनेवाली ताकतें इन्हीं दो फीसदी लोगों की वकालत करने में हिचक नहीं दिखातीं.
उन ताकतों को वाराणसी में करीब 108 साल पहले नागरी हिंदी प्रचारिणी सभा की बैठक में मराठा केसरी लोकमान्य तिलक ने जो कहा था, उस पर ध्यान देना चाहिए. उन्होंने कहा था, ‘मैं समझता हूं कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को पूरे देश के लिए एक आम भाषा की जरूरत है. एक आम भाषा का होना राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण तत्व है. वह आम भाषा ही होती है, जिसके द्वारा आप अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाते हैं.
इसलिए यदि हम देश को एकसाथ लाना चाहते हैं, तो सबके लिए एक आम भाषा से बढ़ कर दूसरी कोई ताकत नहीं हो सकती और यही सभा (नागरी प्रचारिणी सभा) का उद्देश्य भी है.’ आजाद भारत के नियंता तिलक के उस बयान को याद करते रहे कि ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’, लेकिन हिंदी से संबंधित उनके बयान को आजाद भारत में वैसी तवज्जो नहीं मिली, जिसका वह हकदार था.
दुर्भाग्यवश जैसे ही अंगरेजीयत के विरोध के सुर उठते हैं, उन्हें हिंदी के समर्थन से जोड़ दिया जाता है. वास्तव में सवाल सिर्फ हिंदीयत का नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं के जनतंत्र से भी जुड़ा होता है, लेकिन हम अंगरेजी के वर्चस्व की संकीर्ण मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं. इस भावना के पीछे कहीं न कहीं तंत्र में उस लोक को हिस्सेदारी देने से इनकार भी छिपा है, जो भारतीय भाषाभाषी है.
विडंबना यह है कि ऐसा वे लोग भी करते हैं, जो देश में कमजोर तबके के लोकतांत्रिक अधिकारों की वकालत करते हैं. तो क्या यह मान लिया जाये कि उनकी यह अपील महज दिखावा है? फिलहाल भारतीय भाषाओं के विरोध और अंगरेजियत के समर्थन से तो कुछ ऐसे ही संकेत मिलते हैं.